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क्या वे साथ आ पाएंगे?

वैकल्पिक दृष्टि के लिए विपक्ष को व्यक्तिवाद से ऊपर उठना पड़ेगा.यह संभव है कि भारतीय जनता पार्टी का विरोध करने वाले सभी दल राष्ट्रपति पद के लिए साझा उम्मीदवार उतारने के लिए सहमत हो जाएं. राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का कार्यकाल खत्म हो रहा है और नए राष्ट्रपति को चुनने की प्रक्रिया 25 जुलाई तक पूरी होनी है. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले बिहार की तरह महागठबंधन बनने की संभावनाएं काफी कम हैं. यह माना जाता है कि भाजपा विरोधी सभी मतदाता एक साथ आ जाएं तो भाजपा को हराया जा सकता है. लेकिन राजनीति अंकगणित से कहीं ज्यादा मुश्किल चीज है. विपक्षी दलों में कई अंतर्विरोध हैं. साथ ही क्षेत्रीय हितों का समायोजन भी उनके लिए मुश्किल है. ये बातें ऐसी हैं जिससे नरेंद्र मोदी राहत की सांस ले सकते हैं.

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने कहा है कि अगर सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के हाथों में समाजवादी पार्टी की कमान रहती है तो उन्हें सपा के साथ आने में कोई दिक्कत नहीं होगी. लेकिन सपा की कमान अखिलेश के हाथों में ही रहेगी, इसे लेकर अभी संशय है. अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव और उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव दोनों उन पर हमले बोल रहे हैं. यह एक सच्चाई है कि 1993 में बसपा के समर्थन से पहली बार उत्तर प्रदेश की सत्ता में आने के बाद सपा आज अपनी सबसे कमजोर स्थिति में है. यह भी देखने वाली बात होगी कि क्या मायावती 2 जून, 1995 की उस घटना को भूला पाएंगी जब उन पर मुलायम और शिवपाल के करीबी माने जाने वाले गुंडों ने हमला कर दिया था.

इसी तरह से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी समेत सभी वाम दलों से निजी खुन्नस है. 1991 में उन पर माकपा के कुछ लोगों ने हमला कर दिया था जिसमें उनके सर पर चोट आई थी. ममता के लिए भी उस घटना को भूला पाना मुश्किल है. पश्चिम बंगाल और केंद्र में माकपा और तृणमूल कांग्रेस दोनों की मुख्य विपक्षी भाजपा ही है. अगर कोई गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बन भी जाता है तो यह देखना होगा कि क्या 2019 के लोकसभा चुनावों में तृणमूल और माकपा एक-दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारेंगे.

अन्नाद्रमुक की बुरी हालत को देखते हुए तमिलनाडु में भाजपा पैठ जमाने की कोशिश कर रही है. अन्नाद्रमुक और उसकी धुर विरोधी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के बीच गठजोड़ असंभव सरीखी है. ओडिशा में भाजपा बीजू जनता दल को कड़ी टक्कर देने की कोशिश में है. वहां नवीन पटनायक बतौर मुख्यमंत्री अपने चैथे कार्यकाल में हैं और माना जा रहा है कि वे कांग्रेस का साथ नहीं लेंगे. क्योंकि इससे ओडिशा में भाजपा के पक्ष में मतों की गोलबंदी होने की संभावना है. केरल में भी कांग्रेस और वाम दलों का साथ आना बेहद मुश्किल काम है.
economic and political weekly1967, 1977 और 1989 में राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत कांग्रेस विरोधी गठबंधन खड़ा हो पाया था. 1967 में राम मनोहर लोहिया और मधु लिमये जैसे समाजवादी नेताओं की अगुवापई में वाम और दक्षिण दोनों कांग्रेस को शिकस्त देने के लिए एक साथ आए थे. 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाने के बाद कांग्रेस विरोधी ताकतें 1977 में उन्हें हराने के लिए एक साथ आईं. 1989 में राजीव गांधी को हराने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह ने थोड़े समय के लिए वाम और दक्षिण को एक साथ लाने में कामयाबी हासिल की.

लेकिन उस वक्त और अभी की परिस्थितियों में अंतर है. इतिहास हमें यह बताता हैकि व्यक्तिवाद पर जोर देकर खड़ी हुई राजनीति से फायदा होने की बात तो दूर उलटे नुकसान होता है. उदाहरण के तौर पर 2004 के चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी जैसा सर्वस्वीकार्य चेहरा सामने होने के बावजूद कांग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को जीत हासिल हुई थी. क्योंकि लोगों को ‘भारत उदय’ अभियान पर यकीन नहीं हुआ.

कांग्रेस मुक्त भारत का नरेंद्र मोदी का सपना अभी पूरी तरह से पूरा नहीं हुआ. 2018 में अगर कांग्रेस कर्नाटक में हार भी जाती है तो वह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनी स्थिति सुधार सकती है. भारत की सबसे पुरानी पार्टी बुरी स्थिति में है. ऐसे में अगले आम चुनाव के पहले भाजपा विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन तैयार करना कांग्रेस के लिए ज्यादा जरूरी है. लेकिन पार्टी अब भी कहीं खोई हुई सी लग रही है. यह भी सोचा जाना चाहिए कि क्या अब भी कोई संभावना ऐसी है कि कोई गैर-भाजपा और गैर कांग्रेसी मोर्चा बन पाए? इस बारे में जवाबों से अधिक सवाल हैं.

इस बात की संभावना काफी कम है कि बिहार जैसा महागठबंधन दूसरे देशों में भी बन सकता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सांप्रदायिकता विरोधी पार्टियों को हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाना चाहिए और मोदी की आंधी को रोकने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. पहली बार भारत में ऐसा हुआ है एक विचारधारा की आंतरिक साम्यता वाली पार्टी लोकसभा में पूर्ण बहुमत में है. भाजपा का मुकाबला प्रभावी ढंग से करने के लिए यह जरूरी है कि विपक्षी दल देश के सामने एक वैकल्पिक दृष्टि पेश करें और अलग तरह की नीतियों और योजनाओं की बात करें.

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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