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विकास दर में गिरावट

2016-17 की आखिरी दो तिमाही में आई गिरावट नोटबंदी के नुकसानों की पुष्टि कर रही है.फरवरी 2017 में केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी सीएसओ ने यह घोषणा की कि 2016-17 की तीसरी तिमाही में विकास दर 7 फीसदी और पूरे वित्त वर्ष के लिए विकास दर 7.1 फीसदी रही. उस वक्त प्रधानमंत्री ने नोटबंदी से होने वाले नुकसानों की बात करने वाले लोगों की आलोचना यह कहकर की कि ये हावर्ड में पढ़े-लिखे लोग हैं. कई जनसभाओं में प्रधानमंत्री मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भी इस बात के लिए आलोचना की कि उन्होंने नोटबंदी की वजह से जीडीपी में दो फीसदी कमी की आशंका जाहिर की थी.

साथ ही उन्होंने अमर्त्य सेन की उस बात को भी खारिज किया जिसमें सेन ने कहा था कि नोटबंदी की वजह से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ेगा. मोदी ने ये कहा कि इन लोगों की झूठ का पर्दाफाश हो गया है. जबकि खुद सरकारी अधिकारी ये कह रहे थे कि तीसरी तिमाही में संभव है कि नोटबंदी का पूरा असर अभी नहीं दिख रहा हो. सीएसओ ने 31 मई को जो आंकड़े जारी किए हैं उनसे पता चलता है कि बीते वित्त वर्ष की आखिरी दो तिमाही में विकास दर में गिरावट आई है. इन आंकड़ों से मोदी के ‘झूठ’ का भी पर्दाफाश होता है.

तीसरी तिमाही में 2015-16 की समान अवधि के मुकाबले 0.6 फीसदी की गिरावट आई और विकास दर 6.7 फीसदी रही. जबकि चैथी तिमाही में यह गिरावट 3.1 फीसदी की है और 2015-16 की समान अवधि के 8.7 की विकास दर के मुकाबले विकास दर सिर्फ 5.6 फीसदी रही. 2013-14 में विकास दर 5.6 फीसदी थी और उसकी चैथी तिमाही के बाद यह चैथी तिमाही के अब तक के सबसे निराशाजनक आंकड़े हैं. लेकिन अगर 2013-14 के आंकड़ों की गणना नए आधार वर्ष यानी 2011-12 पर हो तो यह पता चलेगा कि उस साल की चैथी तिमाही की विकास दर 2016-17 की चैथी तिमाही से अधिक है.

इसका मतलब यह हुआ कि जब से नया आधार वर्ष शुरू हुआ है तब से यह अब तक का सबसे बुरा प्रदर्शन है. 2016-17 का जीवीए भी इसके पिछले साल के मुकाबले 1.3 फीसदी कम यानी 6.6 फीसदी पर रहा. यह भी 2012-13 के बाद सबसे कम है. हालिया साल के लिए जीडीपी 7.1 फीसदी इसलिए दिख रही है क्योंकि इसमें अप्रत्यक्ष करों के 12.8 फीसदी के योगदान को जोड़ लिया गया है. जबकि पुराने राष्ट्रीय गणना पद्धति में यह शामिल नहीं था.

सीएसओ के आंकड़े ये भी बताते हैं कि निवेश में कमी आई है. इसे मापने के लिए ग्राॅस फिक्सड कैपिटल फार्मेशन यानी जीएसीएफ का इस्तेमाल किया जाता है. 2016-17 में यह बीते वित्त वर्ष के 30.9 फीसदी के मुकाबले घटकर 29.5 फीसदी रहा. जबकि चैथी तिमाही में यह बीते साल की चैथी तिमाही के 28.5 फीसदी के मुकाबले 25.5 फीसदी ही रहा. जाहिर है कि इसका असर मध्यकालिक तौर पर उत्पादन, रोजगार और आमदनी पर पड़ेगा.

कृषि और लोक प्रशासन को छोड़कर सभी श्रेणियों में चैथी तिमाही में तेज गिरावट दिखी है. इन दोनों को छोड़कर बाकी छह क्षेत्रों की विकास दर 10.7 फीसदी से घटकर 3.8 फीसदी रही है.

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इसका मतलब यह हुआ कि जीडीपी को 1,35,600 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में 2015-16 की चैथी तिमाही में छह फीसदी की तेजी दर्ज की गई थी जबकि इस बार चौथी तिमाही में इसमें 3.7 फीसदी कमी आई. अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले सबसे अधिक लोग इसी क्षेत्र में काम करते हैं. विनिर्माण, व्यापार, होटल, परिवहन, वित्तीय सेवाएं, रियल एस्टेट और पेशेवर सेवाओं में भी गिरावट आई है. ये सभी ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें अच्छी खासी संख्या में अनौपचारिक रोजगार करने वाले हैं.

यह तर्क दिया जा सकता है कि आखिरी दो तिमाही के आंकड़े तात्कालिक हैं और मध्यकालिक तौर पर इसक असर नहीं दिखेगा. भारतीय अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक क्षेत्र की भूमिका को देखते हुए कहा जा सकता है कि जीडीपी की गणना में सीएसओ जिस तरह से इस क्षेत्र के योगदान की गणना करता है, उसमें खोट हैं. अभी श्रम को एक इनपुट मानकर विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में अनौपचारिक रोजगार के योगदान की गणना की जाती है. इसमें जिन आंकड़ों की जरूरत पड़ती है, वे सिर्फ आधार वर्ष के लिए ही उपलब्ध हैं और बाकी के सालों में इसे आधार बनाकर गणना कर दी जाती है.

इस वजह से अनौपचारिक रोजगार और श्रमिकों की आमदनी पर नोटबंदी के सही असर का अंदाज नहीं लगाया जा सकता है. दूसरी तरफ जमीनी स्तर से आने वाले रिपोर्ट यह बता रहे हैं कि नोटबंदी की वजह से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था दबाव में है, लोगों की नौकरियां गई हैं और आमदनी कम हुई है. साथ ही स्वरोजगार में भी कमी आई है.

2011-12 में यह अनुमान लगाया गया था कि देश में कुल 48.4 करोड़ श्रमिक हैं. इनमें से तीन करोड़ ही संगठित क्षेत्र में हैं. इसका मतलब यह हुआ कि 93 फीसदी श्रमिक असंगठित क्षेत्र में हैं. ऐसे में इनकी मांग और बचत में कमी आने से अर्थव्यवस्था में मध्यकालिक तौर पर असर पड़ना तय है. नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को और असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों को गंभीर नुकसान हुए हैं. हालिया आंकड़े मोदी सरकार के भ्रामक नारेबाजी और खोखली वादों की पोल खोलने वाले हैं.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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