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भाजपा की कमजोरी

राजस्थान के किसानों को राज्य की भाजपा सरकार से 20,000 करोड़ रुपये की कर्ज माफी लेने में कामयाबी मिली.पिछले चार महीने में यह चैथा राज्य है जिसने किसानों का कर्ज माफ किया है. अब दूसरे राज्यों में भी ऐसी मांगे उठेंगी. क्या इसका मतलब यह है कि भाजपा जिन बड़े सुधारों का वादा करती थी अब वह उससे पीछे हट रही है?

राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र के किसान 1 सितंबर से कर्ज माफी को लेकर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए. हालांकि, ऐसी कोशिशें जून से चल रही थीं लेकिन नाकाम रहीं. कई दूसरी वजहों के साथ-साथ नोटबंदी से जो नुकसान इन्हें हुआ, उसे ये सामने रख रहे थे.

जैसा की अक्सर होता है, जिला प्रशासन और राज्य सरकार ने इनके साथ बातचीत करने से मना कर दिया और इनकी एकता को तोड़ने की कोशिश की. ये कोशिशें उलटी पड़ीं. माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सहयोगी अखिल भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में चल रहा प्रदर्शन जोर पकड़ता गया. महिलाओं और कारोबारियों की भागीदारी बढ़ती गई. ग्रामीण समाज के हर वर्ग गोलबंद हुए. इस मायने में यह पहले के प्रदर्शनों से अलग रहा.

भाजपा के सुधार के एजेंडे में ग्रामीण भारत शायद ही कभी शामिल रहा है. पार्टी की राजनीतिक गतिविधियां शहरी क्षेत्रों में केंद्रित रहीं और इसमें मूल तौर पर ब्राहम्ण और बनिया समाज के लोग शामिल रहे. 2014 में पहली बार पार्टी को गांवों में समर्थन मिला. पार्टी इसका श्रेय नरेंद्र मोदी की लहर को देती है. लेकिन अब ग्रामीण समर्थन खिसकता दिख रहा है. क्योंकि भाजपा के सुधार एजेंडे में गांवों की चिंता कभी शामिल ही नहीं रही.

उदारीकरण के 27 साल बाद भी कृषि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मूल आधार बनी हुई है. अर्थव्यवस्था में हुए ढांचागत बदलाव का देश के श्रमिकों पर कोई खास असर नहीं हुआ. 60 प्रतिशत अब भी कृषि में लगे हैं जिसका योगदान जीडीपी में 15 फीसदी से अधिक नहीं है. गैर कृषि क्षेत्र में रोजगार सृजन में कमी, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा विकास और सरकारी सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के सिमटते जाने से मजदूर खेती में लगे रहने को बाध्य हैं. कृषि की उपेक्षा का असर पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की उपेक्षा के तौर पर दिख रहा है.

गोवध पर प्रतिबंध और जीएसटी जैसे भाजपा की नीतियां भी किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर डाल रही हैं. नोटबंदी की मार से अब तक ये नहीं उबर आए हैं. इस साल फसल अच्छी होने से अनाजों की कीमतों में भी कमी आई. इसका असर यह हो रहा है किसानों के पास अगली फसल के लिए जरूरी पैसे नहीं हैं. इससे कर्ज माफी की जरूरत का पता चलता है. इससे किसान अगली फसल के लिए कर्ज ले पाएंगे.

मुश्किल घड़ी में किसान जानवरों को बेचकर पैसे की जरूरत को पूरा करते रहे हैं. लेकिन प्रतिबंध की वजह से यह विकल्प भी उनके पास नहीं बचा. जीएसटी की वजह से जिन लोगों में नाराजगी है, उन लोगों ने भी राजस्थान के किसानों का साथ दिया. जीएसटी की वजह से खेती की लागत बढ़ गई है. हालांकि इन मसलों पर भाजपा लोगों के समर्थन का दावा करती है लेकिन जमीनी हालात ऐसे हैं जिनसे स्थिति पलट सकती है.

पंजाब और उत्तर प्रदेश में तो चुनावों से पहले कर्ज काफी का वादा किया गया था. लेकिन पूरे देश में माकपा एकमात्र ऐसी विपक्षी पार्टी है जिसने आंदोलन करके किसानों की कर्ज माफी कराई. उसकी सहयोगी किसान सभा महाराष्ट्र और राजस्थान दोनों जगह किसानों के अभियान की अगुवाई कर रही थी.

अगला अभियान वह हरियाणा में शुरू करने वाली है. चुनौती यह है कि क्या माकपा की ये कोशिशें चुनावों में उसकी खराब हुई स्थिति को ठीक कर सकती हैं. भाजपा के लिए भी यह चुनौती है वह अपने ‘नए भारत’ में गांवों को भी शामिल करे.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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