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जीएसटी : एक अपूर्ण कवायद

जीएसटी यानी वस्तु एवं सेवा कर अभी विकास की प्रक्रिया में है और यह प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई पूरा होने से दूर है. भारत में वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी को लागू हुए साल भर हो गए. शुरुआती दिक्कतें कम हुई हैं. वस्तुओं को श्रेणीबद्ध करने और रिटर्न दाखिल करने से संबंधित दिक्कतें अस्थायी तौर पर सुलझा ली गई हैं. जीएसटी की सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि पंजीकृत करदाताओं की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है. हालांकि, समय से रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या 70 फीसदी ही है लेकिन इसके जल्दी ही 90 फीसदी तक पहुंचने का अनुमान है.

इससे पता चलता है कि जीएसटी अभी विकास की प्रक्रिया में है. पहली चर्चा तो यह चल रही है कि करों की श्रेणी कम होनी चाहिए. कुछ लोग एक दर की बात कर रहे हैं तो कुछ लोग दो या तीन की. वित्त मंत्री कर दर में सुधार की बात करते हैं अगर राजस्व बढ़ता है तो. लेकिन यह अब भी एक ऐसा विषय बना हुआ जो अनसुलझा है. दूसरी बात यह कि रिटर्न का फार्मेट अभी तक तय नहीं हो पा रहा है. जीएसटी परिषद बिल मिलाने की विधि पर बने रहना चाहती है लेकिन ऐसा लग रहा है कि इसमें भी बदलाव होगा. तीसरी समस्या यह है कि कई चीजें अब भी वस्तु एवं सेवा कर के दायरे से बाहर हैं. जैसे कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, पेट्रोल, डीजल, विमान ईंधन, बिजली, शराब और कुछ रियल स्टेट लेन-देन. अर्थव्यवस्था और राजस्व पर जीएसटी के असर की पड़ताल से पहले इन विषयों पर ध्यान देना जरूरी है. जब वस्तु एवं सेवा कर पूरी तरह से लागू हो जाएगा तब ही इसके असर का सही अंदाजा हो पाएगा.

अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर संकेत मिले-जुले हैं. नोटबंदी के असर को वस्तु एवं सेवा कर के असर से अलग करना मुश्किल है. जीडीपी दर में आ रही गिरावट जीएसटी लागू होने के बाद थम गई है. लेकिन अब भी यह नोटबंदी के पहले के स्तर पर नहीं पहुंची है. पूंजी निर्माण में भी सुधार हुआ है. इससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा है.

अब तक वस्तु एवं सेवा कर केंद्र और राज्य सरकारों के लिए राजस्व निरपेक्ष रहा है. केंद्र सरकार ने राज्यों को 14 प्रतिशत राजस्व वृद्धि का आश्वासन दिया है. ज्यादातर राज्यों में यह दर 14 फीसदी से कम थी. ऐसे में इस आश्वासन से राज्यों को अधिक राजस्व मिलेगा. लेकिन केंद्र सरकार के लिए जीएसटी राजस्व निरपेक्ष नहीं है. क्योंकि उपकर के जरिए होने वाली आमदनी राज्यों के घाटे की भरपाई में जाएगी और केंद्र इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता. वहीं एकीकृत जीएसटी के अंदर आयात करने वाला डीलर इनपुट के्रेडिट का दावा करता है तो इसका हिस्सा भी राज्यों को जाएगा. इन दोनों चीजों को मिला लें तो जीएसटी लागू होने के बाद के 12 महीने में केंद्र को जो राजस्व मिला है, वह इसके पहले के 12 महीने में मिले राजस्व से कम है.

वस्तु एवं सेवा कर से यह उम्मीद थी कि अर्थव्यवस्था अधिक औपचारिक होगी. जीएसटी का ढांचा ऐसा है कि अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को औपचारिक क्षेत्र में आने से फायदा होगा. यह काम दो तरह से हो सकता है. या तो असंगठित क्षेत्र की इकाइयां संगठित होकर काम करने लगें या फिर उनका काम संगठित क्षेत्र करने लगे. पहला काम दूसरे के मुकाबले कम अवरोध पैदा करने वाला है. रिवर्स चार्ज तंत्र फर्क पैदा कर सकता है. गैर-पंजीकृत आपूर्तिकर्ताओं से माल लेने वाले आपूर्तिकर्ता ऐसे आपूतिकर्ताओं को कागज पर दिखाकर उनसे कर लेकर सरकार को देकर इनपुट क्रेडिट का दावा पेश कर सकते हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो नियमों को मानने की जिम्मेदारी आपूर्तिकर्ता से हटकर खरीदार पर आ गई. अगर छोटे आपूर्तिकर्ताओं को जीएसटी का पालन करने का खर्च अधिक लगता है तो इस प्रक्रिया से अनौपचारिक आपूर्तिकर्ता कम होंगे और अर्थव्यवस्था औपचारिक होगी.

वस्तु एवं सेवा कर के तहत पंजीकृत करदाताओं की संख्या बढ़ने और रिटर्न दाखिल करने की संख्या में हुई बढ़ोतरी के बावजूद अगर राजस्व नहीं बढ़ रहा है तो माना जाना चाहिए कि वस्तु एवं सेवा कर अभी विकास की प्रक्रिया में है. जीएसटी परिषद को इस मामले को अर्थव्यवस्था के हितों को ध्यान में रखते हुए देखना चाहिए और साथ ही वस्तु एवं सेवा कर पालन करने पर होने वाले खर्चों में कमी के उपाय भी करना चाहिए.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

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