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महाराष्ट्र में मराठा मोर्चा क्यों?

नई दिल्ली | बीबीसी: इन दिनों महाराष्ट्र में लाखों मराठे सड़कों पर उतर रहें हैं. उनका आंदोलन इतना शांतिपूर्ण है कि मीडिया के लिये कोई खबर नहीं बन पा रही है. यह आंदोंलन महाराष्ट्र के छोटे-छोटे गांव व कस्बे में हो रहा है. सोमवार को अकोला में हुये प्रदर्शन में तीन किलोमीटर लंबी क़तार थी. इसकी शुरुआत औरंगाबाद से हुई है तथा अब यह लातूर, अकोला, उस्मानाबाद और जलगांव तक फैल गई है. एक अनुमान के अनुसार महाराष्ट्र में 4 करोड़ के करीब मराठा हैं. जिनमें से अधिकांश किसान है तथा आज किसानी संकट के दौर से गुजर रही है. कहीं, इस मराठा उभार के पीछे किसानी की समस्या तो नहीं है? पढ़िये बीबीसी का विश्लेषण.

बीबीसी हिंदी के संपादक राजेश जोशी ने मुंबई में वरिष्ठ पत्रकार समर खड़स से इस बाबत सवाल किए.

आख़िर इतनी भारी संख्या में देहाती इलाक़ों में क्यों लोग प्रदर्शन कर रहे हैं?

लातूर में सोमवार को लाखों की भीड़ इकट्ठा हुई है. लेकिन ये सिलसिला पिछले क़रीब डेढ़ महीने से जारी है. मराठा समाज के लोग हर ज़िलों में लाखों की तादाद में मोर्चा निकाल रहे हैं. दरअसल कुछ महीने पहले अहमदनगर ज़िले में कोपड़ी गांव में एक मराठा लड़की के साथ अत्याचार हुआ था और आरोप दलित लड़कों पर लगा था. लेकिन इस अत्याचार की वजह से मोर्चे निकल रहे हैं ऐसी एक तस्वीर सामने आ रही है, लेकिन बात वो नहीं है.

इसकी शुरुआत औरंगाबाद से हुई. इसके बाद उस्मानाबाद, फिर जयगांव और इसके बाद काफ़ी जगहों पर ये मोर्चे निकाले गए. दरअसल इन मोर्चों की कई मांगें हैं. पहला कोपड़ी की घटना के दो फ़रार आरोपियों को जल्द पकड़ा जाए और मामले में न्याय हो.

दूसरा कई सालों से हो रही मराठा समुदाय के आरक्षण की मांग पूरी हो.

तीसरा सबसे बड़ा मुद्दा है दलित उत्पीड़न रोकथाम क़ानून में बदलाव की मांग. इस क़ानून की एक धारा के अंतर्गत दलित समुदाय के लोगों को जाति के नाम पर गाली देने या अपमानित करने पर गिरफ़्तारी हो जाती है और मुक़दमा चलाया जा सकता है. मराठा समुदाय के लोगों का आरोप है कि इस क़ानून का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है. ये केंद्र का क़ानून है इसलिए इसमें संशोधन केंद्र सरकार ही कर सकती है.

मराठा समुदाय आमतौर पर ग़रीब नहीं हैं या संपन्न हैं. फिर आरक्षण की मांग को लेकर अचानक लाखों लाख सड़क पर क्यों निकल आए हैं?

इस सवाल के जवाब में समर कहते हैं 1990 के बाद ग्लोबलाइज़ेशन का दौर आया जिसमें खेती के सवाल बहुत उग्र हो कर सामने आए हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ मराठा समुदाय महाराष्ट्र की जनसंख्या का तीस फ़ीसदी हैं यानि क़रीब 4 करोड़ लोग. इनमें से 90 से 95 फ़ीसदी लोग हाशिये पर पड़ा किसान या फिर भूमिहीन किसान है. वे असिंचित भूमि पर खेती करते हैं और उनका दैनिक जीवन बहुत दर्दनाक है और वे भयंकर ग़रीबी से जूझ रहे हैं. ये मोर्चा खेती पर निर्भर लोगों का आंदोलन है.

