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कोल घोटाला: सीएजी सही और पीएम गलत क्यों?

प्रकाश चन्द्र पारख | अुनवादः दिनेश कुमार मालीः महालेखा परीक्षक यानी सीएजी श्री विनोद राय ने कोल घोटाला को जनता के सामने लाकर एक अत्यंत ही सराहनीय कार्य किया. विभिन्न मंत्रियों की दलीलें और प्रधानमंत्री का संसद में दिया गया वक्तव्य भी पूरी तरह से असंतोषजनक नजर आता है. श्री पी. चिंदबरम और श्री सलमान खुर्शीद ने सीएजी की आलोचना में जो भी तर्क दिये हैं; सही कहें तो इतने असंगत है कि उन पर तो टिप्पणी भी नहीं की जा सकती. इस अध्याय में मैं संसद में प्रधानमंत्री द्वारा दिये गय वक्तव्य का विश्लेषण करना चाहूँगा.

1. स्क्रीनिंग कमेटी के बारे में
महालेखा परीक्षक ने लिखा कि स्क्रीनिंग कमेटी अपनी सिफारशें करते समय कोई निष्पक्ष एवं पारदर्शी तरीके का अनुसरण नहीं कर रही थी. प्रधानमंत्री ने कहा कि बहुत सारे घटकों के आकलन के बाद स्क्रीनिंग कमेटी कोल-ब्लॉकों के आवंटन की सिफ़ारिश करती थी. इसके अलावा, आवंटन संबंधित फैसला कमेटी के सभी सदस्यों का सामूहिक फैसला होता था, इसलिए यह कहना सही नहीं है कि स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा आवंटन प्रणाली में पारदर्शिता एवं निष्पक्षता का अभाव था.

प्रधानमंत्री का यह तर्क आवंटन नीति में परिवर्तन लाने वाली प्रणाली की जड़ पर करारा प्रहार था. यदि स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा किया जा रहा आवंटन सही था तो फिर उन्होंने खुली बोली वाली प्रणाली का अनुमोदन क्यों किया? कुछ तो कमियाँ थी, स्क्रीनिंग कमेटी की आवंटन प्रक्रिया में? जब तक कोल ब्लॉकों के आवेदन कम थे, तब तक तो स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा आवंटन प्रक्रिया को कुछ हद तक पारदर्शी एवं निष्पक्ष माना जा सकता है, मगर जैसे-जैसे आवेदनों की संख्या बढ़ती गई, वैसे-वैसे स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा निष्पक्ष व पारदर्शी निर्णय लेना कठिन होता चला गया.

सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार रामपिया और डीपसाइड रामपिया के लिए 105 आवेदन मिले थे. अब आप ही सोचिए इतने सारे आवेदकों को निष्पक्षतापूर्वक पारदर्शी तरीके से कैसे आवंटित किया जा सकता है? मुझे तो इकाई अंकों में आवंटन करना मुश्किल लग रहा था, तो सैकड़ों आवेदन में निष्पक्ष और पारदर्शी निर्णय कैसे संभव है?

2. ऑडिट की भूमिका
प्रधानमंत्री ने कहा कि लोकतंत्र में सरकार के किसी नीति में बदलाव के कार्यान्वयन हुई देरी पर ऑडिट का नकारात्मक टिप्पणी करना सही नहीं है. नीति बनाना सरकार का काम है, सीएजी का नहीं.

सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में कहीँ सरकार की नीति के बारे में टिप्पणी नहीं की. सीएजी ने केवल इतना ही कहा कि एक ऐसी नीति जो सरकार ने खुद आठ साल पहले बनाई थी, उसके सही समय पर क्रियान्वयन नहीं होने के कारण प्राइवेट पार्टियों को 1.86 लाख करोड़ रुपए का फायदा हुआ. इस फायदे का कोई तो आधार रहा होगा? आखिरकार यह फायदा राजकोष (एक्सचेकर) की कीमत पर ही तो था. अगर राजकोष की यह हानि सीएजी नहीं बताती तो इस संसदीय लोकतंत्र में और कौन बताता?

