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भूमंडलीकरण के पेंच

सुनील

अरुणा राय एक प्रमुख समाजसेवी हैं. उन्होंने आइएएस की नौकरी छोड़ राजस्थान के ग्रामीण मजदूरों को संगठित किया. सूचना का अधिकार कानून और महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी (मनरेगा) कानून बनवाने में उनकी अहम भूमिका रही है. उन्हें प्रतिष्ठित मैग्सेसे पुरस्कार मिला है. इन्हीं अरुणा राय का ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ से इस्तीफा बीते दिनों चर्चा का विषय रहा. यूपीए सरकार के दोनों कार्यकाल में सोनिया गांधी की अध्यक्षता में इस परिषद का गठन किया गया था. यूपीए सरकार ने जनहित में जो भी फैसले किये और कानून बनाये, उनमें इस परिषद की बड़ी भूमिका रही है. अरुणा राय के अलावा इस परिषद में ज्यां द्रेज, हर्ष मंदर और एनसी सक्सेना जैसे मूर्धन्य लोग रहे हैं.

अरुणा राय कुछ समय से बैचेन व असंतुष्ट थीं. एक कारण है कि मनरेगा में सरकार न्यूनतम मजदूरी देने को तैयार नहीं है. इस विषय में कर्नाटक हाइकोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट द्वारा उस पर रोक से इनकार को भी सरकार ने अनदेखा कर दिया. सूचना का अधिकार भी हल्का करने की कोशिश की जा रही है. जब प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून में भी सरकार हील-हवाला करने लगी, तो अरुणा राय के सब्र का बांध टूट गया.

यूपीए सरकार ने जनहित में कई कानून और कार्यक्रम बनाये हैं. जब सरकार अपनी उपलब्धियों का बखान करती है तो इन्हीं का जिक्र करती है, जैसा अभी ‘भारत निर्माण’ विज्ञापनों में कर रही है. इनमें प्रमुख हैं- मनरेगा, सूचना का अधिकार, वन अधिकार, शिक्षा अधिकार, घरेलू हिंसा कानून, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य बीमा योजना, जननी सुरक्षा योजना आदि. खाद्य सुरक्षा, सांप्रदायिक दंगा कानून, लोकपाल आदि भी उसके एजेंडे पर है. इस सूची को देख कर लगता है कि इस सरकार ने दबे-कुचले, गरीब तबकों के लिए बहुत कुछ किया है. कम से कम इसकी मंशा तो है. इसीलिए देश के बहुत से नामी और भले लोगों ने सरकार को सहयोग किया. कानून या योजना अच्छी बने और फिर उसका अमल ठीक से हो, इसमें वे शिद्दत से जुट गये. पर अब उनका मोहभंग हो रहा है.

मनरेगा को ही लें. भ्रष्टाचार तो है ही. पर मनरेगा गांवों में रोजगार सुनिश्चित करने के अपने लक्ष्य में असफल रहा है. रोजगार की तलाश में गांवों से लोगों का पलायन जारी है. मनरेगा में मांगने पर 15 दिन में काम देने, न देने पर भत्ता देने और मजदूरी भुगतान में देरी पर हर्जाना का प्रावधान है. लेकिन आम ग्रामीणों के लिए इन प्रावधानों का इस्तेमाल कर पाना करीब-करीब असंभव है. मजदूरी की दरें कम हैं, ऊपर से टास्क रेट (काम की मात्र के अनुपात में मजदूरी) के कारण कई बार मजदूरों को 40-50 रुपये रोज ही मिल पाया है. कुछ समय पहले झारखंड में कुछ भले अफसरों की बदौलत पहली बार मजदूरों को भत्ता और हर्जाना मिला. कानून के मुताबिक यह सामान्य घटना होनी चाहिए थी, पर इतनी अनूठी घटना थी कि ज्यां द्रेज ने उल्लासित होकर अंगरेजी अखबार ‘द हिंदू’ में इस पर एक लंबा लेख लिखा.

मनरेगा ने यह जरूर किया है कि इसने देश में कई जगह ग्रामीण गरीबों को संगठित करने के लिए एक मुद्दा दिया. मैं कम से कम तीन इलाकों को जानता हूं और वहां मैंने देखा है कि मनरेगा को लेकर वहां गरीबों ने शानदार संघर्ष छेड़े हैं, उनमें जोरदार चेतना आयी है. ये हैं मध्यप्रदेश में बड़वानी, बिहार में अररिया और उत्तर प्रदेश में सीतापुर. संयोग है कि तीनों की नेता सुशिक्षित समर्पित महिला कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने स्वयं को इसमें झोंक दिया है. अपने-अपने प्रदेश में ये तीनों एकमात्र जगहें हैं, जहां काफी संघर्ष के बाद मजदूरों ने भत्ता या हर्जाना लिया है. लेकिन ये अपवाद भी संगठित संघर्ष, सुशिक्षित नेतृत्व और भले अफसर के संयोग से ही बन पाये.