महाराष्ट्र में जितने किसानों ने ख़ुदकुशी की है उसमें 90 फ़ीसदी मराठा समुदाय से हैं. आत्महत्या के बाद सभी उसे किसानों की आत्महत्या बताते हैं. सत्ता पर मराठा हो या ग़ैर मराठा वे इनके सवालों और समस्याओं की ओर ध्यान नहीं देते. वे शिक्षा से महरूम हैं. चूंकि वे सामान्य वर्ग में शामिल हैं इसलिए उन्हें नौकरी भी नहीं मिलती. नौकरशाही आईएएस, आईपीएस की नौकरियों में भी मराठा समुदाय के लोगों का उपस्थिति नगण्य है. विधिक सेवा हो या कॉरपोर्ट क्षेत्र मराठा समुदाय का प्रतिनिधित्व नगण्य है.

अब चूंकि मराठा समुदाय का ग़ुस्सा फूट रहा है इसका कितना राजनीतिक असर होगा क्योंकि महाराष्ट्र में बीजेपी की सरकार है?

इस सवाल के जवाब में खड़स कहते हैं कि ये बीजेपी के लिए बुरी ख़बर है क्योंकि महाराष्ट्र में बीजेपी का मुख्यमंत्री ब्राह्मण समाज से है, जिनकी आबादी महाराष्ट्र में तीन से साढ़े तीन फ़ीसदी है. साथ ही स्थापित मराठा नेतृत्व वाली एनसीपी, कांग्रेस जैसी पार्टियां भी घबराई हुई हैं, क्योंकि ग़रीब मराठा जाग गया है और बिना किसी नेतृत्व के लाखों की तादाद में सड़कों पर निकल आया है. और शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात प्रशासन तक पहुंचा रहा है और वो भी बिना नेतृत्व के.

यानि इस आंदोलन का नेतृत्व कौन कर रहा है?

इस आंदोलन का कोई चेहरा नहीं है. स्कूल और कॉलेज की 5-10 लड़कियां कलेक्टर को मोर्चे का मांगपत्र देती हैं. इनके पीछे युवतियां, विद्यार्थी, युवक, उनके पीछे सारा समाज और उनके पीछे सारी पार्टियों के नेता रहते हैं, और उनके भी पीछे सफ़ाई ब्रिगेड होता है जो जुलूस में चल रहे लोगों ने अगर सड़कों पर कचरा फैलाया है तो उसे साफ़ करते हुए जाते हैं. इस तरह से चलते हुए ये शहर के सबसे बड़े चौक में जमा होते हैं. जैसे रविवार को नांदेड़ में 7 से 8 लाख लोग जमा हुए, सोमवार को लातूर में जमा हुए. अब 21 तारीख़ को सोलापुर, फिर पूना, उसके बाद सतारा और फिर कोल्हापुर में मोर्चा निकलेगा. ये पूरा दौर 15 अक्टूबर तक चलेगा ऐसा उनका कहना है.

गुजरात में पाटीदारों या पटेलों के आंदोलन या हरियाणा में जाटों का आरक्षण के लिए आंदोलन से महाराष्ट्र के इस आंदोलन की क्या तुलना हो सकती है?

समर खड़स कहते हैं कि पटेलों और जाटों के आंदोलन की तुलना में मराठा समुदाय के लोगों का ये आंदोलन अहिंसक है. इसमें ना तो कोई भाषण होता है, ना घोषणा होती है ना गाली गलौच होता है. एक भी पोस्टर नहीं फाड़ा जाता, ना गाड़ी के शीशे ना तोड़े जाते है.

प्रतिरोध का ये तरीक़ा किसने दिया? क्या किसी नेतृत्व के ये संभव है या एक समाज सुधार आंदोलन बन रहा है.

