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सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई और कोलगेट

प्रकाश चन्द्र पारख | अुनवादः दिनेश कुमार मालीः जैसे ही कोल ब्लॉक आवंटन पर सीएजी की कोलगेट रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो देश में मानो भूचाल-सा आ गया. इतना बड़ा घोटाला? लोगों की कल्पना से भी परे था. लोग टेलीविजन की चैनलों पर यह खबर सुनकर दाँतों तले अंगुली दबाने लगे. सही में, सबसे बड़ा घोटाला-कोलगेट ? 1.86 लाख करोड़ रुपये का घोटाला. जनहित याचिकाएँ दर्ज की गई. सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को जाँच-पड़ताल करने के निर्देश दिए.

सन 1993 में जब कोल माइंस नेशनलाइजेशन एक्ट में प्राइवेट सेक्टर को कैप्टिव माइनिंग के लिए कोल-ब्लॉकों को देने के लिए संशोधन किया गया था तब से लेकर आज तक 1993 से 2003 तक किए गए आवंटन तत्कालीन कांग्रेस सरकार की नीतियों जिनका बाद में एनडीए सरकार ने भी अनुकरण किया, के अनुसार किया गया था.

मेरे हिसाब से सन् 1993 से सन् 2003 के मध्य आवंटित कोल ब्लॉकों की जाँच करने की कोई जरूरत नहीँ थी. क्योंकि सीएजी ने इस अवधि के आवंटनों पर न तो कोई विपरीत प्रतिक्रिया दर्शाई थी और न ही किसी प्रकार की कोई शिकायत की थी. ऐसे भी दो दशक से ज्यादा का समय बीत चुका था. उस समय लिए गए निर्णय की वर्तमान समय के सापेक्ष में न तो सार्थक जाँच की जा सकती थी और न ही उन केसों में किसी को भी उत्तरदायी ठहराया जा सकता था. इतने पीछे तक जाँच करने जाने का मतलब केवल सीबीआई के सीमित संसाधनों का अर्थात् सीमित मानव-शक्ति और अन्य विशेषज्ञों का समय, ऊर्जा और शक्ति गँवाना था, जिनका प्रयोग संदिग्ध कारणों और संदिग्ध व्यक्तियों की खोज करने में अच्छी तरह लगाया जा सकता था.

सीबीआई के पास सत्य खोज निकालने की दक्षता नहीँ है, इसे केवल लोगों को फंसाने और छुड़ाने की महारत हासिल है. दुर्भाग्य से, कोलगेट जाँच में भी ऐसा ही हो रहा था. भले ही सारी जाँच को सुप्रीम कोर्ट मोनिटर क्यों नहीँ कर रही थी. वैसे भी सीबीआई में लगभग सारे पुलिस अधिकारी भरे हुए है, मुझे नहीँ लगता उन्हें नीति–निर्माण और उसके कार्यान्वयन का अच्छा ज्ञान है. अगर ज्ञान है भी तो थोड़ा-बहुत या फिर नहीँ के बराबर. जाँच की समूची बागडोर इंस्पेक्टर स्तरीय अधिकारियों के हाथों में थी, जिन्हें सरकार के निर्णय लेने की प्रक्रिया की कोई जानकारी नहीं होती हैं.

जब सीबीआई ने मुझे तहक़ीक़ात के लिए दिल्ली बुलाया, तो मैंने सोचा कि केस के आर्थिक, राजनैतिक प्रभाव और महत्त्व को देखते हुए सीबीआई के निदेशक या उनसे एक या दो रैंक नीचे वाले अधिकारी मुझसे पूछताछ करेंगे. मगर ऐसा नहीँ था. जाँच करने वाला अधिकारी केवल एक पुलिस इंस्पेक्टर था, जिसे यह तक मालूम नहीँ था कि ‘कोल ब्लॉक’ और ‘कोल माइन’ में अंतर क्या होता है.

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मैंने सीबीआई की जाँच में दो दिन बिताये और जाँच अधिकारी को विस्तारपूर्वक स्क्रीनिंग समिति की कार्य पद्धति, भारत सरकार के बिजनेस रुल्स के अंतर्गत सचिव और मंत्री के निर्णय की भूमिका और उत्तरदायित्वों की सीमा के बारे में बताया. बातचीत करते-करते तलाबीरा-2 ब्लॉक की बात भी उठी. मैंने इस ब्लॉक को हिंडाल्को को देने के औचित्य के बारे में बताया.

सीबीआई का मन्तव्य यह था कि हिंडालको को इस ब्लॉक में शामिल करने से उसे फायदा हुआ मैंने समझाया, “इसमें कोई दो राय नहीँ है कि इस ब्लॉक को मिलने से हिंडाल्को को फायदा हुआ है. लेकिन यह फायदा वैसा ही है, जैसा उस समय सरकार की नीति के अनुसार दूसरी सैकड़ों कंपनियों को हुआ. इसी कारण मैंने खुली बोली से आवंटन करने का प्रस्ताव रखा था.”

