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चुनाव में फिर याद आयेंगे किसान

इस देश में किसान उसी समय आर्थिक परिदृश्य पर उभरते हैं जब कहीं चुनाव होने वाले हों. मैं पिछले 30 बरसों से यह देखता आ रहा हूं, सभी राजनीतिक दल, चाहे वे किसी भी विचारधारा के हों इसी ढर्रे पर चलते दिखाई देते हैं. लेकिन एक बार जब चुनाव खत्म हो जाते हैं तो फोकस किसानों से हट जाता है और उन्हें उनके हाल पर फिर से छोड़ दिया जाता है. जो भी नई सरकार बनती है वह पहले चार साल कॉरपोरेट हितों की पूर्ति में लगी रहती है, फिर चुनावों के एक साल पहले उसे अचानक किसानों की याद आती है.

हर बार चुनावों के समय, राजनीतिक दल किसानों को ललचाते हैं. सत्तारूढ़ दल कृषक समुदाय के वोट हासिल करने के लिए उन्हें आर्थिक प्रलोभन देते हैं. हमने देखा है कि चुनावों के समय पर किसानों के सामने लुभावने वादे किए जाते हैं और फिर किसान अब तक जो उनके साथ हुआ वह सब भूल जाते हैं. जब राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने विधानसभा चुनावों से पहले सरकार का आखिरी बजट पेश किया और उसमें लघु व सीमांत किसानों के सहकारी बैंकों से लिए गए 50 हजार रुपये तक के लोन की माफी का ऐलान किया तो साफ हो गया कि चुनाव होने वाले हैं. गौर करने वाली बात है कि इस कर्जमाफी से सरकारी खजाने पर 8 हजार करोड़ रुपयों का बोझ आएगा.

दूसरी तरफ मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वादा किया है कि पिछले रबी सीजन में किसानों से की गई सरकारी खरीद पर प्रति क्विंटल 200 रुपये ज्यादा दिए जाएंगे. भोपाल के जंबूरी पार्क में आयोजित किसान महासम्मेलन में बोलते हुए चौहान ने कहा, किसान भीख नहीं मांगता, हम उसके पसीने की कीमत देंगे. फिर इसके बाद उन्होंने ऐलान किया कि गेहूं के 1735 रुपये प्रति क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य की जगह किसानों को 2000 रुपये प्रति क्विंटल दिए जाएंगे. आपने सही अंदाजा लगाया, इस साल मध्य प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं और इस बार शिवराज सिंह चौहान के सामने लगातार चौथी बार सत्ता में लौटने की चुनौती है. आने वाले समय में मुझे हैरानी नहीं होगी अगर छत्तीसगढ़ भी चावल और गेहूं की खरीद पर इसी तरह के बोनस का ऐलान कर दे.

पिछले चार बरसों से राजस्थान और मध्य प्रदेश व्यापक स्तर पर किसान आंदोलनों के साक्षी रहे हैं. इनमें से अधिकांश आंदोलनों का मूल कारण लगातार दो वर्षों से कृषि उत्पादों की कीमतों में बेहद गिरावट रहा है. उपज की भरमार और दामों में भारी गिरावट की वजह से किसानों ने कई जगहों पर अपने उत्पादों को सड़कों पर फेंक दिया था, पिछले साल मंदसौर में ऐसे ही एक आंदोलन पर पुलिस ने फायरिंग की थी जिसमें छह किसानों की मौत हो गई थी. केंद्र सरकार भी पीछे नहीं रही, वह भी हरकत में आई और उसने अपनी नीतियां किसानों पर केंद्रित कर दीं. पिछले चार वर्षों से, किसानों की कोई चर्चा नहीं हुई सिवाय तब, जब उनको लेकर खोखले वादे किए गए, लेकिन जैसे ही 2019 के चुनावों के एक साल रह गए सारी नजरें किसानों पर टिक गईं.

दिलचस्प बात यह है कि अगर सरकार पहले की तरह गेहूं और चावल पर किसानों को बोनस देना जारी रखती तो शायद सड़कों पर उतरे किसानों की नाराजगी थोड़ी कम होती. लेकिन मई 2014 में एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद से इसे बंद कर दिया गया. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारें गेहूं और चावल के नयूनतम समर्थन मूल्य पर 150 रुपये और 300 रुपये का बोनस दिया करती थीं. जून 2014 में खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्रालय ने इन दोनों राज्यों को बोनस बंद करने के निर्देश दिए. इन दोनों राज्यों की सरकारों को दो-टूक शब्दों में कह दिया गया कि अगर वे ऐसा करना बंद नहीं करतीं तो न केवल उन्हें इसका पूरा वित्तीय बोझ खुद उठाना होगा बल्कि उपज खरीदने की पूरी व्यवस्था भी खुद ही करनी होगी.

