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प्रेम, बलात्कार और उम्र

सुनील

बलात्कार व महिलाओं पर अत्याचार संबंधी कानूनों में प्रस्तावित संशोधनों को लेकर देश में बहस छिड़ गयी है. इसमें एक संशोधन को विरोध के बाद सरकार ने फिलहाल टाल दिया है. वह है यौन संबंध के लिए लड़की की सहमति की उम्र को 18 से घटा कर 16 करना. लोगों को लगा कि ऐसा करके सरकार छोटी उम्र में यौनाचार और यौन-स्वच्छंदता को इजाजत और बढ़ावा देने का काम कर रही है. लेकिन यह विरोध कुछ हद तक गलतफहमी पर आधारित है.

वर्तमान में कानून की स्थिति इस प्रकार है- यदि शादी के बगैर किसी नाबालिग लड़की (18 साल से कम उम्र) के साथ कोई भी पुरुष शारीरिक संबंध स्थापित करता है और इसके बारे में लड़की के माता-पिता या अन्य परिजन थाने में रपट लिखाते हैं, तो उसे बलात्कार माना जाता है. भले ही संबंध उस लड़की की सहमति से हुआ हो, लड़की इस बात को कहे, तो भी उस को बलात्कार ही माना जाता है.

इसके पीछे तर्क यह है कि वह लड़की नाबालिग है और सहमति देने के लिए परिपक्व नहीं है तथा यह सहमति उसे बहला-फुसला-डरा कर ली जा सकती है. इसलिए उसकी सहमति के कोई मायने नहीं हैं.

लेकिन इसका नतीजा क्या हो रहा है? कई बार लड़का-लड़की भाग जाते हैं, माता-पिता थाने में रपट लिखाते हैं, उनको पकड़ कर वापस लाया जाता है, लड़की को मार-पीट कर घर में कैद कर दिया जाता है, और लड़के को बलात्कार के जुर्म में जेल में डाल दिया जाता है.

लड़की लाख कहे कि वह लड़के से प्रेम करती है और अपनी इच्छा से उसके साथ गयी थी, कानून में उसकी बात नहीं सुनी जाती है, क्योंकि वह नाबालिग है. नाबालिगों का प्यार करना व शारीरिक संबंध स्थापित करना सही है या गलत, यह एक अलग सवाल है. लेकिन जो बलात्कार नहीं है और परस्पर सहमति से स्थापित संबंध को बलात्कार की श्रेणी में डालना अनुचित ही नहीं, बल्कि अन्याय भी है. हमें प्यार और बलात्कार में फर्क करना ही होगा.

1989 में मुङो होशंगाबाद जेल में 100 दिन रहने का मौका मिला था. उसके बाद भी कुछ-कुछ दिनों के लिए जेल जाने का अवसर आया. मुङो जेल में कई ऐसे लड़के मिले, जो प्यार के चक्कर में धारा 376 (बलात्कार की धारा) में जेल में सड़ रहे थे.

बलात्कार का कानून कठोर होने के कारण इसमें जमानत भी आसानी से नहीं होती है. अब यदि सरकार इसको और कठोर बना रही है, तब तो इस विसंगति को दूर करने की ज्यादा जरूरत है. जो बलात्कारी नहीं है, उसे इस तरह बलात्कार के जुर्म में सजा दी जायेगी, तो जो वास्तव में बलात्कार होते हैं, उनके बारे में भी एक भ्रम फैलता है. लोगों को लगता है कि वह भी शायद ऐसा ही सहमति का मामला होगा. कानून के गलत उपयोग से कानून की विश्वसनीयता कम होती है.

यह ठीक है कि कम उम्र में लड़के-लड़कियों द्वारा शारीरिक संबंध बनाना अच्छी बात नहीं है. उनके बीच में दोस्ती और मेलजोल हो, लेकिन वे पढ़े-लिखें, समझदार बनें, अपने पैरों पर खड़ें हों और तब अपने जीवन साथी के बारे में फैसला करें, तो ही बेहतर है. कम उम्र में, तात्कालिक आवेग में, लिये गये फैसले गलत और दुखदायी हो सकते हैं. लेकिन इसके लिए समाज में वैसा माहौल, मर्यादाएं और परंपराएं बनानी होगी.