इस सवाल पर खड़स कहते हैं कि कोई नाम तो सामने नहीं आया है लेकिन अमरीका और यूरोप में कंप्यूटर के क्षेत्र में कार्यरत मराठा समुदाय के कुछ युवा लोग हैं. इन्होंने महाराष्ट्र में बीते समय में आए अकाल में भी लोगों की मदद की थी और चूंकि उन्होंने लोगों से बातचीत की थी इसलिए इन समस्याओं से वे वाकिफ़ थे. उसी से ये आंदोलन निकला. औरंगाबाद में इसकी शुरुआत हुई जो काफ़ी सफ़ल हुआ. फिर उस्मानाबाद. अब तो हाल ये हैं कि एक के बाद दूसरी जगह में इस आंदोलन को सफल बनाने की जैसे लोगों में स्पर्धा है. इस आंदोलन में मराठा समुदाय के साथ दूसरे समुदाय के लोग भी शामिल हुए हैं.

समर कहते हैं कि मूल रूप से ये किसानी से जुड़ी समस्याओं को लेकर लोग एकजुट हुए हैं. कोपड़ी गांव की घटना से लोग आहत हुए और एकमंच पर आए. लेकिन जो असली कारण है वो है आर्थिक संकट. किसानों के सवालों की लगातार अनदेखी हुई है और कृषि संकट गहराता गया है, उसी के विरोध में लोग एकजुट हो रहे हैं.

गांव में प्याज़ एक रूपये किलो के भाव बिक रहा है, सभी सब्ज़ियों के भाव गिरे हैं, गेहूं और चावल इनके दाम नहीं मिल रहे हैं. वहीं शहरों में खाने पीने की चीज़ें तो महंगी हैं ही. साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य भी ऊंचे दाम पर बिक रहे हैं.

आंदोलन की दो मांगें भी बहुत महत्वपूर्ण हैं. वे शिक्षा और स्वास्थ्य का सार्वजनिकरण और सरकारीकरण किया जाए.

ये तो बहुत समाजवादी क़िस्म की मांगें हैं कि शिक्षा और स्वास्थ्य का राष्ट्रीयकरण किया जाए. दूसरा सवाल ये है कि महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और उनकी मातृ संस्था आरएसएस हिन्दु समाज को एकजुट करने की बात करती है. लेकिन ये आंदोलन चाहे मराठा, पटेल या जाट के हो, वे हिन्दू समाज में दरार डालती सी दिखती हैं.

इस सवाल के जवाब में समर खड़स कहते हैं कि आरएसएस और बीजेपी हिन्दू समाज को जोड़ने की बात करती है लेकिन समाज के इन खानों में बंटने की बात भी उन्हें पता है. और उन्होंने मोदी जी की सरकार आने के बाद एक मॉडल विकसित किया है कि जहां भी किसानी से जुड़े समुदाय ताक़तवर हैं वहां सत्ता की बागडोर नहीं सौंपनी है. इसलिए उन्होंने हरियाणा में ग़ैर जाट को मुख्यमंत्री बनाया है. इसलिए गुजरात में ग़ैर पटेल मुख्यमंत्री बनाया है. और इसलिए महाराष्ट्र में भी एक ग़ैर मराठा को मुख्यमंत्री के पद पर बैठाया है. संख्या में बड़े होने के कारण एकजुट होने पर ये किसी भी नेता को ताक़तवर बना सकते हैं. ये सभी इकट्ठा होकर किस ओर जाएंगे ये कारण अभी पता नहीं चल पाया है.

इस पूरे आंदोलन के पीछे कौन लोग हैं और उनकी रणनीति क्या है ये अभी साफ़ नहीं हो पाई है. ये किसका आयोजन है, कौन इसके पीछे है, किससे बात करनी है या इस आंदोलन को असफल कैसे किया जाए ये नहीं समझ में आने के कारण आरएसएस और बीजेपी सिर्फ़ वेंट एंड वॉच की नीति अपनाए हुए है और उनके तरफ से कोई हलचल नहीं हो रही है कि इसका समाधान कैसे ढूंढा जाए. इन जुलूसों के कारण उनपर बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न लग गया है.

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