पिछले चार वर्षों से ये सरकारें किसानों पर डंडा चलाती रहीं और चुनावों से ऐन पहले अपने कार्यकाल के आखिरी साल में इन्होंने कुछ चुनावी रेवड़ियां डाल दीं. ये दावे भी कभी पूरे नहीं होते हैं. योगी आदित्यानाथ ने उत्तर प्रदेश में किसानों का पूरा बकाया कर्ज माफ करने का वादा किया था लेकिन हकीकत में छोटे किसान का अधिकतम 1 लाख रुपये का कर्ज माफ किया. पंजाब में, कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने वादा किया था कि वह किसानों का कर्ज माफ कर देंगे इसमें निजी और सरकारी बैंकों दोनों शामिल थे. लेकिन जब वह सत्ता में आए तो अब तक केवल 170 करोड़ रुपये के लोन को माफ कर पाए हैं, जबकि कुल बकाया लोन 86 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा का है.

अपने कार्यकाल के पहले चार बरसों में सभी सत्तारूढ़ पार्टियां किसानों को नजरअंदाज करके ऐसी आर्थिक नीतियां बनाती हैं जिनकी वजह से किसान मजबूर होकर खेती छोड़ कर शहरों को पलायन कर जाते हैं. आर्थिक नीतियां जानबूझकर ऐसी बनाई जाती हैं जिनके चलते खेती आर्थिक रूप से घाटे का सौदा होकर रह जाती है. यही वह डंडा है जिसे सरकारें किसानों पर चलाती रहती हैं. मध्य प्रदेश सरकार की भावांतर भुगतान जैसी स्कीमें इधर-उधर मरहम लगाने के अलावा कोई बड़ा संरचनात्मक बदलाव नहीं कर पातीं. सबसे बढ़कर बात यह कि भूमि-कानूनों में मनमर्जी और सहूलियत के मुताबिक संशोधन करके उन्हें ऐसा बनाया जाता है कि उद्योगपति जब चाहे किसान की जमीन हड़प लें. असल में, आर्थिक सुधारों को बरकरार रखने के लिए खेती का बलिदान दिया जा रहा है. भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन कहा करते थे, सबसे बड़ा आर्थिक सुधार तब होगा जब किसान ग्रामीण इलाकों से निकल कर शहरों में पहुंच जाएंगे जहां आधारभूत संरचना के विकास के लिए सस्ते मजदूरों की तत्काल आवश्यकता है.

कीमतों में बेतहाशा गिरावट ने निश्चित तौर पर किसानों का गुस्सा भड़काया है, लेकिन केवल यही एक वजह नहीं है जिसके कारण कृषि क्षेत्र में आजीविका की समस्या गहराती जा रही है. यह रोग बहुत गंभीर है जिसका इलाज तभी मुमकिन है जब नीतियों में आमूल-चूल बदलाव लाया जाए. देश के ग्रामीण इलाकों में पनपते इस गुस्से में पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हुई है. 2014 की 628 घटनाओं की तुलना में 2016 में 4837 घटनाएं हुईं, मतलब ऐसी घटनाएं 670 फीसदी की दर से बढ़ी हैं. इसके बावजूद मुझे नहीं लगता कि राजनीतिक पार्टियां जरा भी परेशान हैं. उन्हें पता है कि चुनावों के कुछ महीनों पहले किसानों को लुभाने वाले कुछ ऐलान कर दिए जाएंगे और उनका वोटबैंक बरकरार रहेगा.

क्या 2019 के चुनाव कुछ अलग होंगे ? मुझे नहीं लगता, खासकर जब तक किसानों को नहीं लगता कि अब अति हो चुकी है. किसान अपने सिवा किसी और को दोष दे भी नहीं सकते. पिछले 70 बरसों में उन्हें हर राजनीतिक पार्टी ने धोखा दिया है. अब तो जैसे यह एक सार्वभौमिक नियम बन चुका है. उनके सामने लुभावने चुनावी वादों का जाल बिछा दिया जाता है और वे चूहों की तरह फंस जाते हैं. सही मायनों में उन्हें कभी अर्थव्यवस्था का आधार माना ही नहीं गया. किसानों की केवल दो ही भूमिकाएं हैं – या तो वे वोट बैंक हैं या लैंड बैंक.

जिस दिन किसान धर्म, जाति और राजनीतिक विचारधारा से ऊपर उठकर किसान की हैसियत से वोट देंगे उसी दिन देश का राजनैतिक परिदृश्य बदल जाएगा. जिस दिन किसान महज किसान की हैसियत से वोटिंग करेगा आर्थिक नीतियां भी बदल जाएंगी. तब किसान निणार्यक भूमिका में होगा, वह आर्थिक वृद्धि और विकास का केंद्र बन जाएगा. तब तक, उन्हें अंतहीन कृषि संकट में ही जीवन काटना होगा. किसान को पता होना चाहिए कि जिस अस्तित्व की लड़ाई वे हर रोज लड़ रहे हैं उसके मूल में वे खुद ही हैं.

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