प्रसंगवश

माओवादी मोर्चे पर सरकार

सुरेश महापात्र
छत्तीसगढ़ के लिए माओवाद एक बड़ी समस्या के रूप में विकास अवरोधक की भूमिका निभाता रहा है. जिसके निजात के लिए केंद्र और राज्य सरकार के नीतिगत फैसलों की सीधा प्रभाव प्रभावित क्षेत्रों पर पड़ेगा. इसके लिए दोनों सरकार की नीति व नीयत की दरकार लंबे अरसे से महसूस की जाती रही है. सही तरीके से नीतियों के क्रियान्वयन से माओवादी समस्या के निपटारे पर सभी की नजर टिकी है.

कहते हैं देर आयद, दुरूस्त आयद. यानी देर से ही सही बात शुरूआत तो हुई. एक लंबे अरसे के बाद ऐसा लग रहा है कि सरकार अब नक्सल मोर्चे पर अपना मोड बदलने की तैयारी कर रही है. केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद यह पहला बदलाव देखने को मिल रहा है. केंद्र सरकार ने माओवादियों के खिलाफ तगड़ी मोर्चेबंदी की तैयारी शुरू की है. पहली शुरूआत इसके नामकरण के साथ की गई है. पूर्व में गृह मंत्रालय द्वारा नक्सल प्रकोष्ठ का गठन माओवादी हिंसा से जुड़े मामलों के विमर्श के लिए किया गया था. नई सरकार अब इसे वामपंथी उग्रवाद प्रभाग का नाम देने की प्रक्रिया पूरी कर रही है. एक प्रकार से इसे विस्तार दिया जा रहा है.

माओवादी मोर्चे पर जुझती छत्तीसगढ़ सरकार को करीब 20 बटालियन अतिरिक्त फोर्स की उपलब्धता पर विचार किया जा रहा है. अगर ऐसा होता है तो यहां पहले से तैनात जवानों और माओवादी विरोधी अभियान को मजबूती मिल सकेगी. वर्तमान में छत्तीसगढ़ में अर्घसैनिक बलों के 40 बटालियन तैनात हैं. आंकड़ों पर ध्यान दें तो छत्तीसगढ़ में करीब 40 सक्रिय माओवादी संगठन हैं. इसमें करीब 50 हजार सशस्त्र माओवादी शामिल हैं जिनमें एक तिहाई महिला शामिल हैं. राज्य सरकार लम्बे समय से अतिरिक्त सुरक्षा बल की मांग करती रही है. अमूमन हर बड़े माओवादी हमले के बाद सरकार की ओर से यही मांग दोहराई जाती रही है. अतिरिक्त सुरक्षा बलों की पूर्ति की बड़ी मांग पूरी होने के बाद माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई में छत्तीसगढ़ सरकार की नीति में परिवर्तन आ सकता है. राज्य सरकार पर नक्सल मोर्चे पर लचीला रूख अख्तियार करने का आरोप लगता रहा है.

केंद्र सरकार ने माओवादी मोर्चे पर तैनात जवानों को अमरीकी मॉडल पर सुविधाएं देने का प्रस्ताव तैयार किया है. इसे लेकर यह महसूस हो रहा है कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में तैनात जवानों के मनोबल पर सीधा प्रभाव पड़ेगा. जिस प्रस्ताव की चर्चा हो रही है उसमें माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में काम करने वाले सुरक्षाबलों के लिए आउट ऑफ टर्न प्रमोशन, विशेष सुविधा व भत्ते मनमर्जी तैनाती दिए जाने का प्रस्ताव है. माओवादी मोर्चे पर किसी सरकार द्वारा सीधी कार्ययोजना बनाकर कार्रवाई की तैयारी से माओवाद प्रभावित इलाकों में सकारात्मक संदेश पहुंचा है. हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने मंत्रालय में अधिकारियों की बैठक लेकर इसकी समीक्षा की है. माओवादियों के खिलाफ नई नीति अमरीकी मॉडल की तर्ज पर होने की चर्चा का स्वागत किया जा रहा है.

केंद्रीय गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालते ही राजनाथ सिंह ने माओवाद को आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती बताया था. उन्होंने कहा था कि इसके खिलाफ सख्त कदम उठाए जाएंगे. उन्होंने इसके लिए प्रभावित राज्यों के साथ जल्दी ही बैठक कर हालात का जायजा लेने की बात कही थी. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भी इस मुद्दे पर केंद्रीय गृहमंत्री से मुलाकात की बात कही है. इससे पहले ही मुख्यमंत्री ने प्रदेश के माओवादी प्रभावित इलाकों में पुलिसिंग की बड़ी सर्जरी कर अपना संदेश भी लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की है.

बस्तर संभाग के सात जिलों में से पांच में पुलिस कप्तान बदल दिए गए हैं. पुलिस महानिरीक्षक का तबादला कर माओवादी मोर्चे के विशेषज्ञ एसआरपी कल्लूरी की तैनाती की गई है. कल्लूरी नक्सल मोर्चे पर सीधी लड़ाई के पैरोकार रहे हैं. धुर नक्सली इलाके ताड़मेटला, मोरपल्ली गांवों में तीन सौ घरों में आगजनी के मामले को लेकर वे जांच के घेरे में भी रहे. सब कुछ ठीक होने के बाद उनकी पोस्टिंग बस्तर में किए जाने से लग रहा है कि प्रदेश सरकार ने माओवादी मोर्चे पर कुछ नीतिगत परिवर्तन किए हैं.

बड़ी बात यह है कि माओवादी मोर्चे पर सरकार की नीति और नीयत का असर तो दिखेगा ही. पर यह समझना आवश्यक है कि केवल एक ही दिशा में प्रयास से माओवादी समस्या का निपटान फिलहाल संभव नहीं दिख रहा. इसके लिए विकास के सभी मोर्चे पर एक साथ काम करते हुए ही सफलता पाई जा सकती है. ऐसा नहीं है कि इससे पहले की सरकार ने कोशिश नहीं की. हर सरकार इस मामले की गंभीरता को समझती रही है पर उसकी नीति और क्रियान्वयन के तरीके पर जाकर मामला अटकता रहा है.

माओवाद प्रभावित बस्तर में दो राष्ट्रीय राजमार्ग की स्थिति बेहद चिंताजनक है. एक जगदलपुर से कोंटा और दूसरा गीदम से भोपालपटनम. इसके अलावा अंदरूनी इलाकों में पहुुंच मार्ग के नाम पर केवल खानापूर्ति फोर्स की परेशानी का सबब रही है. इसके अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पेयजल आदि की उपलब्धता पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है. विकास के द्वार तेजी से खोले जाएं. औद्योगिक विकास के रास्ते खोले बगैर माओवादी मोर्चे पर आसान जीत की उम्मीद कम ही है. यहां यह भी आवश्यक है कि औद्योगिक विकास जैसे संवेदनशील मुद्दे पर स्थानीय हितों की अनदेखी और औद्योगिक नीति में गड़बड़ी से हालात बिगड़ भी सकते हैं.
*लेखक दंतेवाड़ा से प्रकाशित बस्तर इंपैक्ट के संपादक हैं.

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