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छत्तीसगढ़ में हार से उबरेगी भाजपा?

रायपुर | संवाददाता: छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद भाजपा के सामने बड़ी चुनौती है कि वह लोकसभा में भी अपनी सीटें बचा पायेगी या नहीं? विधानसभा की कई सीटों के आंकड़ों को देखें तो लोकसभा के लिहाज से ढाई लाख वोटों का अंतर आ रहा है. ऐसे में भाजपा के लिये इस चुनौती से निपट पाना आसान नहीं होगा.

राज्य की 90 में से 68 सीटों पर कांग्रेस की जीत के बाद लोकसभा की 11 में से 10 सीटों पर काबिज भाजपा एक के बाद एक रणनीति बना रही है. कार्यकर्ता भी विधानसभा चुनाव में हुई हार के बाद से इस बात की तैयारी में जुटे हैं कि किसी भी तरह से लोकसभा की सीटें बच जायें.

भाजपा ने बस्तर से विक्रम उसेंडी को छत्तीसगढ़ में पार्टी की कमान सौंप कर यह बताने की कोशिश की है कि भाजपा आदिवासियों के साथ है.

लेकिन बस्तर से लेकर सरगुजा तक भाजपा को जिस तरह से मतदाताओं ने नकारा है, उससे लगता नहीं है कि छह महीने में मतदाताओं का मन बदल गया होगा.

वह भी तब जब कांग्रेस ने सत्ता में आते ही धान का 2500 रुपये समर्थन मूल्य, 15000 करोड़ की किसानों की कर्ज माफी और बिजली बिल हाफ जैसे अपने वादों पर मुहर लगा दी हो.

भाजपा के साथ एक बड़ा संकट ये भी है कि पार्टी जिस तरह से गुटों में बंटी हुई है और पार्टी में कॉर्पोरेट कल्चर के कारण कार्यकर्ताओं को जिस तरह से हाशिये पर रखा गया है, उससे पार्टी उबरती हुई नजर नहीं आ रही है. हां, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रेम उन्हें अब भी जी जान से जुटने की प्रेरणा जरुर देता रहा है.

कांग्रेस में 13000 नेताओं की सत्ता में हिस्सेदारी

हालांकि इस बीच आम लोगों में प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है. यही कारण है कि विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीरों को छोटा कर के रमन सिंह के चेहरे पर ही चुनाव लड़ा गया था.

इससे पहले माना जा रहा था कि मोदी के चेहरे का जादू चल जायेगा लेकिन जनता की नाराजगी समझ में आई तो आला नेताओं के निर्देश पर रमन सिंह को बड़ा चेहरा बनाया गया.

लेकिन बात आ कर टिकेगी कांग्रेस के प्रत्याशियों पर. पार्टी में 68 विधायकों की जीत के बाद हर विधानसभा में कम से कम 200 ऐसे नेता-कार्यकर्ता हैं, जो अपने विधानसभा सीट पर जीत के लिये खुद को सबसे महत्वपूर्ण मान कर चल रहे हैं.

हर विधानसभा चुनाव में ऐसे दावे करने वाले नेता लगातार बढ़ते गये हैं. इनमें से अधिकांश की नजरें आयोग और निगम मंडलों पर है. इसके बाद ताज़ा मुद्दा तो लोकसभा की टिकट से जुड़ा हुआ है.

ऐसे में इन 13 हज़ार से अधिक लोगों की महत्वकांक्षाओं की तुष्टि कैसे होगी, इसे साध पाना आसान नहीं है. इस महत्वाकांक्षा का असर लोकसभा चुनाव में भी नजर आयेगा, यह बात तो तय है.

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