कलारचना

‘हजार चौरासी की मां’ का निधन

कोलकता | समाचार डेस्क: ‘हजार चौरासी की मां’ महाश्वेता देवी का कोलकाता में निधन हो गया है. हां, उन्हे इस नाम से भी जाना जाता था. नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर उनकी लिखी किताब ‘हजार चौरासी की मां’ पर 1998 में गोविन्द निहलानी तथा मनमोहन शेट्टी ने किया ता जिसे सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. दरअसल महाश्वेता देवी की किताब की कहानी के अनुसार 1084 नंबर का शव एक नक्सली का था जो पुलिस मुठभेड़ में मारा जाता है.

लंबे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी… बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी के ये शब्द जनजातीय समाज के प्रति उनके प्रेम की झलक पेश करते हैं.

उन्होंने अपना पूरा जीवन भारतीय जनजातीय समाज को समर्पित कर दिया और अपने लेखन की धार से उनके जीवन के हर संघर्ष, हर पीड़ा और हर मनोदशा को जीवंत किया.

24 जनवरी, 1926 को अविभाजित भारत के ढाका में जन्मीं इस महान लेखिका को पारिवारिक माहौल में ही साहित्य और सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव की घुट्टी मिली. उनके पिता मनीष घटक एक प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार थे. उनकी मां धारित्री देवी भी एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं.

उनके उपन्यासों के पात्र और कथाएं भी बंगाल के संभ्रांत समाज से नहीं उपजे, बल्कि बिहार और झारखंड के आदिवासी समाज से आए थे.

महाश्वेता देवी ने बिहार, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के जनजातीय इलाकों में सक्रियता से काम किया. वह दलितों, आदिवासियों और स्त्री अधिकारों के लिए निरंतर, अथक और आजीवन लड़ती रहीं और उनके लिए समाज में न्याय की गुहार लगाती रहीं.

उन्होंने पश्चिम बंगाल की दो जनजातियों ‘लोधास’ और ‘शबर’ के लिए विशेष रूप से काफी काम किया. इन संघर्षो के दौरान महाश्वेता देवी ने पीड़ा के स्वरों को बहुत करीब से सुना और महसूस किया है.

उन्होंने अपनी कहानियों में बागदी (बाढ़), डोम (बायेन), पाखमारा (शाम सवेरे की मां) उरांव (शिकार) गंजू (बीज), माल अथवा ओझा (बेहुला), संथाल (द्रौपदी), दु:साध (मूल अधिकार और भिखारी दुसाध) जैसी जनजातियों की जीवनरेखा का ताना-बाना बुना.

जहां कई मशहूर लेखकों ने अपने लेखन में भावनाओं को प्रगाढ़ता से बुना, वहीं महाश्वेता देवी ने तथ्य आधारित शैली अपनाते हुए ऊंची जाति के जमींदारों, साहूकारों और सरकारी सेवकों के हाथों प्रताड़ित आदिवासियों की पीड़ाओं को चित्रित किया.

एक लेखिका, साहित्यकार और आंदोलनकर्ता के रूप में उन्होंने समाज में भरपूर योगदान दिया. ‘झांसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है. बकौल उनके शब्दों में इसी कृति ने उन्हें यह अहसास कराया कि वह कथाकार ही बनना चाहती हैं.

इस कृति में उन्होंने भारत की वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का ही सजीव चित्रण नहीं किया, बल्कि क्रांति की मशाल थामने वाले तमाम वीरों को नमन किया है.

नक्सली आंदोलन को बयां करते 1975 में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘हजार चौरासी की मां’ ने अपार ख्याति बटोरी थी. उनके इसी उपन्यास पर आधारित एक फिल्म ‘हजार चौरासी की मां’ भी बनाई गई. हिंदी सिनेमा की मशहूर अभिनेत्री जया बच्चन ने अपनी फिल्म ‘सिलसिला’ के बाद इसी फिल्म से फिल्म जगत में वापसी की थी.

वहीं उनके एक अन्य उपन्यास ‘रुदाली’ पर भी एक मार्मिक फिल्म ‘रुदाली’ बनाई गई, जिसमें समाज के एक अन्य विभत्स रूप को पेश किया गया. इनके अलावा उनके उपन्यासों ‘माटी माय’ और ‘गणगौर’ पर भी फिल्में बनीं.

उनकी कुछ महशूर कृतियों में ‘अग्निगर्भ’ ‘मातृछवि’, ‘नटी’, ‘जंगल के दावेदार’ आदि शामिल हैं. उन्होंने सौ से भी अधिक उपन्यासों को कलमबद्ध किया और उनके लघु कहानियों के बीस से भी अधिक संग्रह प्रकाशित हुए. लघुकथाओं में उनकी प्रसिद्ध रचनाएं ‘मीलू के लिए’ और ‘मास्टर साब’ हैं.

अपनी सटीक लेखन शैली में समाज के पिछड़ी जनजातियों के दर्द को उजागर करने और अपने लेखन कौशल के जरिए सामाजिक सरोकारों को शब्द देने के उनके प्रयास के लिए उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया.

वर्ष 1979 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया, 1996 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया, 1986 में पद्मश्री से सम्मानित की हुईं और 2006 में उन्हें पद्म विभूषण प्रदान किया गया.

अपने जीवन काल में ही अपने बेटे को खो देने का दारुण दुख सहकर भी समाज के सरोकारों के लिए चट्टान सी अडिग खड़ी, अपनी पीड़ा को भूलकर हाशिये पर खड़े लोगों की पीड़ा मिटाने के प्रयास में ही अपनी राहत ढूंढ़ते जनजातीय समाज के संघर्षो की मशाल थामने वाली महाश्वेता ने गुरुवार को अंतिम सांस ली और इस मशाल को यूं ही जलाए रखने का जज्बा छोड़ गईं.

रंमन का शोक संदेश
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने पद्मश्री तथा पद्म विभूषण सम्मान और ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त सुप्रसिद्ध लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी के निधन पर गहरा दुःख व्यक्त किया है. डॉ. सिंह ने आज यहां जारी शोक संदेश में कहा है कि श्रीमती महाश्वेता देवी के निधन से भारतीय साहित्य जगत और बांग्ला साहित्य के एक सुनहरे युग का अंत हो गया है.

मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने शोक संदेश में कहा – महाश्वेता देवी ने अपने सुदीर्घ साहित्यिक जीवन में ‘ अग्निगर्भ’, ‘झांसी की रानी’ और ‘अग्निशिखा’ जैसे लगभग एक सौ कालजयी उपन्यासों तथा मानवीय संवेदनाओं पर आधारित कई सर्वश्रेष्ठ कहानियों, लघु कथाओं और अन्य रचनाओं के जरिए देश और समाज को सही दिशा देने का प्रयास किया. बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के ग्रामीण तथा आदिवासी जन-जीवन का भी उन्होंने गहरा अध्ययन किया था.

उल्लेखनीय है कि महाश्वेता देवी को वर्ष 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, वर्ष 1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार, वर्ष 1986 में पद्मश्री और वर्ष 2006 में पद्म विभूषण सम्मान से नवाजा गया था. वर्ष 1977 में उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘मेग्सेसे पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था. उनकी साहित्यिक रचनाओं पर ‘गणगोर’ तथा ‘रूदाली’ जैसी लोकप्रिय फिल्में भी बनी.

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