एक प्रसंग का जिक्र यहां मौजूं होगा. जब मनरेगा बना नहीं था और उसकी मांग को लेकर ‘रोजगार यात्र’ की बस पूरे देश में घूम रही थी, तब मध्य प्रदेश में उसका एक पड़ाव केसला में था. सुबह ज्यां द्रेज से बातचीत में मेरी हल्की सी बहस हुई. मैंने कहा कि भूमंडलीकरण की नीतियों का विरोध हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. ज्यां सहमत थे कि ये नीतियां गलत हैं, लेकिन कहते थे कि रोजगार गारंटी का कानून बन गया तो काफी बड़ा काम हो जायेगा. तब बहुत लोग इस विचार से उत्साहित हो चले थे. अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी ने इसके समर्थन में एक निबंध लिखा, जो ‘डेवलपमेंट विद डिग्निटी’ (इज्जत के साथ विकास) शीर्षक से किताब के रूप में प्रकाशित हुआ था. उनका तर्क था कि इस कानून से बड़े पैमाने पर गरीबों के हाथ में पैसा आयेगा, जिससे अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ेगी और तेजी आएगी. बाद में मुलाकात में अमित भादुड़ी ने माना कि उनकी उम्मीद गलत थी, किताब का शीर्षक भी भ्रामक था.

निष्कर्ष यही निकलता है कि जब सरकार की नीतियां और ढांचा पूरी तरह जन-विरोधी हों, तो किसी इक्का-दुक्का कार्यक्रम से लोगों के कष्ट दूर नहीं हो सकते. रोजगार की ही बात लें तो भूमंडलीकरण के दौर में बड़ी संख्या में छोटे-बड़े उद्योग व सरकारी उपक्रम बंद हुए, मशीनीकरण हुआ है, खेती पर संकट आया और नतीजतन रोजगार का संकट पैदा हुआ है. रोजगार कम होने के साथ-साथ वास्तविक मजदूरी भी कम हुई है. इस बुनियादी संकट से ध्यान बंटाने का काम मनरेगा ने किया है.

सरकार के बाकी जनहितैषी कदमों के बारे में भी यही बात है. अपने-आप में वे काफी अच्छे और प्रगतिशील मालूम होते हैं, पर व्यापक संदर्भ में उनकी भूमिका संदेहास्पद हो जाती है. सूचना का अधिकार एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन प्रशासन का केंद्रीकृत औपनिवेशिक, जनविरोधी ढांचा कायम है और उसे बदलने की बात नेपथ्य में चली गयी है. वन अधिकार कानून वनवासियों को खेती के पट्टे देता है, लेकिन जंगलों पर सरकार का निरंकुश अधिकार कायम है और वह जब चाहे आदिवासियों को बेदखल कर कंपनियों को जंगल दे देती है. शिक्षा अधिकार कानून ऐसे समय में लाया गया है जब साथ में शिक्षा का तेजी से और अनियंत्रित निजीकरण-बाजारीकरण हो रहा है. उस पर यह कानून कोई अंकुश नहीं लगाता है और साधारण बच्चों की पहुंच से शिक्षा दूर होती जा रही है.

इन्हीं कानूनों के साथ देश में अलग-अलग कई ‘अधिकार अभियान’ चल पड़े हैं. एनजीओ और एडवोकेसी समूहों को तो काम मिल गया है, लेकिन बुनियादी बदलाव चाहने वाली धारा के सामने भ्रम और रुकावट पैदा हो रही है. यह एहसास पैदा करने की कोशिश की जा रही है कि भूमंडलीकरण का मानवीय चेहरा हो सकता है. पर भारत और दुनिया का अनुभव बताता है कि यह संभव नहीं है. भूमंडलीकरण के इस दौर में मुनाफे की भूख, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, श्रम का शोषण और बाजारों पर कब्जे की जरूरत इतनी बढ़ गयी है कि पूरी दुनिया में लोगों की जिंदगी पर हमले हो रहे हैं. इनके घाव इतने बड़े हैं कि कोई मरहम काम नहीं करता. इसलिए आज जरूरत इस बात की है कि पूंजीवादी भूमंडलीकरण के असली चेहरे को पहचान कर उसके खिलाफ संघर्ष को बढ़ाया जाये.

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