प्रसंगवश

देश के दुश्मन से मुलाकात किसलिए

दिवाकर मुक्तिबोध
देश एवं समाज के लिए खतरा बने आतंकवादियों से क्या किसी पत्रकार को बातचीत करनी चाहिए? क्या उसका इंटरव्यू लेना चाहिए? क्या ऐसा करना देशहित में है? क्या पेशेगत इमानदारी का यह तकाजा है? क्या लेखकीय स्वतंत्रता सर्वोपरि है? क्या वह देश से ऊपर है? क्या ऐसा केवल सस्ती लोकप्रियता हासिल करने,मीडिया में चर्चा में रहने एवं सनसनी पैदा करने के खातिर है? क्या स्वशासित मीडिया इसे ठीक मानता है? क्या नैतिक एवं सार्वजनिक हितों की दृष्टि से इसका समर्थन किया जा सकता है?

ये कुछ सवाल हैं जो बेहद गंभीर हैं तथा इन पर गहन चिंतन की जरूरत है. ये सवाल अभी इसीलिए उठ खडे हुए हैं क्यों कि देश के वरिष्ठ पत्रकार एवं भाषा के पूर्व सम्पादक वेदप्रताप वैदिक ने 3 जुलाई को पाकिस्तान के प्रवास के दौरान लाहौर में पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज मोहम्मद सईद से मुलाकात की जो लगभग सवा घंटे तक चली. हाफिज को मुंबई ब्लास्ट का मुख्य आरोपी माना जाता है तथा भारत के लिए मोस्ट वांटेड है जिसने पाकिस्तान में पनाह ले रखी है.

कुख्यात अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के इस प्रमुख पर अमेरिका ने 60 करोड़ का इनाम घोषित कर रखा है. ऐसे व्यक्ति से वैदिक की मुलाकात ने मीडिया और राजनीति को गर्मा दिया है. कांग्रेस ने इस मसले पर संसद में अपना जबरदस्त विरोध दर्ज किया. हंगामे की वजह से राज्यसभा की कार्रवाई दो बार स्थगित करनी पड़ी. पार्टी ने मामले की सघन जांच एवं वैदिक की गिरफ्तारी की मांग की. अन्य विपक्षी दलों ने भी निशाना साधा एवं आपत्तियां दर्ज की. सरकार ने इस मामले में अपना पल्ला झाड़ लिया है.

राज्य सभा में सरकार की ओर से जवाब देते हुए अरूण जेटली ने कहा कि इस मुलाकात से सरकार को कोई लेना-देना नहीं है. अगर कोई पत्रकार किसी से स्वयं होकर मिलता है तो इसमें कुछ नहीं किया जा सकता. न्यूज चैनलों ने वैदिक से इस घटना पर बातचीत की तथा लाइव कवरेज किया. कुल मिलाकर कई घंटे यह बहस का विषय बना रहा और शायद कुछ दिन और बना रहेगा.

वैदिक नि:संदेह प्रखर पत्रकार हैं, चिंतक व लेखक भी. लेकिन वे बड़बोले हैं. आत्मस्तुति उनका प्रिय शगल है. जब भी उन्हें चैनलों एवं सार्वजनिक सभाओं में बात करने का मौका मिलता है, वे आत्मप्रचार के अपने हथियार खूब तराशते हैं, उसकी धार तेज करते रहते हैं. वे यह बताने से नही चूकते कि उनका कितने बड़े-बड़े राजनयिकों, राष्ट्राध्यक्षों से संबंध हैं तथा एक पत्रकार के रूप में उनका कैसा रूतबा है.

14 जुलाई को स्टार न्यूज के साथ इंटरव्यू में भी उन्होंने कोई मौका नहीं छोड़ा. हाफिज सईद से मुलाकात पर विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, नरसिंह राव, मनमोहन सिंह सहित विदेशी राष्ट्र प्रमुखों के साथ अपने सम्पर्कों एवं मुलाकातों का हवाला दिया. विदेश मामलों में विशेषज्ञता का दावा करने वाले वैदिक यह भी बताने से नहीं चूके कि पूर्ववर्ती सरकारें उनसे विदेशी मसलों पर विचार-विमर्श करती रही हैं.