3. नीति कार्यान्वयन में असामान्य विलंब
सीएजी के अनुसार प्रचलित प्रशासनिक अनुदेशों में सुधार कर प्रतिस्पर्धात्मक बोली सन् 2006 से शुरू की जा सकती थी. प्रधानमंत्री का कहना था कि सीएजी का यह कथन सही नहीं है क्योंकि अधिकांश कोयला और लिग्नाइट बीयरिंग राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़िशा और राजस्थान में विपक्ष की सरकारें थी. ये सारे राज्य नई प्रणाली का घोर विरोध कर रहे थे, इसलिए यह मुद्दा पूरी तरह से विवादास्पद था.

प्रधानमंत्री का उपरोक्त बयान पूरी तरह से सत्य नहीं है, अगर राजनैतिक मंशा होती तो यह प्रणाली 2006 की जगह 2004 से लागू की जा सकती थी. प्रधानमंत्री ने राज्यों में विपक्ष की सरकारों के एकमत नहीं होने पर कटाक्ष अवश्य किया, मगर उन्होंने यह कही भी नहीं कहा कि श्री राव और श्री सोरेन इस नीति को लागू करवाने में लगातार अवरोधक का काम कर रहे थे. जानबूझकर षड्यंत्र कर रहे थे.

सारे कानूनों को मद्देनजर रखते हुए और कानून विभाग की सलाह नई नीति को प्रारम्भ करने के लिए एक बिल सन् 2004 में तैयार किया जा चुका था. पॉलिसी में प्रस्तावित बदलाव में जान-बूझकर देरी की जा रही थी.

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4. अनुचित लाभ (अनड्यू गेन) का आकलन
प्रधानमंत्री ने सीएजी के आकलन में तकनीकी स्तर पर कई खामियाँ निकाली. जैसे-
1. खनन योग्य औसत रिजर्व पर आधारित आकलन सही नहीं है.

2. कोल इंडिया में प्रत्येक खदान की उत्पादन कीमत अलग-अलग है. इसका मुख्य कारण उनकी जियो-माइनिंग अवस्था, उत्खनन विधि, सरफेस फीचर, सरंचनात्मक मूलभूत सुविधाएँ और इर्द-गिर्द सेटलमेंटों की संख्या इत्यादि. कोल-इण्डिया अच्छी मूलभूत सरंचनात्मक सुविधा वाली जगह पर काम करती है, जबकि कैप्टिव माइनिंग के लिए आवंटित कोल-ब्लॉक अत्यंत ही कठिन भौगोलिक अवस्थाओं वाली जगह पर दिए गए थे.

5. निजी खदानों के लाभांश का कुछ हिस्सा टैक्स द्वारा और कुछ एम.एम.आर.डी. बिल ( जो संसद में विचारधीन है और जिसमें लाभांश का 25% हिसा स्थानीय क्षेत्रों के विकास में उपयोग करने का प्रावधान है) के द्वारा सरकार के पास आएगा. इसके अलावा, प्राइवेट कंपनियों को दिए गए कोल-ब्लॉक केवल उनके अपने प्रयोग के लिए हैं. इसलिए कोल इण्डिया के मूल्यों के आधार पर आवंटित ब्लॉकों की कीमत का आंकलन करना अनुचित है.

निस्संदेह अलग-अलग खदानों से कोयला निकालने में खर्च अलग-अलग होता है और इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि कोयले का विक्रय मूल्य इसकी गुणवत्ता के आधार पर होता है. पर इसलिए औसत वास्तविकता का प्रतिनिधित्त्व करता है, यह भी सही नहीं है. यह भी सही नहीं है कि कोल इण्डिया की खदानों की गुणवत्ता अच्छी है पर उसकी उत्पादकता कम और ओवरहेड ज्यादा है. यह तर्क कि कैप्टिव माइंस के लाभांश का कुछ हिस्सा टैक्स के माध्यम से सरकार के पास वापस आ जाता है, इसलिए सीएजी के आकलन को गलत कहना पूरी तरह असंगत लगता है.

