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शिबू सोरेन : पर्सनल एजेंडा वाले मंत्री

प्रकाश चन्द्र पारख | अुनवादः दिनेश कुमार मालीः जब शिबू सोरेन ने कोयला मंत्रालय का भार संभाला तो भारत सरकार के प्रचलित चलन के अनुसार उन्होंने राज्यमंत्री श्री दसारी नारायण राव को कोई विशेष काम नहीँ दिया, इस वजह से श्री राव बहुत नाखुश थे. यह बात उन्होंने मुझे भी बताई. मैंने उन्हें सलाह दी कि वे या तो प्रधानमंत्री या फिर कांग्रेस अध्यक्ष से इस बारे में बातचीत करे.

श्री सोरेन की राजनैतिक कर्मस्थली झारखंड रही है. इसलिए उन्हें कोल इंडिया में फैले भ्रष्टाचार की अच्छी तरह जानकारी थी. किन्तु श्री सोरेन इतने चतुर नहीँ थे कि कोयला मंत्री के सामर्थ्य का पूरा पूरा लाभ उठा सकते.

उनके ऑफिसर ऑन स्पेशियल डयूटी (ओएसडी) श्री दीक्षित को भी सरकारी कामकाज का कोई अनुभव नहीँ था. इसलिए उन्हें मंत्रालय के सामर्थ्य का उपयोग अपने व्यक्तिगत लाभ के कोयला सचिव और कोल इंडिया के अध्यक्ष के सहयोग की आवश्यकता थी. किन्तु दुर्भाग्यवश दोनों ही उनका इस विषय में सहयोग करने के अनिच्छुक थे. शुरू-शुरू में सीआईएल के मुखिया श्री शशि कुमार को उन्होंने दबाने का प्रयास किया. मगर वह बिलकुल दबे नहीँ. तब उन्होंने हर छोटे-मोटे कामों में उनकी मीन-मेख निकालना शुरू किया.

यहाँ तक कि एक प्रेस संबोधन करने के सिलसिले में अपनी गंभीर आपत्ति प्रकट करते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘आपने मेरी आज्ञा के बिना कोयले की कीमत के रिविजन पर प्रेस को संबोधित कैसे किया?’’

क्या उत्तर देते श्री कुमार? प्रेस संबोधन को अपनी आज्ञा का उल्लंघन मानकर वह श्री कुमार को निलंबित करना चाहते थे. मैंने उन्हें समझाया, ‘‘सीआईएल चेयरमैन को प्रेस का संबोधित करने के लिए आपकी अनुमति की आवश्यकता नहीँ है. यह वजह उनके निलंबन का कारण नहीँ बन सकती है.”

मगर कुछ दिनों के बाद मंत्रालय के कार्य-वितरण आदेश में संशोधन किया गया. सारी फाइलें राज्यमंत्री श्रीराव से होकर कैबिनेट मंत्री को भेजी जाएँ. मुझे नहीं पता कि सोरेनजी के अचानक हृदय परिवर्तन का क्या कारण था. मगर श्री राव ने कोयला मंत्रालय में पारदर्शिता लाने के मेरे हर प्रयास को निष्फल करने में श्री सोरेन का भरपूर सहयोग दिया.

सीआईएल की अनुषंगी कंपनियों के डायरेक्टरों का स्थानांतरण
सीआईएल की अनुषंगी कंपनियों में पैसा बनाने का विभव हर जगह बराबर नहीँ है. लुकरेटिव पोस्टिंग पाने के लिए कई डायरेक्टर मुँह माँगे पैसे देने के लिए तैयार रहते हैं. कोयला मंत्रियों को और क्या चाहिए? इससे अच्छा-खासा व्यवसाय क्या हो सकता है. इस गोरखधंधे पर अंकुश लगाने के लिए एनडीए सरकार के समय मंत्रियों द्वारा डायरेक्टरों के स्थानांतरण करने पर रोक लगा दी थी. ऐसे सारे प्रस्तावों की स्वीकृति एसीसी द्वारा जरूरी कर दी गई.

श्री सोरेन ने डायरेक्टरों का इंटर कंपनी ट्रान्सफर करने के लिए मुझे मौखिक आदेश दिये. गंभीरतापूर्वक मैंने उनसे कहा,”मंत्री महोदय! डायरेक्टरों का चयन 5 साल के लिए होता है. इस बीह उनका स्थानांतरण न तो कंपनी के हित में है और न ही उन अधिकारियों के, जब तक कि कोई विशेष कारण नहीँ हो.”