संभव है, वैदिक की सभी बातें ठीक हो, उनमें अतिशयोक्ति न हो. वे वरिष्ठ हैं, ज्ञानी हैं इसमें क्या शक? लेकिन आत्म-श्लाघा किसलिए? क्या यह व्यक्तिगत कमजोरी है या कोई विकार? बहरहाल इस फेर में न पड़कर यह सोचने की जरूरत है कि हाफिज सईद से मुलाकात करने का औचित्य क्या था? जो भारत के खिलाफ जहर उगलता हो, भारत के टुकड़े-टुकड़े चाहता हो, जो कुख्यात अन्तरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठन का संचालक हो और जिसकी अमेरिका को भी तलाश हो, ऐसे व्यक्ति से एक भारतीय पत्रकार की मुलाकात को किस नजर से देखा जाना चाहिए?

वैदिक कहते हैं कि उन पर किसी का अंकुश नहीं है, वे स्वतंत्र हैं और पत्रकार की हैसियत से वे किसी से भी मिल सकते हैं. हाफिज से उनकी भेंट पत्रकार के रूप में हुई थी. इसके पहले भी वे अतिवादियों, माओवादियों, नक्सलियों से इसी हैसियत से मिलते रहे हैं? इसलिए हाफिज मामले को तूल देने का औचित्य क्या है? वैदिक के ये तर्क पेशेगत इमानदारी की कसौटी पर ठीक हो सकते हैं पर विचार करने की जरूरत है, क्या ऐसा कृत्य राष्ट्रीयता के दायरे में है? क्या इससे देश का कोई भला होने वाला है? क्या पत्रकारिता का धर्म राष्ट्रधर्म से बड़ा है? क्या वह सईद से मुलाकात के बगैर पूरा नहीं होता? क्या हाफिज जैसे आतंकवादियों का इंटरव्यू करके हम उनका सम्मान नहीं कर रहे हैं?

बातचीत में, जैसा खुलासा हुआ है कि हाफिज सईद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संभावित पाकिस्तान दौरे के समय उनका स्वागत करना चाहता है? ऐसा आतंकवादी जिसने मुम्बई ब्लास्ट में सैकड़ों की जानें ली हों, जो संसद पर हमले के लिए जिम्मेदार हो, जो भारत में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देता रहा हो, वह भारतीय प्रधानमंत्री का स्वागत करे? अचरज, हैरानी व दु:खद है. वैदिक के जरिए अपनी बातों को भारत तक पहुंचाने का हाफिज का तरीका कितना कामयाब रहा बताने की जरूरत नहीं. यह अफसोस की बात है कि वैदिक उसके माध्यम बन गए. अब यह मामला क्या शक्ल लेगा, गर्म रहेगा या ठंडा पड़ जाएगा? भविष्य की बात है.

वैदिक कहते हैं कि हाफिज से हुई बातचीत का एक-एक शब्द छपेगा. उन्होंने नोट्स लिए हैं, इंटरव्यू टेप नहीं हुआ है. इसका मतलब है वैदिक जो कुछ लिखेंगे, भरोसा करना होगा. चूंकि इस मामले में अब राजनीति भी शुरू हो गई है, इसलिए इंकार के बावजूद संभव है केन्द्र सरकार कुछ पहल करे, कुछ निर्देश जारी करे. चूंकि मीडिया स्वअनुशासित है, स्वतंत्र है, जिम्मेदार है और जनता के प्रति जवाबदेह भी लिहाजा उसे ज्यादा गंभीरता पूर्वक सोचने की जरूरत है कि उसे राष्ट्रधर्म व पत्रकारिता के धर्म के निर्वहन में किस तरह संतुलन एवं संयम बरतना चाहिए.
* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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