प्रसंगवश

बाबुओं के गणतंत्र से निर्वासित ‘गण’

रायपुर | अजयभान सिंह: 15 साल के मुक्ति-उन्माद में अनूठा छत्तीसगढ़ अजायबघर हो गया. प्रकट रूप से हुक्मरानों, ‘जगतसेठों’ और विराट नैगमिक स्वरूप वाले चारणों-भाटों की ऐशगाह लेकिन अपने अंतरतम में विषाद का, करोड़ों मनुष्यों की पीड़ाओं का घनीभूत महासमुद्र. यहां कुछ अजीब सा घट रहा है, बहुत काला, इतना कि अंधेरे से भी ज्यादा स्याह. साल दर साल यह कालिमा कुछ और ज्यादा ‘स्पेस’ लील जाती है. यहां के सरकार पोषित तंत्र को लाजिमन गणतंत्र के मुलम्मे का उत्तरीय ओढ़ा दिया गया है.

गणतंत्र के इस पृष्ठीय आवरण पर चांदी के वर्क की तरह सज्जित ‘गण’ लगातार अभेद्य ‘स्टील फ्रेम’ के बाहर हाशिये की तरफ धकेले जा रहे हैं. बोलने, विचारने और असहमत होने की आजादी को खूंटी पर टांगकर सरकारी आवंटन के ‘अतिरेक’ से मुटाया और सुरसा के मुंह की तरह चहुंदिस पसरा तंत्र अट्टहास कर रहा है. भयाकुल ‘जन’ के प्राण टेंटुए में अटके हैं. थोड़े बहुत प्रतिकार का अधैर्य दिखाने वालों का सिस्टम बस्तर-शैली में ‘फार्मेट’ कर उसमें से स्वतंत्रता जैसी स्मृति को ‘इरेज’ किया जा रहा है.

विमर्श के बधियाकरण का बड़ा तेज और निष्ठुर सिलसिला चल रहा है. सिरफिरे माओ के पट्ठे रक्तबीज की तरह चहुंओर गरीब वनवासियों को फितूरी-क्रांति की भेंट चढ़ा रहे हैं. खाकी ‘विनाशाय च दुष्कृताम’ के नाम पर कूट-पीटकर सीधा करने के खुद के नैसर्गिक अधिकार की मुनादी कर रही है. यह और बात है कि खाकीधारियों की आसक्ति ‘विनाशाय च साधुनाम’ में कुछ ज्यादा हुआ करती है.

सिस्टम ज्यों-ज्यों अमन चैन की मुनादी और प्रहसन कर रहा है, त्यों-त्यों दीवार पर भय की इबारत कुछ और साफ दिख रही है. कैसा नृशंश विरोधाभास है; माओ की प्रेत-सेना वर्गशत्रु घोषित कर जिनकी बोटी-बोटी जुदा करने का रक्तिम संकल्प लेती है लगभग उन्हीं अभागों को अतुलित बलशाली राज्य भी ‘राष्ट्रविरोधी’ घोषित कर रहा है.

मीडिया के बडे़-बड़े निगमों के लिए काम करने वाले कस्बाई पत्रकारों के हलक में पुलिसिया डंडा है और गर्दन पर माओ की टंगिया. बचाव का कोई सम्यक रास्ता फिलहाल बूझता नहीं दीखता. बस्तर में तो गैरिक वसना भारत माता की जय का उदघोष भी नहीं बचा सकता.

यह सब तब हो रहा है जब राजकोष रसातल की लम्बी सैर पर है, लेकिन राजन्य वर्ग इस दुश्चिंता से जरा भी विचलित नहीं. हाड़तोड़ मेहनत करके देश का भरण-पोषण करने वाला किसान सब तरफ से निराश-निढाल होकर तिल-तिल मर रहा है. मां की कोख से निकले बच्चे कूड़ेदान में दम तोड़ रहे हैं. सफेदपोशों को भला फिक्र हो भी क्यों, उनके ऐश्वर्य में तो किसी किस्म की कमी आ नहीं रही. कोई चिंता नहीं. ‘कैग’ जैसे चंद पहरुए सवाल उठाते हैं तो उठाते रहें, थककर स्वयं ही प्रलाप बंद कर देंगे.

इसी छत्तीसगढ़ में एक और दुनिया बसती है शहर की अभिजात्य वीथियों में. हरे-भरे इस आभासी स्वर्ग में सुनहरी आभा से जगमग सत्ता के चहेते देवगणों के महल-अट्टालिकाओं में ‘परम-वैभव’ का समूह-गान जीवंत होकर माई-बापों अथवा संवैधानिक ‘चेरियों’ और लोकसेवकों के साथ नंगा नाच रहा है.