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मेरी यह सलाह श्री सोरेन को पसंद नहीँ आई. जब मैंने कोयला मंत्री के मौखिक आदेश नहीँ माने तो श्री सोरेन सीएमपीडीआईएल के एक डायरेक्टर का बीसीसीएल में स्थानांतरण करने के लिए एक नोट भेजा. मैंने उन्हें समझाया कि यह उनके अधिकार क्षेत्र में नहीँ है इसलिए इस प्रस्ताव अंतिम निर्णय के लिए एसीसी को भेजना होगा.मेरा आप से अनुरोध है कि आप एक बार अनौपचारिक रूप से प्रधानमंत्री से बातचीत कर लें. क्योंकि कैबिनेट मंत्री के प्रस्ताव को अगर एसीसी रिजेक्ट कर देगा तो आपके लिए यह एक शर्मिंदगी की बात होगी.”

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शिबू सोरेन पर्सनल एजेंडा वाले मंत्री

मगर श्री सोरेन ने मेरी बात नहीँ मानी.प्रस्ताव एसीसी को भेज दिया गया. जैसा मैंने कहा था- हुआ भी वैसा ही. श्री सोरेन के इस्तीफा देने के बाद एसीसी ने उस प्रस्ताव को रिजेक्ट कर दिया.

मेरे स्थानांतरण करने का प्रयत्न
कोयला मंत्रियों को मैं पूरी तरह से असहयोगी लग रहा था. वे दोनों मिलकर मुझे मंत्रालय से बाहर का रास्ता दिखलाना चाहते थे. सांसदों को मेरे और श्री कुमार के खिलाफ झूठी शिकायतें करने के लिए उकसा रहे थे. धनबाद के सांसद चंद्रशेखर दूबे मेरे ऊपर स्विस बैंक में काला धन रखने का आरोप लगा चुके थे. एक बार वह दो कंपनियों को कोल-ब्लॉक दिलवाने के लिये मेरे ऑफिस आये, तो मैंने उनसे पूछा, “दूबे जी! आपने मेरे खिलाफ प्रधानमंत्री को झूठी शिकायत क्यों की?”

उन्होंने बिना किसी झिझक के कहा, “यह शिकायत मैंने तैयार नहीँ की थी. यह राज्यमंत्री के ऑफिस में बनाई गई थी और मुझे उस पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया था. बीसीसीएल में आउटसोर्सिंग और हाउसिंग के मसले को लेकर मैं आपसे नाराज था, इसलिए उस शिकायत पर मैंने अपने हस्ताक्षर कर दिए.”

जहाँ दूसरे सांसद अपना काम निकलवाने के लिए अनुरोध करते थे, वही दूबे किसी बॉस की तरह आदेश देते थे. उन्होंने अपने दो नामित लोगों को कोल-ब्लॉक आवंटित करने के लिए मुझे कहा. मैंने उन्हें समझाया कि सरकार की प्रचलित गाइड-लाइनों के अनुरूप उन्हें कोल ब्लॉक आवंटित नहीँ किए जा सकते.दूबे जी नाराज हो गए और क्रोध भरे स्वर में कहने लगे, “क्या मुझे पता नहीँ है, इससे पहले आवंटन कैसे हुए थे? अगर तुमने मेरी बात नहीँ मानी तो तुम्हारा मंत्रालय रहना मुश्किल हो जाएगा.”

मैंने उत्तर दिया, “आपकी जो इच्छा हो, कीजिए.” दोनों कोयला मंत्री मुझसे नाखुश थे. कोल-ब्लॉक आवंटन की प्रक्रिया, ई-ऑक्शन से कोल मार्केटिंग, सीआईएल चेयरमैन की नियुक्ति और दीर्घ अवधि से लंबित लिंकेज मामले ऐसे कई मुद्दे थे जिन पर मेरे और श्री सोरेन और श्री राव के विचार एकदम विपरीत थे.

