छत्तीसगढ़

जोगी बिना कांग्रेस

अब यह प्रश्न है कि क्या जोगी के बिना प्रदेश कांग्रेस के लिए विधानसभा चुनाव जीत पाना संभव है? जोगी यदि घर में बैठ जाएं तथा कार्यकर्ताओं को निष्क्रिय रहने की हिदायत दे तो पार्टी की संभावनाओं पर क्या फर्क पड़ेगा? क्या संगठन के वरिष्ठ नेताओं में इतनी काबिलियत है कि वे पार्टी को जीता सकें? क्या मोतीलाल वोरा, चरणदास महंत, रविंद्र चौबे प्रदेश के लोकप्रिय नेता हैं और पूरे प्रदेश में उनकी जमीनी पकड़ मजबूत है? इस अंतिम प्रश्न पर लोगों की राय पूछें तो जवाब मिलेगा ये लोग एक क्षेत्र विशेष के नेता हैं लिहाजा उनकी जमीनी पकड़ भी सीमित है? तो क्या सीमित जनाधार वाले ये नेता पार्टी को जीता सकते हैं? निश्चय ही कठिन प्रश्न है क्योंकि पार्टी या प्रत्याशी की जीत अथवा हार के लिए कई कारक जिम्मेदार होते हैं और निश्चिय ही लोकप्रिय छवि भी इनमें एक है. इसलिए चुनावी संभावनाओं पर फिलहाल कोई राय कायम नहीं की जा सकती. अलबत्ता यह अवश्य कहा जा सकता है कि मौजूदा नेतृत्व में इतना दम नहीं है कि बगैर जोगी की मदद के पार्टी को चुनाव जीता सकें.

यह तो एक राय हुई, जो संगठन के वरिष्ठ नेताओं के संदर्भ में है लेकिन इसी संदर्भ में जोगी को लेकर दो तरह के विचार हैं. एक विचार यह है कि जोगी को यदि किनारे कर दिया जाए तो पार्टी की जीत की संभावनाएं बढ़ जाएंगे. इस सोच के पीछे कुछ तर्क है. प्रदेश की जनता 2000 से 2003 तक जोगी का शासन देख चुकी है और उन्हें तानाशाही प्रवृत्ति का मानती है इसलिए कांग्रेस को वोट देने का मतलब जोगी की राह आसान करना है. सन् 2008 के चुनाव में कांग्रेस की पराजय का एक बड़ा कारण जोगी द्वारा स्वयं को मुख्यमंत्री के रुप में प्रोजेक्ट करना रहा है. कुछ आमसभाओं में उनके द्वारा कही गई बातों का बड़ा प्रतिकूल असर हुआ. प्रदेश की जनता जोगी को शासक के रुप में देखना नहीं चाहती थी. लोगों के दिलों दिमाग में जोगी के आतंक का भूत इस कदर सवार था कि वह पार्टी की हार का एक प्रमुख कारण बना.

5 साल बाद यानी अब यह असर कुछ कम इसलिए हुआ है क्योंकि जोगी ने घोषणा कर दी है कि वे मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल नहीं है तथा कांग्रेस के जीतने पर वे मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे. लेकिन उनके द्वारा की गई इस घोषणा पर कौन कितना यकीन करेगा, कहना मुश्किल है. इसलिए जोगी के बारे में ऐसी जनचर्चाओं को ध्यान में रखते हुए हाईकमान यह सोच सकता है कि आगामी राज्य विधानसभा चुनाव में जोगी को कोई भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी न दी जाए. इसलिए पार्टी उनकी उपेक्षा कर रही है.

पर जोगी के बारे में दूसरा विचार भी कम ताकतवर नहीं है. आम जनता ही नहीं पार्टी भी यह जानती है कि जोगी का कोई मुकाबला नहीं है. उनमें गजब की क्षमता है तथा उनका राजनीतिक कौशल भी बेमिसाल है. वे पार्टी को विजयी बनाने का दम रखते हैं बशर्ते सब कुछ उनके हिसाब से चले. सन् 2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की विजय सुनिश्चित थी बशर्ते विद्याचरण शुक्ल बगावत न करते और प्रदेश एनसीपी का गठन न होता. उनके नेतृत्व में एनसीपी ने चुनाव लड़ा और कांग्रेस के इस बागी धड़े ने करीबन 7 प्रतिशत वोट हासिल कर लिए जो तकरीबन कांग्रेस के ही थे. कांग्रेस की हार का यही मूल कारण था. यह जोगी की व्यक्तिगत हार नहीं थी. अलबत्ता 2008 के चुनाव में जोगी की अति महत्वाकांक्षा, अति आत्मविश्वास, संगठन में आपसी फूट एवं भितरघात ने कांग्रेस को फिर से हरवा दिया.

