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असहिष्णुता, बहस और अहंकार

दिवाकर मुक्तिबोध
देश में बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में राष्ट्रीय सम्मान लौटाने की घटनाओं पर राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी की प्रतिक्रिया के बाद कुछ सवाल सहजत खड़े होते हैं. लेकिन इन पर चर्चा के पूर्व राष्ट्रपतिजी के विचारों पर गौर करना होगा जो उन्होंने नई दिल्ली में 16 नवंबर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय प्रेस परिषद द्वारा आयोजित कार्यक्रम के दौरान व्यक्त किए. उन्होंने कहा- ”प्रतिष्ठित पुरस्कार व्यक्ति की प्रतिभा, योग्यता और कड़ी मेहनत के सम्मान में दिए जाते हैं. ये राष्ट्रीय आदर के प्रतीक होते हैं. अत: पुरस्कार लेने वालों को इनका महत्व समझते हुए इन पुरस्कारों का सम्मान करना चाहिए. समाज में कुछ घटनाओं के कारण संवेदनशील व्यक्ति कभी-कभी विचलित हो जाते हैं किन्तु भावनाओं को तर्क पर हावी होने नहीं देना चाहिए और असहमति को बहस तथा चर्चा से व्यक्त किया जाना चाहिए.

राष्ट्रपति के इन विचारों से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय सम्मान लौटाने की घटनाओं को वे ठीक नहीं मानते और विरोध के इस तरीके से असहमत हैं. उन्होंने उन पुरस्कार विजेताओं को नसीहत देने की कोशिश की है जिन्होंने देश में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता, उन्माद एवं इससे उपजे तमाम तरह के अपराध जिनमें विचारकों, लेखकों की हत्या, हत्या की धमकियां तथा सरकार की मूकदर्शक के रुप में भूमिका भी शामिल है, के विरोध में अपने राष्ट्रीय अलंकरण, सम्मान एवं पुरस्कार स्वरुप प्राप्त राशि लौटाई है.

एक-एक करके लगभग 80 विख्यात विद्वानों द्वारा लौटाए गए सम्मान की वजह से असहमति की तेज आवाज देश-दुनिया में गूंजी और इससे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय चर्चाओं को बल मिला. विरोध की इन चर्चाओं की धमक अब धीमी पड़ गई है और नई आवाजें जुड़ने का सिलसिला भी थम सा गया है. यह इसलिए नहीं कि एक सम्मानजनक मंच पर बुलाकर विरोधियों से बातचीत की गई हो, (याद रहे ऐसी कोई पहल नहीं हुई) बल्कि इसलिए क्योंकि बिहार चुनाव और समय की रफ्तार ने हवा की दिशा बदल दी और साहित्यकारों, कलाकारों, लेखकों एवं विचारकों के विरोध का तूफान एक जगह आकर ठहर गया लेकिन उसका अस्तित्व कायम है.

बहरहाल चर्चा राष्ट्रपतिजी के द्वारा व्यक्त विचारों पर है. देश में बढ़़ती असहिष्णुता पर वे कई बार अपने चिंता व्यक्त कर चुके हैं. उनकी चिंता और लेखकों की चिंता में कोई अंतर नहीं है. फर्क केवल प्रतिक्रिया का है.

अब सवाल हैं कि एक-एक करके जब इस्तीफे आ रहे थे, पुरस्कार लौटाए जा रहे थे, तो क्या तब केंद्र सरकार ने अपनी ओर से कोई संवेदनशीलता दिखाई? केंद्र सरकार के मंत्री पुरस्कार लौटाने की घटनाओं को अनुचित तो बताते रहे किन्तु, किसी ने भी किसी लेखक से भेंट करने की जरुरत नहीं समझी. किसी ने भी लेखकों, विचारकों, कलाकारों को बहस के लिए एक मंच पर लाने की कोशिश नहीं की. और तो और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पूरे घटनाक्रम पर मौन रहे. यह कैसी संवेदनशीलता जिसका दावा किया जाता है?

