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इस अंधेरी सुरंग में रोशनी कहां?

देविंदर शर्मा
बी बी आरोटे महाराष्ट्र के एक टमाटर उत्पादक हैं. 11 मई को, वह नवी मुंबई बाजार में 840 किलो टमाटर बेचने के लिये गये. परिवहन और बाजार लेवी समेत अपने सभी खर्चों का भुगतान करने के बाद उनके पास कमाई के नाम पर केवल एक रुपया बचा. बाज़ार के इस भयानक अत्याचार का सामना करने वाले आरोटे अकेले किसान नहीं हैं.

इस घटना के कुछ दिनों के बाद, 17 मई को, एक टीवी चैनल पर महाराष्ट्र में लासलगांव बाजार में प्याज की कीमतों में अभूतपूर्व गिरावट के कारणों पर चर्चा हो रही थी. दो दिन बाद, 19 मई को समाचार पत्रों ने मध्यप्रदेश के राजगढ़ में प्याज की कीमतों के 30 पैसे प्रति किलो तक गिरने की खबर प्रकाशित की थी.

पूरे देश भर में और फसलों की कटाई के बाद, कृषि उत्पाद कीमत के मामले में बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं और किसान अपने उत्पाद की घटी हुई कीमत की भयावह मुश्किलों से जूझ रहे हैं. टमाटर, आलू, प्याज, गोभी, मिर्च और यहां तक कि लहसुन तक की फसल का हाल बुरा है. किसानों को अपने इन उत्पादों को या तो सड़कों पर फेंकने के लिये मज़बूर होना पड़ रहा है या फिर इसे मवेशियों के लिये खेतों में ही छोड़ देने के हालत बन रहे हैं. लहसुन के लिए 1 रुपये प्रति किलो की कीमत भी नहीं मिल पा रही है. सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो की एक लंबी श्रृंखला है, जिसमें किसानों को गांव के तालाबों के आसपास बोरा के बोरा लहसुन फेंक रहे हैं. मध्यप्रदेश के रतलाम के एक किसान ने मंडी में 7 क्विंटल लहसुन छोड़ दिया क्योंकि उसे इसकी ढ़ंग की क़ीमत नहीं मिल पा रही थी. इस तरह की तमाम घटनायें कृषि बाजारों की विफलता का प्रतिबिंब हैं.

दालों के लिए भी, किसानों को जो कीमत मिल रही है, वह एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी 20 से 45 प्रतिशत तक कम है. मैं यह सोचने के लिये मजबूर हो जाता हूं कि इस तरह की दुःखद परिस्थितियों में किसान को कैसे जीवित रहना चाहिए. जैसे कि यह भयावह स्थितियां ही पर्याप्त नहीं हैं, अब दूबर पर दो आषाढ़ वाली स्थिति पैदा हो रही है और मोजाम्बिक से 150,000 टन दालों का आयात किया जा रहा है. चीनी के मामले में, आज जबकी घरेलू बाजार पटा हुआ है, तब पाकिस्तान से चीनी आयात की अनुमति दे दी गई है. निर्यात-आयात के मोर्चे पर अव्यवस्थित प्रबंधन ने कृषि संकट को और बढ़ा दिया है.

इस तरह का एक निराशाजनक कृषि परिदृश्य ऐसे समय में सामने है, जब किसानों की शुद्ध आय पिछले कई दशकों से स्थिर बनी हुई है. यदि आप मुद्रास्फीति के हिसाब से इसे समायोजित करते हैं, तो किसानों को टमाटर के लिए आज भी वही कीमत मिलती है, जो उन्हें 20 साल पहले मिलती थी. नीति आयोग ने हाल ही में अपने एक अध्ययन में निष्कर्ष निकाला है कि 2011-12 और 2015-16 के बीच पांच साल की अवधि में वास्तविक कृषि आय में सालाना आधे प्रतिशत से भी कम का इजाफा हुआ है. कृषि आय में औसत वार्षिक वृद्धि 0.44 प्रतिशत से भी कम है, जिसका वास्तविकता मतलब है कि किसान की आय स्थिर बनी हुई है. अगले दो वर्षों, 2016-17 में रिकॉर्ड अनाज उत्पादन और 2017-18 में भी और बम्फर फसल की उम्मीद के बावजूद किसानों के लिये कीमतें और गिर गई हैं. किसानों में केवल निराशा की फसल उग रही है और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि विरोध प्रदर्शन, धरना और रैलियों की संख्या देश भर में बढ़ गयी है.

उत्पादन की व्यापक लागत पर 50 प्रतिशत की वृद्धि की सिफारिश करने वाली स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के वादे पर सवार होने वाली मोदी सरकार से सामने अपने अंतिम वर्ष में सबसे बड़ी चुनौती कृषि को पतन से तत्काल बचाने की है. देश में चूंकि केवल 6 प्रतिशत किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिलता है, इसलिए स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुसार बढ़ी हुई लाभ से भी शेष 94 प्रतिशत किसान वंचित ही रहेंगे, जो किसी भी स्थिति में बाजारों की अनियमितताओं पर ही निर्भर हैं. ऐसे समय में जब आर्थिक सर्वेक्षण 2016 हमें बताता है कि 17 राज्यों में एक कृषि परिवार की औसत आय, जो लगभग आधा देश है, सालाना 20,000 रुपये है, तब 2022 तक खेती की आय को दोगुना करने का दावा को समझ पाना मुश्किल होता है.

इसलिए कृषि को आईसीयू से बाहर निकालने के लिये तत्काल बहुमुखी दृष्टिकोण की जरूरत है. इस बात पर विचार करते हुए कि लगभग 58 प्रतिशत किसान खाली पेट बिस्तर पर जाते हैं, चुनौती यह है कि कैसे कृषि को अधिक टिकाऊ और आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनाना है; किसानों को आश्वासित मासिक जीवन आय के साथ कैसे प्रदान करें. इस आर्थिक सोच में एक आदर्श बदलाव की आवश्यकता होगी, जिसमें खेती को एक लाभदायक उद्यम बनाने पर ध्यान केंद्रित होगा. एक ऐसे समय में जब देश बेरोजगारी से भरे विकास का सामना करना पड़ रहा है, केवल कृषि में ही स्थायी आजीविका प्रदान करने की क्षमता है और इसे ही बेहतर करके अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है.

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