प्रसंगवश

जोगी होने का मतलब-4

दिवाकर मुक्तिबोध
सहन शक्ति बनाम सनक
मुख्यमंत्री के रुप में अजीत जोगी के इस रवैय्ये पर आप क्या टिप्पणी करेंगे? यही न कि विरोध को सहन करने की शक्ति नहीं तथा शासक होने के नाते अपनी मर्जी से शासन चलाने की सनक. अन्यथा सरकार के दो मामूली पुर्जों (सरकारी अधिकारी) को शर्मिदगी से बचाने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था की ऐसी अवमानना नहीं की जा सकती.

यह भी निश्चित है कि इस कदम से जोगी का कोई राजनीतिक हित नहीं सध रहा था और न ही ये दोनों अधिकारी उनके बहुत करीब थे. उनको बचाने का शायद यही एक मकसद था कि वे नौकरशाहों को यह संदेश देना चाहते थे कि वे केवल उनसे (जोगी) खौफ खाए बाकि कि उन्हें चिंता करने की जरुरत नहीं है. पक्ष या विपक्ष का कोई भी विधायक उनका बाल बांका नहीं कर सकता. निश्चिय ही पूरे शासनकाल में नौकरशाही उनसे घबराती रही तथा उनके इशारे पर नाचती रही.

इसी संदर्भ में यहां यह कहना अप्रसांगिक नहीं होगा कि राज्य विधानसभाओं में विभिन्न मामलों में दोषी पाए जाने वाले अधिकारियों को बुलाकर फटकार लगाना अनहोनी घटनाएं नहीं है. म.प्र. विधानसभा में मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के शासनकाल में उनके एक अतिप्रिय अधिकारी को किसी गलती के लिए सदन में तलब किया गया था तथा उनकी भर्त्सना की गई थी.

सुंदरलाल पटवा ने जांच की प्रक्रिया के दौरान कोई हस्तक्षेप नहीं किया तथा भर्त्सना की सिफारिश को मान्य किया था. यह अलग बात है कि बाद में इस अधिकारी को पदोन्नति दे दी गई. इस उदाहरण से स्पष्ट है जोगी की प्रवृत्तियां व उनकी कार्यशैली अन्य से कितनी भिन्न है.

और यह भी
राजनेता के रुप में जोगी की निरंकुशता के और भी उदाहरण हैं. विश्व के देशों में जहां-जहां लोकतंत्र है और इस शासन व्यवस्था का सम्मान किया जाता है, ऐसी घटना देखने नहीं मिलेगी जैसा कि छत्तीसगढ़ विधानसभा में घटित हुई थी.

29 सितंबर 2002 को विपक्ष द्वारा रखे गए अविश्वास प्रस्ताव पर सदन में बहस के दौरान सत्ता पक्ष की ओर से केवल एक वरिष्ठ विधायक एवं मंत्री रवीन्द्र चौबे मौजूद थे, शेष सभी विधायक बाहर गलियारे में बैठे रहे. ऐसा मुख्यमंत्री के निर्देश पर सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया. यह घोर अलोकतांत्रिक तरीका था.

जब बहस पूरी हुई और अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान की घड़ी आ गई, सत्ता पक्ष के सभी विधायक अपनी-अपनी सीट पर पहुंच गए. विपक्ष की ऐसी अवहेलना का कोई और उदाहरण संसदीय विधान के इतिहास में देखने नहीं मिलता.

अपने शासनकाल में अजीत जोगी ने सदन में एवं सदन के बाहर विपक्ष की आवाज को करीब-करीब खामोश कर दिया, उसे एकदम बौना बना दिया. भाजपा की जैसी दुर्गति उन्होंने की, वैसी पूर्व में कभी नहीं हुई थी.

विपक्ष के एक दर्जन विधायकों को तोड़ने और उनका कांग्रेस प्रवेश कराने की घटना जोगी के कूटनीतिक कौशल की भले ही बानगी रही हो पर इससे उनकी लोकप्रियता के ग्राफ में कोई इजाफा नहीं हुआ बल्कि उनके करियर पर धब्बा ही माना गया क्योंकि जनता को यह बात समझाने की जरुरत नहीं थी कि विधायकों की खरीद फरोख्त नहीं हुई और वे बिना किसी दबाव एवं प्रलोभन के भाजपा छोड़ कांग्रेस में आए.

भाजपा विधायक रामदयाल उइके से इस्तीफा दिलवाकर उनकी रिक्त सीट मरवाही से उपचुनाव लड़ना भी जोगी की शातिर राजनीति का एक और उदाहरण है. यद्यपि यह बात सिद्ध नहीं की जा सकी कि भाजपा विधायकों को खरीदा गया, उन्हें पद का प्रलोभन दिया गया अथवा रामदयाल उइके ने जोगी को विधानसभा में पहुंचाने स्वेच्छा से सीट खाली की.