दूसरी बार कोयलामंत्री बनने के बाद श्री सोरेन ने मुझे आमने-सामने “फेस टू फेस” बातचीत करने के लिये बुलाया. हमारी बातचीत का सारांश इस प्रकार है :-

सोरेन- सेक्रेटरी साहब, अगर हम दोनों के बीच एकदम तालमेल नहीँ हुआ तो कोयला मंत्रालय कैसे चलेगा? बाहर लोग यह सोचते है आप मंत्रालय चला रहे हैं, मैं नहीँ.
मैं- सर, भारत सरकार के बिजनेस रुल्स के अनुसार सेक्रेटरी और मंत्री का काम बँटा हुआ है. मेरा दायित्व आपको सभी विषयों पर जनहित में सलाह देना है और मंत्री होने के नाते आपका यह अधिकार है आप मेरी सलाह मानें या न मानें. मैं आपके लिखित आदेश को पूरी तरह से मानूँगा और उसका पूरी तरह से क्रियान्वयन करूँगा, भले ही, वह आदेश मेरी सलाह के विपरीत क्यों न हो.
सोरेन- आपकी शह के कारण सीआईएल चेयरमैन मेरे आदेशों को नहीँ मानता है.
मैं:- मंत्री होने के नाते आपको सीआईएल के दैनिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. सीआईएल बोर्ड कंपनी के रोज़मर्रा प्रबंधन के लिए उत्तरदायी है, न कि सरकार.सरकार को सीआईएल प्रबंधन को नीतिगत मसलों पर निर्देश देने का अधिकार है और सीआईएल बोर्ड और चेयरमैन सरकार के लिखित आदेशों को मानने के लिए बाध्य है.
सोरेन:- सारे आदेश तो लिखित में नहीं दिए जा सकते हैं.
मैं:- सरकारी अधिकारी या सीआईएल के अधिकारी यदि सोचते है कि वे मौखिक आदेश जनहित में नहीं हैं तो वे ऐसे मौखिक आदेशों को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं.
सोरेन:- अगर ऐसा ही रवैया रहेगा तो आपके साथ काम करना बहुत मुश्किल हैं.
मैं- सर, मैंने तो सारे जीवन ऐसे ही काम किया है और मैं अब अपना काम करने की पद्धति तो नहीँ बदल सकता. मगर मैं आपको इस बात का विश्वास दिलाता हूँ कि आपको कभी भी गलत सलाह नहीँ दूँगा. आपके लिखित आदेशों का पूर्णतया पालन करूँगा.

जाहिर है, इस वार्तालाप से श्री सोरेन खुश नहीं थे. श्री सोरेन ने मेरे खिलाफ प्रधानमंत्री को एक लबा पत्र लिखा और मेरे मंत्रालय से स्थानांतरण की मांग की. मेरे ऊपर उन्होंने बिजनेस रुल्स के अनुपालन में विफल होने तथा अवज्ञा करने के लिये अनुशासनात्मक करवाई करने की भी गुजारिश की. उन्होंने अपनी चाणक्य बुद्धि का भी इस्तेमाल किया, प्रधानमंत्री को यह सूचित करते हुए कि मैं एनडीए सरकार मैं चंद्रबाबू नायडु का आदमी हूँ और यूपीए सरकार में दरार डालने का काम कर रहा हूँ. इतने से ही वह संतुष्ट नहीँ हुए और यह भी लिखा कि वह एक आदिवासी नेता हैं, इसलिए मैं उनके प्रति भेदभाव पूर्ण व्यवहार करता हूँ. उनके पत्र पर सरकार ने मेरी टिप्पणी माँगी.

मैंने 22 मार्च 2005 को कैबिनेट सेक्रेटरी को एक पत्र लिखा जो इस प्रकार से था- “इस बात में कोई संशय नहीँ है कि प्रशासन ओर नीतिगत मुद्दों पर मेरा कैबिनेट मंत्री और राज्यमंत्री से वैचारिक मतभेद रहा है. मेरी समझ में सिविल सर्विस का सदस्य होने के नाते जिस तरीके से मुझे अपनी ड्यूटी निभानी चाहिए, मैंने निभाई है. सरकार का सचिव होने के नाते मुझे इस बात का एहसास है कि मैं अपने मंत्रियों के समर्थन के बिना मेरे उत्तरदायित्वों का निर्वहन ढंग से नहीँ कर पाऊँगा.किन्तु मुझे नहीं पता कि इस समस्या का क्या समाधान हैं.”

