ताज़ा खबर

डेंगू मच्छरों पर बेअसर हैं कीटनाशक

गोवा | इंडिया साइंस वायर : डेंगू से निपटने के लिए न तो प्रभावी दवाएं हैं और न ही अभी इसे नियंत्रित करने के लिए टीकाकरण उपलब्ध है. डेंगू का नियंत्रण संक्रमण फैलाने वाले मच्छरों की रोकथाम पर निर्भर करता है. इसके लिए मच्छरों को मारने वाले कई तरह के सिंथेटिक कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है. भारतीय वैज्ञानिकों के एक ताजा अध्ययन में पता चला है कि इन कीटनाशकों के प्रति मच्छरों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने के कारण अब वे बेअसर साबित हो रहे हैं.

दार्जिलिंग स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ नार्थ बंगाल के प्राणी विज्ञान विभाग के वैज्ञानिक पश्चिम बंगाल के डेंगू प्रभावित क्षेत्रों में कीटनाशकों के प्रति मच्छरों की प्रतिरोधक क्षमता का अध्ययन करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं. डेंगू मच्छर मुख्य रूप से डीडीटी, मैलाथिओन परमेथ्रिन और प्रोपोक्सर नामक कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी पाए गए हैं.

अधिकांश डेंगू मच्छरों में टेमेफोस, डेल्टामेथ्रिन और लैम्ब्डासाइहेलोथ्रिन दवाओं के प्रति प्रतिरोधी लक्षण भी देखे गए हैं. शोधकर्ताओं के अनुसार, विभिन्न प्रकार के कीटनाशकों के खिलाफ मच्छरों में प्रतिरोधी तंत्र विकसित होने कारण इन कीटनाशकों का कोई खास असर मच्छरों पर नहीं पड़ता है.

वैज्ञानिकों ने मच्छरों में प्रतिरोध पैदा करने वाली जैव-रासायनिक प्रक्रियाओं का पता लगाया है. उनका कहना है कि मच्छरों में मौजूद एंजाइम कार्बोक्सीलेस्टेरेसेस, ग्लूटाथिओन एस-ट्रांसफेरेसेस और साइटोक्रोम पी450 या संयुक्त रूप से काम करने वाले ऑक्सीडेसेस के माध्यम से चयापचय से उत्पन्न डिटॉक्सीफिकेशन द्वारा प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हुई है.

इस शोध के दौरान पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार, कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, दार्जिलिंग और उत्तरी दीनाजपुर समेत पांच जिलों से मच्छरों के लार्वा, प्यूपा और वयस्कों को मानसून से पहले, मानसून के समय और मानसून के बाद की अवधि में एकत्रित किया गया. इन मच्छरों पर डेल्टामेथ्रिन, लैम्बडेसीहेलोथ्रिन, मैलेथिओन, प्रोपोक्सर, परमेथ्रिन और डीडीटी के प्रभाव का अध्ययन किया गया है.

पृथक रूप से और मिलाकर उपयोग किए गए इन कीटनाशकों के प्रभाव से प्रति दस मिनट में मरकर गिरने वाले मच्छरों की संख्या का आकलन करते हुए उनकी मृत्यु दर की गणना की गई है.

मृत्यु दर

शोधकर्ताओं ने मच्छरों की मृत्यु दर के आधार पर उनकी कीटनाशकों को ग्रहण करने की क्षमता के बीच संबंध स्थापित किया है. इससे पता चला है कि पिछले 70 वर्षों से दुनिया भर में कृषि और सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र दोनों में व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले कीटनाशक डीडीटी के प्रति मच्छरों की कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता सबसे ज्यादा है क्योंकि इसके उपयोग से सिर्फ 46 प्रतिशत से 70.2 प्रतिशत मच्छर ही नष्ट हो पाते हैं.

कुछ समय पूर्व उपयोग में आए डेलटामेथ्रिन और लैम्ब्डेसीहलोथ्रिन के लिए मच्छर अति संवेदनशील थे या फिर उनके लिए उनमें धीमी गति से प्रतिरोध देखा गया है. इसीलिए मच्छरों की मृत्यु दर 100 प्रतिशत के करीब थी. हांलाकि, प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने से मच्छरों की सभी कीटनाशकों के प्रति संवेदनशीलता बहुत कम हो गई है.

इस अध्ययन से जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. धीरज साहा ने बताया कि भारत में डेंगू की रोकथाम और नियंत्रण एकीकृत रोगवाहक प्रबंधन के माध्यम से की जाती है. इनमें सार्वजनिक तौर पर बड़े पैमाने पर कीटनाशकों का प्रयोग, लार्वाइसाइड्स और लार्वा खाने वाली मछलियों का उपयोग, दो प्रतिशत पाइरेथ्रम या पांच प्रतिशत मैलेथिओन के नियमित छिड़काव जैसी युक्तियां अपनायी जाती हैं. निजी स्तर पर घरों में भी लोग कई तरह के मच्छर नियंत्रण पाइरेथ्रॉइड समूह वाले कीटनाशकों का उपयोग कर रहे हैं.

धीरज साहा के अनुसार कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग के कारण मच्छरों ने अपने शरीर में कीटनाशकों के नियोजित कार्यों का प्रतिरोध करने के लिए रणनीतियों का विकास कर किया है. इसी प्रक्रिया को कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी क्षमता के विकास रूप में जाना जाता है.

एडीस एजिप्टि और एडीस अल्बोपिक्टस डेंगू के रोगवाहक मच्छरों की प्रजातियां हैं, जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैली हैं. हर साल भारत में डेंगू के लाखों मामले सामने आते हैं. मच्छरों को मारने और खेतों में छिड़काव किए जाने वाले कीटनाशकों के प्रति मच्छरों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने के कारण पूरी दुनिया में चलाए जा रहे रोगवाहक नियंत्रण कार्यक्रमों में काफी परेशानियां पैदा हो रही हैं.

शोधकर्ताओं के अनुसार, मच्छरों में कीटनाशक प्रतिरोधी स्तर के मूल्यांकन से डेंगू जैसी बीमारियों को न्यूनतम स्तर तक सीमित किया जा सकता है. कुशल एकीकृत वेक्टर नियंत्रण रणनीतियों को डिजाइन करने में इस अध्ययन के निष्कर्ष उपयोगी हो सकते हैं. जीन स्तर पर केंद्रित उन्नत अध्ययन भी प्रतिरोध के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने में मदद कर सकती है.

शोधकर्ताओं की टीम में डॉ. धीरज साहा के के अलावा मीनू भारती भी शामिल हैं. यह शोध प्लॉस वन शोध पत्रिका में प्रकाशित किया गया है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!