चूंकि सत्ता की राजनीति में जोड़तोड़ को विशेष मान्यता है और इसके सिद्धहस्त खिलाड़ी को अघोषित रुप से विशेष दर्जा मिलता रहा है अत: केन्द्रीय नेतृत्व के सामने जोगी की छवि आला दर्ज के ऐसे राजनेता की बनी जिसे शासन करना खूब अच्छी तरह आता है और जो विपक्ष की कमर तोड़ने में माहिर है. लिहाजा दिल्ली की राजनीति में जोगी को अपनी जगह बनाने में कोई परेशानी नहीं हुई. वे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की नजरों में चढ़ गए, यह अलग बात है कि रास्ता बनाने का काम उनके (श्रीमती गांधी) सचिव विसेंट जार्ज ने किया.

छत्तीसगढ़ के बादशाह
इस बात का जिक्र किया जा चुका है कि प्रशासनिक कौशल के दम पर जोगी ने अपनी अलग छवि गढ़ ली. किसी आईएएस अफसर की मजाल नहीं थी कि वह उनके किसी निर्णय पर बहस करें. उनका काम जोगी के निर्णयों पर तुरंत अमल करना था. अत: फाइलें फटाफट निपटती थीं. जोगी यह जाहिर करने से नहीं चूकते थे, कि वे इस राज्य के बादशाह है.

मंत्रियों और राजनेताओं को उन्होंने इस कदर बौना बना दिया था कि उनके कक्ष में मुलाकातियों के लिए कोई कुर्सी नहीं रहती थी. वे अकेले बैठते थे और उनसे मिलने आने वालों को कतार में खड़े रहना पड़ता था. चाहे वे मंत्री हों या विधायक. जोगी के राज में सुखी वहीं थे, जिन्होंने उनका आधिपत्य स्वीकार कर लिया था. ऐसे नेताओं, अधिकारियों को उन्होंने अभयदान दिया और जिन लोगों ने सिर उठाने की जुर्रत की, उनका सिर उन्होंने बेरहमी से कुचल दिया.

राजनीति में विरोध को बर्दाश्त न करने एवं विरोधियों को ठिकाने लगाने की प्रवृत्ति जोगी के लिए घातक सिद्ध हुई. उनके तीन साल के शासनकाल के प्रारंभिक महीने यकीनन अच्छे बीते और वे पुराने जोगी ही नजर आए जो कभी कलेक्टर हुआ करते थे और हर वर्ग के लोगों की बातें धैर्य से सुनते थे. लेकिन अपनी सत्ता को बनाए रखने की लालसा जैसे-जैसे तीव्र होती गई, जोगी का चेहरा बदलता गया.

हालांकि उन्हें यकीन था जब कभी चुनाव होंगे (जो सन 2003 नवम्बर-दिसंबर में तय थे.) वे आराम से वापसी करेंगे. इस विश्वास की बड़ी वजह थी प्रदेश भारतीय जनता पार्टी की अधमरी हालत, जो उनकी बनाई हुई थी. लेकिन उन्हें इस बात का इल्म नहीं था कि उनके बदले हुए चेहरे को, बदले हुए रवैय्ये को, निरंकुशवाद को जनता पसंद नहीं कर रही है. सवर्णों के प्रति उनका दुराग्रह भी छिपा नहीं. इसका स्पष्ट आभास हुआ कि वे जातिवादी हैं और जातीयता की भावना को कम करने के बजाए उसे बढ़ाने का वे कृत्य करते रहे.

हीनता की मनोग्रंथि कैसे उनके व्यक्तित्व को कुतर रही थी यह इस बात से जाहिर है कि वे अपने साथ हेलीकाप्टर में निचले तबके के ऐसे लोगों को ले जाना पसंद करते थे जिनकी कोई राजनीतिक हैसियत नहीं थी. हीनता की यह ग्रंथि शायद इस वजह से विकसित हुई कि जोगी खुद नीचे से उपर उठे थे. गरीबी से लड़ते हुए, सर्वहारा होने के दर्द को झेलते हुए, उनके बीच रहते हुए वे बड़े हुए और उन्होंने अपनी कर्मठता से अपनी सामाजिक एवं राजनीतिक हैसियत बनाई. यही दर्द सत्ता के अंतिम वर्ष में बहुत तेजी से उभरा और उनसे ऐसे काम करवाता चला गया, जिसकी कीमत उन्हें बाद में चुनाव में चुकानी पड़ी.

नवम्बर 2003 में छत्तीसगढ़ राज्य के पहले चुनाव में जोगी के नेतृत्व में कांग्रेस की पराजय का प्रमुख कारण विद्याचरण शुक्ल एवं उनकी तत्कालीन राष्ट्रवादी कांग्रेस (पवार) की मौजूदगी रही जिसने लगभग 7 प्रतिशत वोट कबाड़कर कांग्रेस की कब्र खोद दी, हालांकि उसका (राकांपा) सिर्फ एक विधायक ही चुनकर आया.
जारी..
*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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