प्रसंगवश

छत्तीसगढ़ में बदलेगी कांग्रेस?

दिवाकर मुक्तिबोध
इन दिनों छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस में पुनर्गठन का दौरा शुरू है. प्रदेश से लेकर जिले और ब्लॉक स्तर की तमाम इकाइयां भंग कर दी गई तथा नए पदाधिकारियों के चयन के लिए विचार-विमर्श का सिलसिला चला हुआ है ताकि कमेटियों के लिए योग्य पदाधिकारियों का चयन किया जा सके. इस पूरी प्रक्रिया में काफी वक्त लगना तय है.

ब्लॉक, जिला एवं प्रदेश की नई कमेटियों की शक्ल कैसी होगी, चेहरे सामने आने के बाद ही पता चल सकेगा. लेकिन विधानसभा चुनाव में पराजय के बाद नए सिरे से कमेटियों के गठन की कवायद बेहतर है बशर्ते गुटीय संतुलन को कायम रखते हुए ऐसे चेहरे तलाशें जाएं जिनके लिए पार्टी सर्वोपरि है, व्यक्ति नहीं. ऐसा हो पाएगा, इसमें संशय है क्योंकि नए राज्य के रूप छत्तीसगढ़ के गठन के बाद से ही पार्टी बेइंतिहा गुटीय द्वंद्व की शिकार है और यही द्वंद्व विभिन्न चुनावों में पार्टी की पराजय के रूप में सामने आता रहा है.

दिसम्बर 2013 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की पराजय किसी सदमे से कम नहीं थी. हार इस मायने में आश्चर्यजनक रही कि उसे सत्ता में लौटने का पूरा भरोसा था लेकिन उम्मीदवारों का चयन, भीतरघात, निष्क्रियता एवं रणनीतिक भूलों की वजह से पार्टी सन 2008 के चुनाव की तुलना में केवल एक सीट का इजाफा कर सकी. जैसा कि अमूमन होता है, चुनाव के नतीजे के बाद तथाकथित आत्म-मंथन का लंबा दौर चला और संकल्प लिया गया कि अप्रैल-मई 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी राज्य में जबरदस्त वापसी करेगी. किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ तथा पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी एवं चरणदास महंत जैसे दिग्गज चुनाव हार गए और स्थिति जस की तस रही यानी पार्टी को लोकसभा की 11 सीटों में से केवल 1 सीट नसीब हुई.

सन 2009 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को सिर्फ एक सीट पर विजय मिली थी. चूंकि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पूरे देश में दुर्गति हुई और कुछ राज्यों में तो उसका खाता भी नहीं खुला इसलिए छत्तीसगढ़ को लेकर संगठन में हाय-तौबा नहीं मची क्योंकि आखिरकार पार्टी राज्य में एक सीट जीतकर अपना चेहरा बचाने में कामयाब हुई थी. अब राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस अपने संगठनात्मक ढांचे में व्यापक फेरबदल के पक्ष में है और इसी प्रक्रिया के तहत छत्तीसगढ़ में भी ऊर्जावान, कर्मठ और जुझारू चेहरे तलाशे जा रहे हैं.

लेकिन सवाल है कि क्या कांग्रेस पिछली घटनाओं से सबक लेने तैयार है? क्या नेताओं के आपसी मतभेद जो एक दूसरे को नुकसान पहुंचाने किसी भी सीमा तक जाने तैयार रहते हैं, दूर हो सकेंगे? क्या दिखावे की एकता से पीछा छूटेगा और सही मायनों में एकजुटता दिखेगी? क्या गुटीय नेता अपने-अपने अहम् को त्याग कर पार्टी को सर्वोपरि समझेंगे? क्या अपने व्यावसायिक हितों के लिए भाजपा सरकार के मंत्रियों से सांठ-गांठ बंद होगी? क्या जनता के मुद्दे केवल औपचारिक रूप से उठकर जाएंगे और सरकार को बख्श दिया जाएगा? और क्या कांग्रेस सचमुच अपने आप को बदलने के लिए तैयार है और पुन: जड़ों से जुड़ना चाहती है? इन सवालों के प्रति यदि पार्टी गंभीर है और इच्छा पूर्वक प्रयत्न करती है तो बदलाव की तनिक उम्मीद की जा सकती है.

दरअसल कांग्रेस को सबसे पहले जरूरत है जनता से जुड़ाव की. पार्टी की जड़ें टूटी नहीं हैं, सिर्फ दाना-पानी के अभाव में सूख गई हैं. इसे फिर से हरा-भरा किया जा सकता है बशर्ते आम लोगों से जुड़कर, उनकी तकलीफों को समझकर, उनकी मदद के लिए आगे बढ़कर उन्हें राहत दिलाने की ईमानदार पहल की जाए.

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की सफलता पर राहुल गांधी ने कहा था-कांग्रेसियों को आप से सीखने की जरूरत है. लेकिन क्या पार्टी इकाई के किसी भी स्तर पर ऐसा हुआ? छत्तीसगढ़ में पार्टी की दुर्दशा इसलिए है क्योंकि वह आम आदमी से कट गई है. नेता अहंकार में डूबे हुए हैं तथा पार्टी की उन्हें परवाह नहीं है. विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव में कुछ सीटों पर पार्टी की पराजय बहुत कम वोटों से हुई.

ये सीटें जीती जा सकती थीं बशर्ते पार्टी में एकजुटता रहती तथा तमाम स्वार्थों को त्यागकर केवल पार्टी के लिए काम किया जाता. महासमुंद लोकसभा सीट इसका सर्वोत्तम उदाहरण है, जहां पार्टी के प्रत्याशी अजीत जोगी मात्र 1553 वोटों से पराजित हुए. लोकसभा चुनावों में जहां लाखों की संख्या में वोट पड़ते हो, कुछ सौ वोट मायने नहीं रखते अलबत्ता हार-जीत का फैसला जरूरत करते हैं. यह सोचने वाली बात है कि इस हार के पीछे वास्तविक कारण क्या है?