जांच अधिकारी मेरी बात से सहमत नहीँ हुआ और उसने कहा कि लगता है प्रधानमंत्री कार्यालय के दबाव में हिंडाल्को को इस ब्लॉक में शामिल किया गया है.

मैंने उत्तर दिया, “नहीँ, इस केस में प्रधानमंत्री कार्यालय का कोई दबाव नहीँ था. यह केस पूरी तरह से मेरिट के आधार पर तय किया गया है. यह मेरी सिफ़ारिश थी और मैं इसका पूरा उत्तरदायित्व लेता हूँ.”

मैंने सोचा कि सीबीआई मेरे इस निर्णय के तर्क को अच्छी तरह समझ गई होगी. मगर आश्चर्य हुआ जब सीबीआई ने मेरे खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की और मेरी सेवा-निवृत्ति के आठ साल बाद एक दर्जन सीबीआई के अधिकारियों की टीम ने मेरे फ्लैट की छान-बीन करने के लिए मेरा दरवाजा खटखटाया. मैं नहीँ समझ पा रहा था कि वे क्या उम्मीद लेकर आए हैं मेरे घर में. मेरे हिसाब से कोलगेट घोटाले की जाँच के बारे में सीबीआई का दृष्टिकोण पूर्णतया गलत था.

सीएजी की कोलगेट रिपोर्ट ने देश में हलचल मचाई थी और मचना भी चाहिए था. रिपोर्ट का मुख्य रेखांकन था खुली बोली जैसी पारदर्शी प्रणाली को लागू करने में हुए विलम्ब की वजह से कोलगेट जैसा घोटाला घटित हुआ. मैंने तो कोयला मंत्रालय ज्वाइन करते ही इस प्रणाली को लागू करने पर जोर दिया और सेवा-निवृत्ति पर्यन्त इस पारदर्शिता के पीछे मैं लगा रहा. सीबीआई ने इस असामान्य विलम्ब के कारणों को जानने की कोई कोशिश नहीँ की.

सीबीआई को यह जानना चाहिए था क्या यह विलम्ब जान-बूझकर हुआ और इस विलम्ब के क्या कारण थे? अगर जान-बूझकर देरी हुई है तो उसके लिए कौन उत्तरदायी थे? क्या उन्हें मनमाने ढंग से निर्णय लेने में कुछ फायदा हुआ ? सीबीआई इन सवालों की जाँच नहीं कर रही थी. उसका निशाना गलत जगह पर था. जब सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटकर अपराधियों को बचाने के लिए अध्यादेश तीन महीने की लघु अवधि में ला सकती है. तब क्या सरकार कोल माइन्स नेशनलाइनेशन एक्ट में छोटा-सा संशोधन कर कोल ब्लॉक आवंटन में पारदर्शिता और समरूप तरीके को ईजाद नहीँ कर सकती थी? यह सीबीआई की जांच मूल बिन्दु था. किन्तु सीबीआई यह नहीँ कर रही थी. इसके बदले, केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार, विभिन्न मंत्रालयों और प्राइवेट कंपनियों के हजारों डाक्यूमेंट्स की जाँच करने की निरर्थक मेहनत कर रही थी, जहाँ उसे कुछ मिलना नहीँ था.

मुझे कोलगेट में जो प्राथमिकियाएँ दर्ज हैं, उनके बारे में कोई जानकारी नहीँ है. किन्तु मैं बेहिचक यह कह सकता हूँ कि हिंडाल्को के मामले में या तो अपनी जांच करने में सीबीआई पूरी तरह से अक्षम है या फिर जान-बूझकर कोई गहरा खेल खेल रही थी, जिसकी मुझे कोई कोई जानकारी नहीँ.

इससे ज्यादा और क्या अनर्गल हो सकता है कि सीबीआई ने अपनी अंगुली ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की तरफ उठाई, सिर्फ इस वजह से कि उन्होंने हिंडाल्को के पक्ष में अपनी सिफारिश की थी. क्या कोई मुख्यमंत्री अपने राज्य के विकास के लिए उन परियोजनाओं की सिफ़ारिश नहीँ कर सकता है, जिससे उसके राज्य में रोजगार और राजस्व पैदा होता हो? अगर वह ऐसा नहीँ करता है तो फिर मुख्यमंत्री किसलिए है?

इस तरह की जांच से तो जनता के लाखों-करोडों रुपये जाँच में फूँकने के बाद कोलगेट का नतीजा भी टाँय-टाँय-फिस्स हो जायेगा, ठीक वैसे ही, जैसे बोफोर्स घोटाले में हुआ. आखिरकार ऐसा क्यों? पारदर्शी प्रणाली को लागू करने में विलम्ब करने वाले वास्तविक अपराधी और अपारदर्शी प्रणाली से जिन्हें फायदा मिला है, शायद निरापद घोषित हो जाएँ.

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