प्रसंगवश

..और वह शहीद-ए-आजम हो गया

“राख का हर एक कण, मेरी गर्मी से गतिमान है/ मैं एक ऐसा पागल हूं, जो जेल में भी आजाद है.” -भगत सिह. भगत सिंह ने फांसी का फंदा खुद अपने गले में डाला था इसीलिये उन्हें शहीदे-आजम कहा जाता है.

अमृतसर में 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग के निर्मम हत्याकांड ने 12 साल के उस बच्चे को ऐसा क्रांतीकारी बनाया, जिसके बलिदान ने मौत को भी अमर बना दिया.

नौजवानों के दिलों में आजादी का जुनून भरने वाले शहीद-ए-आजम के रूप में विख्यात भगत सिंह का नाम स्वर्ण अक्षरों में इतिहास के पन्नों में अमर है. यह धरती मां का वह बहादुर बेटा था, जिसके नाम से ही अंग्रेजों के पैरों तले जमीन खिसक जाती थी.

भारत के वीर स्वतंत्रता सेनानी भगत सिह का जन्म पंजाब प्रांत में लायपुर जिले के बंगा में 28 सितंबर, 1947 को पिता किशन सिह और माता विद्यावती के घर हुआ था.

12 साल की उम्र में जलियांवाला बाग हत्याकांड के साक्षी रहे भगत सिंह की सोच पर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भारत की आजादी के लिए ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना कर डाली.

वीर सेनानी भगत सिंह ने देश की आजादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है.

आजादी के इस मतवाले ने पहले लाहौर में ‘सांडर्स-वध’ और उसके बाद दिल्ली की सेंट्रल असेम्बली में चंद्रशेखर आजाद व पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ बम-विस्फोट कर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध खुले विद्रोह को बुलंदी दी.

भगत सिह ने इन सभी कार्यो के लिए सावरकर के क्रांतिदल ‘अभिनव भारत’ की भी सहायता ली और इसी दल से बम बनाने के गुर सीखे.

वीर स्वतंत्रता सेनानी ने अपने दो अन्य साथियों-सुखदेव और राजगुरु के साथ मिलकर काकोरी कांड को अंजाम दिया, जिसने अंग्रेजों के दिल में भगत सिह के नाम का खौफ पैदा कर दिया.

भगत सिह को पूंजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसंद नहीं आती थी. 8 अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेम्बली में पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल पेश हुआ. बहरी हुकूमत को अपनी आवाज सुनाने और अंग्रेजों की नीतियों के प्रति विरोध प्रदर्शन के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बम फोड़कर अपनी बात सरकार के सामने रखी.

दोनों चाहते तो भाग सकते थे, लेकिन भारत के निडर पुत्रों ने हंसत-हंसते आत्मसमर्पण कर दिया.

दो साल तक जेल में रहने के बाद 23 मार्च, 1931 को सुखदेव, राजगुरु के साथ 24 साल की उम्र में भगत सिह को लाहौर जेल में फांसी दे दी गई. सरफरोशी की तमन्ना लिए भारत मां के इन सपूतों ने अपने प्राण मातृभूमि पर न्योछावर कर दिए. उनका जज्बा आज भी युवाओं के लिए एक सीख है.

भारत आजाद हुआ, मगर अभी भी यह देश वैसा नहीं बन पाया, जैसा भगत सिह चाहते थे. देश के हजारों युवाओं को क्रांति की प्रेरणा देने वाले भगत सिंह आज जहां भी, जिस रूप में होंगे आजाद देश के युवाओं को उम्मीद भरी नजरों से देख रहे होंगे.

‘शहिदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,

वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा.”

शहीद-ए-आजम को शत शत नमन!

Bhagat Singh documentary

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