यह भी जरूरी है कि जिस तरह के अश्लील, कामुक व कामोत्तेजक विज्ञापन, साहित्य, टीवी धारावाहिक, फिल्मी दृश्य, इंटरनेट सामग्री प्रचलन में हैं, उन पर रोक लगे. बच्चों को अच्छे संस्कार दिये जायें. फिर भी ऐसा होता है, तो उस पर बलात्कार का कानून लगाना कहां तक उचित है? फिर तो हम हरियाणा की खाप पंचायतों और तालिबानी समाज जैसा काम कर रहे हैं.

अमेरिका और यूरोप के पश्चिमी समाजों में जो यौन स्वच्छंदता है, उसका भी समर्थन नहीं किया जा सकता. वहां पर शारीरिक संबंधों को बहुत हल्के ढंग से लिया जाता है. वह एक भोगप्रधान संस्कृति है. हम उसके भी दुष्परिणाम देख रहे हैं. कुछ अराजकतावादी और नारीवादी अब परिवार नाम की संस्था को ही खत्म करना चाहते हैं.

यह सही है कि परिवार के वर्तमान ढांचे में काफी गैरबराबरी, शोषण और घुटन है. इन दोषों को दूर करके एक नया ढांचा बनाने की जरूरत है. खास कर बच्चों के लालन-पालन के लिए (और बुजुर्गों की देखभाल के लिए भी) परिवार की जरूरत है और रहेगी. आंगनबाड़ियों, झूलाघरों और वृद्घाश्रमों की पर्याप्त व्यवस्था समाज करे, तो भी शायद वे परिवार का पूरा विकल्प कभी नहीं बन पायेंगे.

पश्चिमी समाज में बार-बार तलाक आम बात है. इसका बच्चों पर असर पड़ता है. लेकिन इससे उलट भारत में कई बार पति-पत्नी में बिल्कुल नहीं बनती, या पत्नी पर अत्याचार होता है, तो भी वह सहती रहती है. ऐसे में तलाक लेकर नया जीवन शुरू करना अच्छा है. यदि परिवार रूपी संस्था को बचाना है, तो उसमें शोषण और विषमता को दूर करने के उपाय करने होंगे.

अक्सर परिवार की पूरी जिम्मेवारी बहू पर ही आती है. पहले छोटी उम्र में विवाह होने पर वह स्वयं को ससुराल के मुताबिक ढाल लेती थी. लेकिन अब बड़ी उम्र में विवाह होने तक उसके अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व, स्वभाव, पसंद-नापसंद आदि का विकास हो चुका होता है. इसलिए सामंजस्य का पूरा बोझ उसी पर डालना, और कहना कि औरतें घर तोड़ती हैं, अन्याय है.

दूसरी ओर यह भी सही है कि परिवार को चलाने के लिए सभी सदस्यों को दूसरों के साथ कुछ न कुछ तो सामंजस्य बिठाना होगा. आधुनिक युग में पैसे, स्वार्थ और व्यक्तिवाद का बोलबाला बढ़ रहा है तथा सामूहिकता की भावना कम हो रही है, यह परिवारों के टूटने का एक बड़ा कारण और चिंता का विषय है. इसीलिए कई बार प्रेम विवाह भी टूट जाते हैं.

भारतीय परंपरा और पश्चिमी संस्कृति, दोनों के दोषों को दूर करके एक नया समाज गढ़ने की जरूरत है. यह पितृसत्तात्मक न हो, बराबरी पर आधारित हो, ज्यादा खुला हो, ज्यादा सामूहिक हो. यह शुद्घ भोगवादी और भौतिकवादी न हो और इसमें बहुत बंधन भी न हो. प्यार-मोहब्बत में कोई हर्ज नहीं है, यदि उसके साथ संयम व जिम्मेवारी का एहसास हम बच्चों को दे सकें. शादियां दोनों तरह की हो सकती हैं- खुद साथी चुननेवाली और मां-बाप द्वारा तय की गयी. लेकिन अब चूंकि बड़ी उम्र में शादियां हो रही हैं, मां-बाप भी बच्चों की राय और पसंद को मानें.

फिर भी यदि बच्चों द्वारा कुछ गलत हो जाये, तो उसे बलात्कार के कानून में न फंसाएं. समाजवादी विचारक डॉ राममनोहर लोहिया ने काफी पहले कहा था कि- ‘स्त्री-पुरुष संबंधों में बलात्कार और विश्वासघात ये दो ही अक्षम्य अपराध हैं.’ बाकी के बारे में हम ज्यादा खुला और सहनशील रवैया अपना सकते हैं.

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