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अदूरदर्शी वित्तीय कदम

मार्च 2017 तक बैकों का एनपीए बढ़कर 8 खरब रुपये हो गया. मार्च 2014 में यह आंकड़ा 2.6 खरब रुपये का था. यह बढ़ोतरी तब है जब 2.4 खरब रुपये के कर्ज को उदारतापूर्वक राइट आॅफ किया गया है. वित्त मंत्रालय का दावा है कि 2016 के मई में लागू किया गया इन्साॅल्वेंसी ऐंड बैंकरप्शी कोड और एफआरडीआई विधेयक, 2017 बैंकों और वित्तीय संस्थाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा और संकट में फंसे कर्ज की समस्या का समाधान भी होगा.

एफआरडीआई विधेयक में यह प्रावधान है कि एक ताकतवर वित्तीय निपटान प्राधिकरण का गठन हो. इसमें वित्तीय संस्थाओं के नाकाम होने के मसलों का निपटान होगा. यह इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्शी बोर्ड से अलग होगा. यह बोर्ड निजी क्षेत्र के फंसे कर्जों की वसूली के लिए बना था. लेकिन नई प्रस्तावित संस्था वित्तीय और बैंकिंग संकट को रोकने का काम करेगी. वह सही समय पर संकटग्रस्त संस्था की पहचान करके उसे बाहर करने में मदद करेगी. लेकिन इसके बावजूद कई ऐसी वजहें जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि नई संस्था समाधान के बजाए कई परेशानियों को जन्म देगी.

नई व्यवस्था में ‘बेल-इन’ और ब्रिज सर्विस प्रोवाइडर का प्रावधान है. दरअसल, यह अवधारणा जी-20 के वित्तीय स्थिरता बोर्ड से निकली है. ये बेसल-3 बैंकिंग मानकों के अनुकूल हैं. इसके तहत व्यवस्थागत महत्वपूर्ण बैंकों को अधिक पूंजी अनुपात बनाए रखना अनिवार्य है. इन व्यवस्थाओं का मकसद यह है कि जैसे 2007-08 के आर्थिक संकट के दौर में बैंक दिवालिया हुआ थे, वैसी स्थिति अब नहीं आ पाए. हालांकि, उस संकट और उसकी प्रतिक्रिया में जो किया गया था, वह भारतीय वित्तीय तंत्र के लिए बहुत प्रासंगिक नहीं है. भारत में सरकारी बैंकों का दबदबा है. रिजर्व बैंक ने भी कहा है कि सरकारी बैंकों के प्रभावशाली होने की वजह से भारत उस संकट से बचा रहा.

एफआरडीआई विधेयक में सरकारी बैंकों के कर्ज निपटान की प्रक्रिया में सरकार द्वारा दी जाने वाली गारंटी के प्रावधान को कमजोर किया गया है. इस विधेयक के तहत सरकार और रिजर्व बैंक को यह अधिकार दिया गया है कि संकटग्रस्त सरकारी बैंकों या अन्य वित्तीय संस्थाओं को संकट से निकालने का काम वह अपने हाथ में ले सकें. इसके लिए एक निपटान निगम बनाया जाएगा. यह संस्था बेल इन जैसे प्रावधानों को लागू कर सकेगी. इसके तहत देनदारियों और असुरक्षित बैंक जमा को शेयर में बदला जा सकेगा और उससे पूंजी जुटाने की कोशिश होगी. ऐसे में बैंक रन यानी भारी संख्या में लोगों का बैंक पहुंचकर पैसा निकालने की कोशिश करने की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता. इस प्रावधान से जमाकर्ताओं में अविश्वास का माहौल बना और अगर यह लागू होता है तो वित्तीय अस्थिरता की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता.

जी-20 के बोर्ड के अधिकांश सदस्य देशों ने अपने यहां ऐसी संस्था नहीं बनाई जैसी संस्था भारत में बनाने का प्रावधान है. दूसरी संस्थाओं जैसे रिजर्व बैंक, बीमा नियमन एवं विकास प्राधिकरण, सेबी और पीएफआरडीए जैसी संस्थाओं की सुनवाई की शक्तियां इसी संस्था के पास चली जाएंगी. वित्तीय स्थिरता बनाए रखने के लिए रिजर्व बैंक को जो शक्तियां दी गई हैं उनसे इस संस्था का टकराव होने का जोखिम बना रहेगा.

अस्थिरता इस वजह से भी बढ़ी है कि एफआरडीआई विधेयक में इस बात का जिक्र नहीं है कि जमा रकम पर सरकारी गारंटी की अधिकतम सीमा क्या होगी. जबकि मौजूदा गारंटी नियमों को खत्म करने का इसमें जिक्र है. अभी एक लाख रुपये तक के जमा रकम की गारंटी सरकार लेती है. यह सीमा 24 साल पहले तय की गई थी. साफ है कि इसे संशोधित करना बेहद जरूरी है.

सरकार को लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल है. इसके बावजूद वित्तीय क्षेत्र को प्रभावित करने वाले इस विधेयक को बहुमत के बूते पारित कराने की कोशिश सरकार को नहीं करनी चाहिए. वित्तीय कानूनों के सुधार के लिए बने आयोग की सिफारिशों पर यह विधेयक आधारित है. इसमें इस बात की वकालत की गई है सरकारी बैंकों को निजी बैंकों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी होगी लेकिन इसमें इसके लिए कोई प्रावधान नहीं है कि सरकारी स्वामित्व की वजह से बैंकों को होने वाली दिक्कतों का समाधान कैसे होगा. सरकारी बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाओं को मिलने वाली सरकारी गारंटी के प्रावधान को कमजोर करने से इनका जोखिम और बढ़ेगा.

सरकार के लिए यह एक दूरदर्शिता वाला काम होगा कि नई संस्था के गठन को फिलहाल रोक दिया जाए. कम से कम तब तक जब तक फंसे हुए कर्जों का निपटान न हो जाए. इसके बदले सरकार को भारतीय परिस्थितियों के हिसाब से इन समस्याओं को निपटाने का तरीका खोजना चाहिए.
1960 से प्रकाशित इकॉमानिक एंड पॉलिटिकल विकली के नये अंक का संपादकीय

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