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इससे कैसे निपटेगी रमन सरकार

अरुण कांत शुक्ला
छत्तीसगढ़ देश के उन छह राज्यों में से है, जहाँ इसी वर्ष अक्टूबर में विधान सभा चुनाव होने हैं. अमूमन, चुनावी वर्ष में राज्य सरकारें राज्य सेवा से जुड़े प्रत्येक कर्मचारी समूह को संतुष्ट रखने का प्रयास करती हैं. पर, रमन सरकार ने जिस तरह पहले शिक्षाकर्मियों के आंदोलन को दबाया, फिर लिपिक वर्गीय कर्मचारियों के आंदोलन को तोड़ा और फिर आंगनवाड़ी कर्मियों के साथ आकड़ों की बाजीगरी दिखाकर एक भ्रामक वातावरण बनाने की कोशिश की है, उसने इन लाखों कर्मचारियों के असंतोष को और भड़काया है.

इन लाखों शिक्षाकर्मियों, लिपिकों और आंगनवाड़ी कर्मियों का आक्रोश केवल इस बात को लेकर नहीं है कि उनकी जायज मांगों में से किसी भी मांग को माना नहीं गया या उनके आंदोलन के प्रति राज्य सरकार का रुख अवेहलानाकारी रहा या उनके आंदोलन को बल प्रयोग करके दबाने की कोशिश की गई बल्कि उनके आकोश की सबसे बड़ी वजह उनके साथ राज्य सरकार के द्वारा की गयी धोखाधड़ी है.

यूँ तो, रमन सरकार की दोनों पारियों में, चाहे वे राज्य सरकार की सेवाओं से जुड़े हुए किसी भी तबके के कर्मचारियों के आंदोलन हों या असंगठित क्षेत्र के कामगारों के आंदोलन, सभी को राज्य सरकार की अवेहलना और कट्टर रवैय्ये का शिकार होना पड़ा. पर, पौने दो लाख शिक्षाकर्मियों, 35 हजार से अधिक लिपिकों और 94 हजार आंगनवाड़ी कर्मियों के साथ की गए धोखाधड़ी एकदम चुनाव पूर्व संध्या पर की गयी धोखाधड़ी है, जिसका असर अक्टूबर में होने वाले चुनावों पर पड़े बिना नहीं रहेगा.

शिक्षाकर्मियों के संयुक्त मंच ने जब 3 दिसंबर से शुरू हुए आंदोलन को 38 दिनों बाद बिना नतीजे और बिना शर्त वापस लिया तो शिक्षाकर्मियों में से क्या पुरुष और क्या महिलाएं बिलख-बिलख कर रो पड़े थे. शिक्षाकर्मियों को संविलियन देकर पूर्ण शिक्षक का दर्जा दिया जाएगा, ये भाजपा का 2004 तथा 2008 के चुनावों के समय चुनाव घोषणा-पत्र में किया गया वायदा था.

शिक्षाकर्मियों में असंतोष की दूसरी बड़ी वजह यह है कि जब नवंबर 2011 में जब वो संविलियन और छठवें वेतनमान के अनुसार वेतन प्रदान करने की मांग पर आंदोलन पर थे तो स्वयं मुख्यमंत्री ने उन्हें सम्मानजनक वेतनमान देने का वायदा कर, उनका आंदोलन समाप्त कराया था. पर, मार्च 2012 में, राज्य सरकार ने शिक्षाकर्मियों के पदनाम बदलने के नाटक के साथ वर्ग 3, 2,1 के लिए क्रमशः जिस 16, 18 तथा 27 प्रतिशत की वृद्धि की घोषणा की और उसका ढिंढोरा पीटा, वो पौने दो लाख शिक्षाकर्मियों के साथ की गयी धोखाधड़ी के अलावा और कुछ नहीं था.

इसमें नए वेतनमानों का लाभ स्नातक शिक्षाकर्मियों को 7 वर्ष और गैर स्नातकों को 10 वर्ष के सेवाकाल के बाद मिलना था. यानी पौने दो लाख शिक्षाकर्मियों में से केवल 13000 को ही तुरंत नए वेतनमान का लाभ मिल रहा था. राज्य सरकार भले ही इसे अपनी चतुराई माने किन्तु शिक्षाकर्मियों के साथ किये गए इस बरताव को राज्य के आम लोगों में से शायद ही किसी ने पसंद किया हो. राज्य सरकार आंदोलन को कुचलने के बाद आज भले ही बर्खास्त और निलंबित शिक्षाकर्मियों को बहाल करने की सह्रदयता दिखाए, पर प्रत्येक शिक्षाकर्मी के दिल में वो टीस तो बनी रहेगी, जो आंदोलन को वापस लेते समय मंच से उठी थी कि राज्य सरकार तुम्हें चुनावों में देख लेंगे.

