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निजी क्षेत्र की आर्थिक दिक्कत को सरकार को क्यों कम करना चाहिए?बैंकिंग नियमन संशोधन अध्यादेश, 2017 को 4 मई को लागू किया गया. इसके जरिए बैंकिंग नियमन कानून, 1949 में संशोधन करके भारतीय रिजर्व बैंक को यह ताकत दी गई है कि वह बैंकों को यह निर्देश जारी करके कह सके कि वे कर्ज नहीं चुका पाने वाले कारोबारियों पर इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्शी कोड, 2016 के तहत कार्रवाई करें.

इसके अतिरिक्त रिजर्व बैंक को यह अधिकार दिया गया है कि वह चाहे तो समय-समय पर बैंकों को उनके कर्जों के बारे में समय-समय पर निर्देश जारी कर सके और जरूरत पड़ने पर बुरे कर्ज की समस्या से निपटने के लिए समिति का गठन कर सके. अभी यह अस्पष्ट है कि इस अध्यादेश के जरिए क्या हासिल करने की कोशिश की गई है. क्योंकि रिजर्व बैंक के पास पुराने कानून के तहत ही बैंकों को समय-समय पर निर्देश जारी करने का अधिकार है.

यह भी देखा जाना बाकी है कि क्या इस अध्यादेश के लागू होने के बाद संकटग्रस्त कर्जों का निपटान तेजी से हो पाएगा. हालांकि, सरकार के स्तर पर ऐसे कर्जों से निपटने के लिए कुछ सलाह समय-समय पर आते रहते हैं. इन सलाहों के मूल में एक बात यह रहती है कि निजी क्षेत्र के कर्जों का बोझ कैसे भी करके सरकार और सरकारी उपक्रम उठा लें.

कई सुझाव हाल के दिनों में दिए गए हैं. आर्थिक सर्वेक्षण में पब्लिक सेक्टर एसेट रिहैब्लिटेशन एजेंसी यानी पारा का सुझाव दिया गया था. इसका काम यह बताया गया था कि यह सरकारी बैंकों के डूब रहे कर्जों को खरीद ले. पारा के लिए पैसे तीन स्रोतों से जुटाए जाने की योजना है. इनमें सरकार द्वारा बॉन्ड जारी करना, निजी क्षेत्र को हिस्सेदारी देना और रिजर्व बैंक के पास पड़े अतिरिक्त पैसों का इस्तेमाल करना शामिल है.

पारा की तरह जो दूसरे सुझाव भी सामने आए हैं, उनमें भी सरकारी पैसे का इस्तेमाल किया जाना ही शामिल है. इनमें सबसे बुरा यह है कि प्रधानमंत्री की मौजूदगी में एक बैठक में यह प्रस्ताव सामने आया है सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बैंकों द्वारा कॉरपोरेट घरानों को दिए गए कर्जे की वजह से मौजूद एनपीए को खरीदने को कहा जाए.

इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि इन उपक्रमों के पास बैंकों का एनपीए स्थानांतरित कर देने को कड़ी जांच प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ेगा. क्योंकि ऐसा करके निजी क्षेत्र कमाई कर रही सरकारी कंपनियों पर अपनी देनदारियां स्थानांतरित कर देंगे. इससे सरकारी कंपनियां मुश्किल में पड़ सकती हैं.

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सरकारी बैंकों का मुनाफा अच्छा खासा होता है. 2005-06 से 2016-17 के बीच उन्हें बजट से जितना मदद मिला है उससे अधिक पैसे कमाकर उन्होंने सरकार को दिए हैं. ऐसे में उनका पुनर्निजीकरण करना विकल्प नहीं है. यह माना जाता है कि एनपीए की समस्या इतनी विकराल इसलिए हो गई है क्योंकि उनका प्रबंधन ठीक से नहीं हो रहा.

यह सोच पिछले एक दशक में इस क्षेत्र में हुए निवेश और विकास को नजरंदाज करने वाली है. अधिक विकास होने की वजह से बैंकों ने उदार होकर कर्जे बांटे और 2007 के आर्थिक संकट की वजह से आर्थिक गतिविधियों में मंदी आई. इससे मुनाफा घटा और डूबने वाले कर्जे बढ़े. खास तौर पर आधारभूत संरचना तैयार करने के क्षेत्र के कर्जों में.

कुछ मामलों में कर्ज देने में बुरे निर्णय की बात भी सही है लेकिन बैंकिंग क्षेत्र की समस्याएं उसकी पैदा की हुई नहीं हैं. सरकार की ओर से निजी बैंकों पर नहीं बल्कि सरकारी बैंकों पर इस बात के लिद दबाव डाला गया कि वे बुनियादी ढांचा विकसित कर रहे निजी कंपनियों को कर्ज दें. निजी बैंक इन्हें कर्ज देने को तैयार नहीं थे. क्योंकि इनमें एक तो पैसे बहुत लग रहे थें और दूसरे इन परियोजनाओं से पैसा वापस आने में काफी अधिक वक्त लगता है.

ऐसे में सरकार के पास दो ही विकल्प हैं. या तो सरकार इन बैंकों में और पैसे निवेश करे. या फिर बुरे कर्जों को उनके खातों से निकालकर उनके बैलेंस शीट को ठीक करने का काम करे. इनमें दूसरा विकल्प तत्काल वाला है. इसमें बोझ सरकार को उठाना पड़ेगा. इससे निजी कंपनियों को कर्ज की शर्तों को बदलवाने में मदद मिलेगी.

लेकिन वित्त मंत्रालय को इस बात का अंदाज होगा कि अगर वह ऐसा करती है तो इस निर्णय की लोगों के बीच काफी आलोचना होगी और सरकार पर आरोप लगेगा कि वह कॉरपोरेट घरानों को फायदा पहुंचा रही है. ऐसे में सरकार और कॉरपोरेट दोनों पक्षों के लिए यह अनुकूल है कि सरकारी बैंकों के कर्जों का बोझ जनता की नजरों से बचाकर सार्वजनिक उपक्रमों पर डाल दिया जाए.

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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