प्राइवेट कंपनियों को आवंटित कोल ब्लॉक केवल उनके कैप्टिव प्रयोग में कम आते है, इस वजह से उनका वित्तीय लाभ घट नहीं जाता है. जब तक कि उनके आउटपुट की कीमतों पर किसी प्रकार का नियन्त्रण न हो, अतिरिक्त वित्तीय लाभ तो होगा ही. सीएजी ने अपने आकलन के लिए कोल इंडिया की औसत उत्पादन कीमत एवं औसत विक्रय मूल्य लिया है. आकलन, आकलन ही होता है, यथार्थ तो नहीं हो सकता. पर सीएजी के पास इससे अच्छे आकलन का और कोई अच्छा तरीका नहीं था.

दूरदर्शन पर किए गए एक साक्षात्कार एवं दिनांक 28.10.12 टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के एक लेख में तत्कालीन कानून मंत्री श्री सलमान खुर्शीद ने लिखा कि सीएजी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि 1.86 करोड़ रुपयों में से सरकार को कितना मिलता? सीएजी को यह भी तो बताना चाहिए था. सीएजी कोई त्रिकालदर्शी तो है नहीं कि ये बता सकते कि आक्शन में सरकार को क्या मिलता?

न्यूज एक्स टीवी चैनल पर सरकार के बचाव में साक्षात्कार देते हुए कोयला मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल ने कहा कि कोल ब्लाकों के आवंटन में किसी प्रकार का ऊपरी दबाव नहीं था. जब उनके मंत्री होते एक भी कोल ब्लॉक आवंटित नहीं किया गया था, तो उन्हें कैसे पता कि आवंटन के समय ऊपरी दबाव आया था जब अरबों-खरबों की संपति मुफ्त में दी जा रही हो तो ऊपरी दबाव नहीं होना असंभव है.

दबाव कई तरह के होते हैं. सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाला काम, बिजनेस में भागीदारी, घूस, ब्लैकमेल या डराने-धमकाने आदि के रूप में. दोस्तों और परिजनों से भी दबाव आता है. मैंने लगभग ये सारे दबाव देखे हैं. कुछ लोग दबाव सहन कर पाते हैं, तो कुछ ढह जाते हैं.

यहाँ यह कहना आवशयक है कि उन पर भले ही कितने हो दबाव आए हो प्रधानमंत्री ने न तो मुझ पर कभी कोई दबाव डाला या न ही किसी व्यक्ति विशेष के पक्ष में सिफारिश की. हिंडालको के केस में भी जिसमें सीबीआई ने एक प्राथमिकी दर्ज की है. पीएमओ ने सिर्फ मेरिट के आधार पर पुन: जाँच करने के निर्देश दिए.

कोलगेट पर श्री विनोद रॉय की रिपोर्ट को कई लोगों ने ‘ओवरएक्टिविज्म’ की संज्ञा दी है. मेरी दृष्टि से श्री राय ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर अपना संवैधानिक उत्तरदायित्व निभाया है.

यह दुर्भाग्य की बात है कि हालांकि प्रधानमंत्री खुली बोली प्रणाली को लागू करने में करना छह रहे थे, मगर वह अपनी पार्टी और अपनी सरकार में निहित स्वार्थी लोगों के विरोध के कारण ऐसा कर नहीं पाए. अगर सरकार सही समय पर सही निर्णय ले लेती तो न यह कोलगेट घोटाला होता, न ही सीबीआई जाँच और उसके बाद होने वाली मुकदमेबाजी, जो सालों चलेगी और जिसमें करोड़ों रुपए की बरबादी होगी.

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