मुनाफे और राजकृपा के आकांक्षी नागर-नागरणियां समवेत स्वर में ‘सेवकों’ की प्रशस्ति में मंगलाचरण गा रहे हैं. चेरियों का सुगठित तंत्र आनंदातिरेक में भांडों पर मुक्त हस्त भूमि-भवन, स्वर्ण-मुद्रा और मदिरा लुटा रहा है.

इसी भूभाग के दूसरे छोर पर फैले ‘वारजोन’ में माओ के नरभक्षी शिकारियों और तंत्र की खाकी के बीच पिसकर स्वाहा होने से पहले हिड़मा-सोमारू-मड़कम सदृश नाम वाली मिट्टी की असंख्य अबोध मूरतें दुस्तर, दुर्गम वन प्रांतर में घबरायी हिरणियों की तरह बेसाख्ता जान बचाती भागती फिर रही हैं. एक भयानक दुस्वप्न सरीखी ‘पुरा दैत्य-कथा’ जैसा वर्तमान के परदे पर चल रही है.

विलायती राज के शैशव-काल में वारेन हेस्टिंग्स के शातिर दिमाग की उपज आज के लोकसेवक अब माई-बाप बन चुके हैं. सुनने और बर्दाश्त करने का धैर्य उनमें नहीं रहा. तंत्र की अमरबेल जिसके रक्त से पुष्पित पल्लवित है उस ‘गण’ को तो देखने मात्र से उनकी मैक्याविली-मैकॉले मंत्र-दीक्षा दूषित हो जाती है. साठ के दशक तक बाबुओं की इस जमात में शाही मिजाज भी प्रकट होने लगे थे. इसी दौर में पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों की अवहेलनना करते हुए एक नौकरशाह ने कहा था कि ‘सॉरी सर वी आर सेलेक्टेड, नॉट इलेक्टेड’.

विपक्ष नाम के जनहित-दूतों की दिलचस्पी भी जन का शिकार रोकने के बजाय शिकार में अपना हिस्सा तय करने में अधिक है. इस तरह ‘इलेक्टेड’ और ‘सिलेक्टेड’ के साझा तंत्र से ‘रिजेक्टेड’ का गठजोड़ होता है और ‘जन’ घुन के कीड़ों की अनंत और कालजयी सेना के बीच मुट्ठी भर अनाज की तरह खोखला होता जाता है.

प्रदेश में मोटे तौर पर राजनीति की दो ही धाराएं हैं और दोनों के बुनियादी चरित्र, काम-काज और आम आदमी को लेकर उनके नजरिए को लेकर किसी किस्म का भेद नहीं माना जा सकता. जिनके सिर पर ताज बंधा है वह भी तंत्र की लय और धुन पर नाचते हैं और जिन्हें छिद्रान्वेषण का जिम्मा दिया गया है वह भी तंत्र की चकाचैंध से पतंगे की तरह आसक्त हैं. सियासी बौनों ऐनकेन प्रकारेण चीड़-देवदार-नारियल की तरह बड़े उंचे मुकाम के अधिष्ठाता बने बैठे हैं.

रनिवासों के इशारे पर फल और छाया देने लायक आम-बरगदों को दांवपेंचों की कपट-कर्तनी से काट-छांट कर सुनियोजित ढंग से ‘आउटकास्ट’ या बहिष्कृत किया जा रहा है. पक्ष-विपक्ष के बीच दुरभिसंधियों का मकड़जाल बुनकर उनकी नैतिकता और ईमान को असाध्य क्षय से संक्रमित करने का सूत्रधार और फेसिलिटेटर भी यही तंत्र है. डॉ राममनोहर लोहिया ने विदेशी शासकों के इन संकटमोचकों और भारतीय गणतंत्र के बीच के भयंकर अंतर्विरोध को बहुत पहले ही भांप लिया था. पंडित नेहरू से उनके बड़े मतभेदों में एक नौकरशाही को लेकर भी था.

नेहरू इस ‘इस्पाती फ्रेम’ को ज्यों का त्यों स्वीकार करने के हामी थे जबकि लोहिया इसके बुनियादी ढांचे का स्वदेशीकरण चाहते थे. एडवर्ड ल्यूस अपनी रचना ‘राइज आॉफ माडर्न इंडिया’ में नौकरों की शाही-वृत्ति की ओर इशारा करते हुए कहते लिखते हैं ‘निर्धन के लिए राज्य मित्र भी है और शत्रु भी’. छत्तीसगढि़यों के जेहन में यह सच एक ग्रंथि की तरह पैबस्त और ल्यूस के कथन से कहीं अधिक समीचीन है. (प्रस्तुत विचार लेखक के निजी हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!