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दुर्गा खोटे को जानना

सुशील गौतम | फेसबुक
अब कई बार fb पर लिखने से अरुचि हो जाती है.जिस दिन दुर्गा खोटे की जीवनी पूरी की उस दिन उस पर काफी कुछ लिखना चाह रहा था पर फिर मन उचट गया. आज कुछ लिखता हूँ.

जब किसी विधा या किसी विशेष क्षेत्र के प्रसिद्ध व्यक्ति के संस्मरण या जीवनी में रूचि पैदा होती है तब मुख्य जिज्ञासा होती है उस क्षेत्र की अंदरूनी कहानी और उस माहौल में उस विशिष्ट व्यक्ति का लेन देन. यह बड़ा टेढा काम है अपने जीवन की किताब खोलना! बहुत हिम्मत चाहिए इसके लिए.

फिर इस कथा में तमाम ऐसे पात्र कुपात्र होते हैं कि उनके बारे में कुछ लिखने पर लेखक को ऊहा पोह रहती है. लिखूं कि न लिखूं? किसी और के बारे में लिखने का मुझे क्या अधिकार है? पर यदि दूसरों के बारे में कुछ ऐसा वैसा नहीं लिखा जा रहा तब तो लिखने में कोइ संकोच नहीं होना चाहिए. हाँ ऐसा न हो तो उनका नाम छुपा कर और जहां तक हो सके उनकी पहचान छुपा कर लिखा जा साकता है.

दुर्गा खोटे की जीवनी में मैं फिल्म जगत ढूंढ रहा था इसलिए पुस्तक उठाते ही पहले लगभग अंतिम अध्याय पढ़ा जिसमें दुर्गाबाई ने अपने और साथी कलाकारों के सम्बन्ध के बारे में लिखा. बहुत कम लोग इस अध्याय में स्थान पा सके और चटखारे वाली तो कोइ बात थी ही नहीं. जो था अच्छा था पर इसमें भी उन्होंने केवल जयराज के बारे में थोड़ा खुल कर लिखा.

जयराज में अभिनय के अलावा जो प्रतिभा थी वो इन्हीं पृष्ठों से पता लगा.प्रारम्भ में उन्होंने शांताराम के बारे में भी कुछ विस्तार से लिखा पर यह सब बहुत संक्षिप्त रहा. दुर्गाबाई ने फ़िल्मी दुनिया की नींव रखे जाने के साथ इमारत खड़े होते देखी पर यह सारी कहानी रहस्य ही रह गयी. काश वो प्रभात के अलावा मुगले आज़म के बारे में कुछ और विस्तार से लिखतीं, पर ख़ैर ये लेखक का अपना नज़रिया है क्या लिखे क्या न लिखे.

दुर्गाबाई ने अपने निजी पारिवारिक जीवन के बारे में खुल कर लिखा है मां पिता अन्य बुजुर्ग पुत्र और पुत्रवधुओं पर निःसंकोच लिखा है हाँ अपने दिव्तीय विवाह की कहानी उन्होंने सरसरी तौर पर बयान की है. लेकिन मैने अपनी पहली पोस्ट में लिखा था कि उन्होंने एक सिद्ध हस्त लेखिका के रूप में अपनी जीवनी लिखी है. यह सच है जो लिखा है वो बहुत अच्छा लिखा है. मानोयोग के साथ आकर्कष शैली और शब्दों में. मतलब यह पठनीय जीवनी है.

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