2 मार्च 2005 को सिविल सर्विस ग्रुप की एक वेबसाइट www.whisperinthecorridor.com पर एक टिप्पणी आई-
क्या कोयला सचिव अपने पैरेंट कैडर को भेजे जाएँगे? ब्यूरोक्रेसी सर्कल में इस बात की चर्चा होने लगी है कि कोयला सचिव प्रकाश चंद्र पारख को अपने पैरेंट कैडर आंध्रप्रदेश भेजा जा रहा है. सन 1969 बैच के आंध्रप्रदेश के आईएएस श्री पारख एक ईमानदार और सत्यनिष्ठ अधिकारी माने जाते हैं.

1 मार्च 2005 को श्री सोरेन ने झारखंड का मुख्यमंत्री बनने के लिए अपने पद से इस्तीफा दिया. मैं अपने पैरेंट कैडर में नहीँ भेजा गया. अगर श्री सोरेन कोयेला मंत्री बने रहते तो प्रधानमंत्री के पास मुझे वहाँ से हटाने के सिवाय और कोई विकल्प नहीँ रहता. उनके लिए अपनी यू॰पी॰ए सरकार के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए सोरेन के झारखंड मुक्ति मोर्चा के पाँच सदस्य बहुत मायने रखते थे. हमारे देश की साझा राजनीति में प्रधानमंत्री के पास बहुत ही सीमित विकल्प होते हैं क्योंकि सरकार का अस्तित्व बहुत-सी छोटी-छोटी पार्टियों पर निर्भर करता है.

कोयला मंत्री के पत्र और कैबिनेट सेक्रेटरी को लिखे गए मेरे जवाब से हमारे लोकतन्त्र में सिविल सर्विस की भूमिका पर मौलिक सवाल उठते हैं. लोकतंत्र ‘चेक’ और ‘बैलेन्स’ के सिद्धान्त पर चलता है. इसलिए हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने सोचा होगा कि हमारे देश में संवैधानिक दायित्वों के भली प्रकार से निर्वहन हेतु एक स्थायी और निष्पक्ष सिविल सर्विस का प्रावधान रखा, ताकि राजनेता अपनी मनमानी न करें.

लोकतंत्र में राजनेताओं की मुख्यता पर तो सवाल ही नहीँ उठता है. किन्तु राजनेताओं के द्वारा अपनी शक्तियों के मनमाने ढंग से प्रयोग न हो इसमें सिविल सर्विस की प्रमुख भूमिका होती है.

यह बात सभी को समझनी होगी और इसकी इज्जत भी करनी होगी. मगर इसके लिए हमें करना क्या होगा? कुछ ऐसे संस्थागत ठोस कदम उठाने होंगे,जिनके माध्यम से राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की पृथक–पृथक भूमिका के बारे में किसी को भी संदेह न हो और वे एक दूसरे को सम्मान की निगाहों से देखें.

मेरे ऊपर विश्वास करने के लिए मैं प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ. श्री सोरेन, श्रीराव और कोयलांचल के सांसदों का उनके ऊपर इतना दबाव होने के बावजूद भी उन्होंने मुझे अपना पूर्ण समर्थन दिया.

इस बात का मुझे अवश्य दुःख है कि मैं प्रतिस्पर्धात्मक बोली वाली प्रणाली कोल ब्लॉक आवंटन के लिए लागू न कर सका, मगर कोयला मंत्रियों के घोर विरोध के बावजूद भी मैं कोयला बिक्री के लिए इंटरनेट पर आधारित ई-मार्केटिंग की मजबूत नीँव डालने में अवश्य कामयाब हुआ. मुझे संतोष है कि जब मैंने कोयला मंत्रालय छोड़ा,तब सीआईएल की प्रत्येक अनुषंगी कंपनी लाभ दर्ज कर रही थी. यहाँ तक कि बीसीसीएल जैसी लगातार हानि में रहने वाली कंपनी ने भी पहली बार ऑपरेटिंग प्रॉफिट दर्ज किया.

जब मैंने दिसम्बर 2005 में अपना कार्यभार छोड़ा, हमारे देश के सारे पॉवर प्लांटो में कोयले का पर्याप्त स्टॉक था. एक भी पॉवर प्लांट ऐसा नहीँ बचा था, जिसमे स्टॉक की पोजीशन क्रिटिकल हो. मैंने ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन किया, जिसने मुझे सारी विषम परिस्थतियों में भी स्थितप्रज्ञ रहने की प्रेरणा दी और मेरे सारे कार्यों को सत्यनिष्ठा के साथ पूरा करने के लिए अटूट दृढ़ संकल्प की शक्ति प्रदान की.

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