प्रदेश के 35 हजार से अधिक लिपिकों के आंदोलन को भी राज्य सरकार ने डंडों और दमन के साथ डील किया. डी.एन.तिवारी की रिपोर्ट के अनुसार वेतनमान दिए जाने की मांग को लेकर किया जा रहा आंदोलन 34 दिनों बाद अचानक 500 और 250 रुपये के टेक्निकल भत्ता दिए जाने की शर्त के साथ नेताओं ने वापस लिया तो समूचे लिपिक वर्ग ने अपने को ठगा महसूस किया.

राज्य सरकार ने साम, दाम, दंड, भेद का इस्तेमाल करके लिपिकों की हड़ताल भले ही तुडवा दी हो, पर, ये 35 हजार कर्मी इस बात को कभी नहीं भूलेंगे कि नवंबर 2011 में स्वयं मुख्यमंत्री ने डी.एन. तिवारी की सिफारिशों को लागू करने का वायदा किया था. इनके लिए ये 500 और 250 किसी धोखे से कम नहीं हैं.

रमन सरकार की आकड़ों की बाजीगरी और झूठ को प्रचारित करने की महारथ को गोयबल्स भी देख लेता तो शरमा जाता. प्रदेश के 94000 आंगनवाडी कार्यकर्ता व सहायिकाएं पिछले दो वर्षों से अपना मानदेय बढ़ाकर 5000 रुपये प्रतिमाह करने के लिए धरना-प्रदर्शन इत्यादि करते रहे हैं. विडम्बना यह है कि अत्यंत अल्प मानदेय पर काम करने वाले ये आंगनवाडी कार्यकर्ता और सहायिका एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में किये जा रहे कामों में प्रथम पंक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

इनके उपर स्वास्थ्य, बच्चों की देखभाल और पोषण, गर्भवती स्त्रियों और नव-प्रसूताओं की देखभाल जैसी महती जिम्मेदारियां होती हैं. इन्हें दिए जाने वाले मानदेय में केन्द्र और राज्य, दोनों सरकारों की भागीदारी होती है.

केन्द्र सरकार ने 2011 में कार्यकर्ता का मानदेय 1500 से बढ़ाकर 3000 तथा सहायिका का 750 से बढ़ाकर 1500 रुपये किया था. राज्य शासन से इन्हें क्रमशः 500 तथा 250 रुपये ही मिलता रहा. जबकि, देश के अनेक राज्यों में आंगनवाड़ी कामगारों को केन्द्रीय मानदेय के अलावा राज्य सरकारों से उल्लेखनीय राशी मानदेय के रूप में दी जाती है.

आंगनवाड़ी कामगारों के मानदेय में केन्द्र के हिस्से के अलावा बिहार सरकार 2500, महाराष्ट्र, झारखंड व हरियाणा सरकारें 3000, गुजरात सरकार 3800, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश सरकारें 3500 तथा पंजाब एवं तमिलनाडु की सरकारें 4000 रुपये देती हैं. पुंडुचेरी में तो इन्हें शासकीय कर्मचारियों के समान वेतन दिया जाता है. राज्य शासन ने अपने इसी 500 तथा 250 रुपये के हिस्से को बढ़ाकर 1000 तथा 500 रुपये करने की घोषणा गणतंत्र दिवस पर ऐसे की मानो आंगनवाडी कामगारों का समूचा मानदेय ही दोगुना हो गया हो. जबकि, वास्तविकता यह है कि अन्य राज्यों की तुलना में राज्य सरकार अभी भी आधे से भी कम दे रही है. निःसंदेह, आंगनवाड़ी कामगारों में असंतोष है और वे फिर प्रदर्शन करने वाले हैं.

राज्य में राजनीतिक समीकरण क्या हैं? कोरबा, जांजगीर-चांपा, रायगढ़, बस्तर, दुर्ग, में हजारों एकड़ जमीनें, जिसका काफी हिस्सा सिंचित और दो फसली हो, किसानों से जबरिया और धोखा देकर अधिग्रहित करने के फलस्वरूप, ग्रामीण इलाके में पनप चुका असंतोष क्या रंग दिखायेगा? या, बस्तर में, जहां से भाजपा को 12 में से 11 विधानसभा क्षेत्रों में जीत मिली थी, अर्धसैनिक बलों और पुलिस के द्वारा आदिवासियों पर किये गए अत्याचार और यौन शोषण के नित नए खुलते मामले, भाजपा सरकार को कितना नुकसान पहुँचायेंगे, इस पर अभी विचार न भी करें, तब भी, एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि जिस 1.73 फीसदी वोटों की बढ़त लेकर भाजपा 13 सीटों पर आगे हुई है, वह बढ़त वोटों में मात्र 17.30 लाख बैठती है. जबकि शिक्षाकर्मी, लिपिकों और आंगनवाडी कार्यकर्ताओं की संख्या ही 3.25 लाख से अधिक है. फिर, कोटवार हैं, पटवारी हैं, असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं, जो 9 साल में भाजपा की कथनी और करनी के अंतर से आजीज आ चुके हैं. जाहिर है, यह देखना दिलचस्प होगा कि इस असंतोष से निपटने के लिये रमन सिंह की सरकार कौन-सी जुगत भिड़ाती है.

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