सन् 2003 के चुनाव में संगठन जोगी के कब्जे में था और उन्होने जैसा चाहा वैसा किया. उनके खिलाफ बोलने तक की हिम्मत किसी नेता में नहीं थी. इसलिए इस चुनाव के दौरान भितरघात या असंतुष्ट गतिविधियों के लिए कोई जगह नहीं थी. इसे हम जोगी के नेतृत्व का कमाल कह सकते हैं. यानी जोगी अपनी कतिपय कमजोरियों के बावजूद ऐसे राजनेता हैं जिनके भरोसे पार्टी जीत की कल्पना कर सकती है.

परस्पर विरोधी इन विचारों के बीच यदि हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश करें तो कहना होगा- जोगी का नकारात्मक पक्ष ज्यादा प्रबल है. पार्टी हाईकमान उन्हें दो चुनावों में आजमा चुका है. इनमें पार्टी की पराजय के चाहे जो भी कारण हों पर अब जोगी पर कोई दांव नहीं खेला जा सकता. पिछले कई राजनीतिक घटनाओं से यह जाहिर हो चुका है कि जोगी गुट बेइंतिहा छटपटा रहा है और शक्ति प्रदर्शन के जरिए संगठन को चुनौती देता रहा है. चाहे वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की रायपुर यात्रा हो या फिर प्रदेश प्रभारी बी.के. हरिप्रसाद की सभाएं हों. जोगी जिंदाबाद की गूंज संगठन खेमे के साथ-साथ हाईकमान को भी कर्कश लगने लगी है. फलत: अब परिणाम सामने है. जोगी किनारे लगा दिए गए हैं. बहुत संभव है, नवंबर में होने वाले विधानसभा में उनके समर्थकों को टिकट के लाले पड़ जाएं.

निश्चय ही जोगी राजनीति के चतुर खिलाड़ी है. वे वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को समझ रहे हैं. लिहाजा फूंक-फूंककर कदम उठाएंगे. नई दिल्ली में सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी से मिलने के बाद जब वे रायपुर लौटे तो विमानतल पर उनका जोरदार स्वागत करके उनके गुट ने अपनी शक्ति का इजहार किया. प्रदर्शन के ऐसे मौके वे ढूंढते रहेंगे ताकि संगठन असहज बना रहे. इस बात की संभावना कम ही है कि उनके गुट तथा संगठन के बीच मेल-मिलाप होगा क्योंकि यह गुटीय नेताओं के अहम् का प्रश्न है. न तो चरणदास महंत झुकने के लिए तैयार होंगे और न ही जोगी दोस्ती का हाथ बढ़ाएंगे. यह देखा-अनदेखा टकराव चुनाव तक जारी रहे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

बहरहाल एक दशक से अधिक लगातार चर्चाओं में बने रहे जोगी के बारे में यह भी कहा जाता है कि कांग्रेस छोड़कर बसपा का दामन थामेंगे. किसी जमाने में कांशीराम से उनकी निकटता छिपी नही थी. बसपा में जाने की चर्चा उस दौर में भी थी जो गलत साबित हुई. अभी भी ऐसा ही होगा. जोगी कांग्रेस छोडऩे की भूल नहीं करेंगे. अलबत्ता पार्टी में रहते हुए ही चुनौतियां पेश करते रहेंगे. संगठन उनसे कैसे निपटेगा, यह आगे की बात है लेकिन जोगी को यदि संतुष्ट नहीं किया गया तो राज्य विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की संभावनाओं को करारा झटका लगना तय है.

0 thoughts on “जोगी बिना कांग्रेस

  • Bikash Kumar Sharma

    Actually
    Ajit Jogi is one of the top most ‘mass leaders’ in Chhattisgarh state
    irrespective of any political outfit.. Even many believe Jogi as the
    reason behind congress’s debacle in 2003 assembly election but without
    him it would be certainly difficult for the party to regain power… He
    has a mass base in most parts of the state esp. rural areas…

    Reply

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!