जाहिर है यदि रागद्वेष एवं गुटीय प्रतिद्वंदिता को त्याग कर पार्टी के लिए काम किया जाता तो नतीजे कुछ और होते. इस संदर्भ में यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि चुनावों में कांग्रेस संगठन पीछे रहता है और प्रत्याशी आगे यानी चुनाव संगठन नहीं लड़ता प्रत्याशी लड़ते हैं और अपने-अपने हिसाब से लड़ते हैं. चुनावों में पार्टी के कमजोर प्रदर्शन का यह एक बड़ा कारण है.

यह कितनी विचित्र बात है कि एक तरफ प्रदेश पार्टी के अध्यक्ष भूपेश बघेल संभागीय आयोजन के जरिए कार्यकर्ताओं की राय जानना चाहते हैं और इस सिलसिले में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी से भी मुलाकात करते हैं, वहीं दूसरी तरफ अजीत जोगी प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की वकालत करते हैं. कांग्रेस की राजनीति में अजीत जोगी एक बड़ी शख्सियत है और वे तथा उनका गुट संगठन पर हावी है.

यह बात भी छिपी नहीं है कि अजीत जोगी को भूपेश बघेल का नेतृत्व मन से मंजूर नहीं है, इसीलिए विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद उन्होंने प्रदेश में नेतृत्व परिर्वतन का राग छेड़ा हुआ है. ऐसे समय जब हाईकमान के निर्देश पर नये सिरे से कमेटियों के पुनर्गठन की प्रक्रिया चल रही हो और जिसके नेतृत्व में चल रही हो, उसे ही हटाने की मांग क्या समयानुकूल है? इससे स्पष्ट है कि शीर्ष नेता एकाधिकारवाद की भावना से मुक्त नहीं है और पार्टी में अपने दबदबे को हर सूरत में बनाए रखना चाहते हैं. ऐसी स्थिति में क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि पार्टी नई ऊर्जा के साथ खड़ी हो पाएगी?

बहरहाल यह तो तय है कि पार्टी में गुटीय असंतुलन एक बड़ी समस्या है. इसे बर्दाश्त करते हुए संगठन को काम करना होगा. संगठन यद्यपि जनता से जुड़े सवालों को उठा रहा है लेकिन क्या उसका जनता से वास्तविक जुड़ाव है और क्या वह मुददों को सही ढंग से उठा पा रहा है? अभी हाल ही में पार्टी ने तीन-चार बड़े आंदोलन किए. महंगाई के विरोध में, रेल भाड़े में वृद्धि के खिलाफ, धान के समर्थन मूल्य में वृद्धि को लेकर और बिजली दरों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी पर उसने प्रदेशव्यापी धरना प्रदर्शन एवं सभाएं की.

ये आंदोलन अपनी जगह तो ठीक है पर इससे आखिरकार प्रदेश की जनता को क्या फायदा हुआ? आंदोलनों का क्या असर हुआ? क्या महंगाई कम हुई? क्या रेल भाड़े में वृद्धि वापस ली गई? क्या धान के समर्थन मूल्य में पार्टी की मांग के अनुरूप पर्याप्त इजाफा हुआ? क्या बिजली की दरें घट गई? जब ऐसा कुछ नहीं हुआ तो क्या ये आंदोलन केवल प्रतीकात्मक थे? अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए थे? और क्या आम जनता इन आंदोलन से संतुष्ट हो गई?

दरअसल एक दशक की बात करें तो कांग्रेस का कोई भी जनआंदोलन परिणाममूलक नहीं रहा. सतत् आंदोलनों के जरिए सरकार पर जो दबाव बनाना चाहिए था, कभी नहीं बना. विधानसभा के भीतर भी मुद्दे प्रभावकारी ढंग से नहीं उठाए गए और कभी सरकार को असहज स्थिति में लाकर खड़ा नहीं किया गया. यानी विधानसभा के भीतर एवं बाहर केवल औपचारिकताएं पूरी की गईं. विपक्ष की ऐसी करुणाजनक स्थिति हर सरकार के लिए मुफीद होती है. फिर बहुतेरे कांग्रेसियों पर यह आरोप तो लगता ही रहा है कि वे सरकार से मिली हुए हैं और थोड़ा बहुत जो विरोध दर्ज किया जाता है वह दरअसल नूराकुश्ती है.

प्रदेश कांग्रेस को यदि वास्तव में अपनी जड़ों की ओर लौटना है तो उसे जमीनी कार्यकर्ताओं में विश्वास पैदा करना होगा. कार्यकर्ता ही पार्टी की ताकत है जो दुर्भाग्य से लंबे समय से उपेक्षित हैं. गांवों से लेकर शहरों तक ये कार्यकर्ता ही अपने कामकाज से लोगों में पार्टी के प्रति विश्वास का भाव पैदा करेंगे. समस्याएं छोटी हो या बड़ी उन्हें हल करना होगा चाहे आंदोलन के जरिए या नौकरशाही पर दबाव के जरिए. सरकारी योजनाओं की प्रभावी ढंग से निगरानी एवं जनसमस्याओं का हल ही पार्टी की मजबूती की गारंटी है. पुनर्गठन के बाद क्या ब्लॉक, जिला एवं प्रदेश स्तर पर कमान संभालने वाले नए पुराने चेहरे यह काम कर पाएंगे? क्या पार्टी का आत्मविश्वास लौटेगा या फिर थोड़े बहुत बदलाव के बाद वही ढर्रा कायम रहेगा जो अब तक चला आ रहा है?

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