कोरबाछत्तीसगढ़

होली में सुनाई नहीं देता दे दे बुलउवा राधे को

कोरबा | अब्दुल असलम: फाल्गुन माह शुरू हुए कई दिन हो चुके है. पर कहीं फाग गीत नहीं गूंज रहे है. फाल्गुन माह आते ही पलाश खिलने लगते हैं, नगाड़े की थाम और फागुनी गीतों की गूंज लोगों को आनंदित कर देती है. चारों ओर फाग गवैयों का मस्ती भरा शोर , स्वस्थ पारंपरिक गीत लोगों के उत्साह को दोगुना कर देते हैं. पर समय के साथ- साथ फाग गीतों की परंपरा विलुप्त होती जा रही है.

हालांकि शहर में 1-2 मंडली इस परंपरा को जीवित रखने की कवायद में जुटी है. फाल्गुन माह आते ही जगह-जगह फाग गीतों के लिए अलग से व्यवस्था की जाती थी. शाम ढलते ही नगाड़ों की शोर लोगों को घर से निकलने के लिए विवश कर देती थी और साथ मिल बैठ कर स्वस्थ परांपरिक गीतों की महफिल जमती थी. पर अब न वह टोली दिखती और न ही ऐसे नगाड़ा व ढोलक वादक .

फगुआ गायन में विशेषकर चौपाल , अर्ध तीन ताल, दादरा, कहरवा और अर्ध तीन ताल का अलग ही आनंद रहता है. जब वादक द्रुत गति से ढोलक पर अपनी अंगुली और हथेली चलाते है तो लोग बरबस ही झूमने पर मजबूर हो जाते है. इस परंपरा को अगर संरक्षित न किया गया तो यह भविष्य में केवल इतिहास बनकर रह जाएगा.

युवाओं में परंपरा निर्वहन की जिम्मेदारी

उत्साही युवाओं , बुजुर्गो की टोलियां पूरे माहभर अलग-अलग स्थानों में मंडली जमाकर लोगों को फाग के आने का संदेश देती थी. बीते कुछ सालों से आधुनिकता से समृद्ध परंपरा को लील लिया है. फाग गीतों की मधुर संस्कृतिक परंपरा भी उनमें से एक है.

बुजुर्ग बताते है कि 60-70 के दशक में शहर के कई स्थानों पर फाग गाने वालों की महफिल सजती थी लेकिन वक्त के साथ-साथ महफिलों की संख्या कम होने लगी है. वर्तमान में एक-दो स्थानों में ही फाग गाए जा रहे है. आधुनिकता की चका चौंध और बाजारवादी संस्कृति की वजह से गायकी की परंपरा अब सिमट कर रह गई है. हालांकि अभी भी कुछ लोग इस समृद्ध परंपरा को जीवित रखें हुए है. आने वाले समय में यह परंपरा लुप्त हो सकती है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!