प्रधानमंत्री चाहते तो प्रारंभ में ही जब पुरस्कार लौटाने का दौर शुरु हुआ था, प्रतिक्रिया देते, अपील करते तथा प्रधानमंत्री कार्यालय में लेखकों को सम्मानजनक ढंग से आमंत्रित करते और देश में बढ़ती धार्मिक असहनशीलता व तनाव पर सरकार की चिंता तथा उसके प्रयत्नों से अवगत कराते और भरोसा देने की कोशिश करते.

राष्ट्रपति वैचारिक बहस चाहते हैं, यह हो सकती थी बशर्ते वैसी सरकार के स्तर पर संवेदनशीलता दिखाई जाती, वैसी पहल की जाती. यह समझ से परे है कि हमारे देश में उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे हुए व्यक्ति पद के आतंक में इस कदर क्यों गिरफ्त हो जाते हैं और उनके सोचने, समझने व व्यवहार का तौर-तरीका क्यों बदल जाता है. यह कोई तुलना नहीं है पर अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की कार्यशैली को एक उदाहरण के बतौर ले सकते हैं.

हाल ही में मनीला में एशियाई पैसिफिक इकनॉमिक कोऑपरेशन सम्मेलन के एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने अलीबाबा डॉट कॉम के मालिक जैक मा को मंच पर बुलाया और वे खुद उनका इंटरव्यू लेने लगे. जैक मा आर्थिक दुनिया की बहुत बड़ी हस्ती है तथा वे 13 लाख करोड़ रुपये की कंपनी के मालिक हैं. यहां सवाल तरीके का है. राष्ट्रपति के लबादे को किनारे रखते हुए ओबामा ने एक सामान्य व्यक्ति, एक सामान्य इंटरव्यूकर्ता के रुप में खुद को सामने रखा तथा जैक मा से उनकी उपलब्धियों एवं भविष्य की योजनाओं पर बातचीत की.

क्या बातचीत के लिए इसी तरह की पहल या व्यवहार हमारे प्रधानमंत्री या मंत्री देश में घट रही घटनाओं से आहत लेखक बिरादरी से नहीं कर सकते थे? क्यों सत्ता के मठाधीश समस्याओं के नासूर बन जाने तक इंतजार करते हैं? क्यों तुरंत राहत का मरहम नहीं लगाते? मनुष्यता को तार-तार करने वाले दादरी जैसे कांड में भी लंबी चुप्पी किसलिए? यह संभव था कि कर्नाटक के लेखक, विचारक एमएम कालबुर्गी की हत्या की घटना की केंद्र शासन के स्तर पर अविलंब भर्त्सना की जाती.

लेखक की हत्या यानी विचारों को कुचलने की कोशिश. एक लोकतांत्रिक देश में ऐसा कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है. जब असहनशीलता के विरोध में पुरस्कार लौटाने का दौर शुरु हुआ तब भी सत्ता का जमीर नहीं जागा. क्या यह तानाशाही प्रवृत्ति का संकेत नहीं है?

यह तय है कि राष्ट्रपति के विचारों एवं साहित्य अकादमी की पूर्व में की गई अपील के बावजूद अकादमी एवं अन्य राष्ट्रीय अलंकरण लौटाने वाले विद्वान अपने कदम पीछे नहीं लेंगे. और उन्हें लेना भी क्यों चाहिए. जिन वजहों से उन्होंने यह कदम उठाया है वे आज भी यथावत हैं.

दरअसल हर समस्या का हल बातचीत है, तार्किकता के साथ बहस है. पर सवाल है इसके लिए माहौल बनाने की पहली जिम्मेदारी किसकी है? क्या सत्तापक्ष यह जिम्मेदारी नहीं ले सकता? देश चलाने के लिए देश की जनता ने उन्हें यह अधिकार सौंप रखा है, लिहाजा वह जवाबदेह भी है तथा जिम्मेदार भी. इसलिए बहस के लिए पहल की अपेक्षा भी उसी से की जाती है. सत्ता का अहंकार बस यही नहीं होने देता. बड़ी दिक्कत यही है.

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