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मातृत्व अवकाश के नाम पर

सरकार के दो अलग-अलग निर्णय भेदभाव का संकेत दे रहे हैं.ऐसे समय में जब श्रम कानूनों में सुधार करके श्रमिकों के अधिकार छीने जा रहे हों तब इस साल पारित हुआ मातृत्व लाभ संशोधन कानून, 2017 स्वागत योग्य लगता है. मातृत्व लाभ कानून, 1961 में संशोधन करके केंद्र सरकार ने अब महिलाओं को 12 हफ्ते के बजाए 26 हफ्ते का मातृत्व अवकाश देने का प्रावधान किया है. इस दौरान पूरी पगार मिलती रहेगी और यह सुविधा दो बच्चों के जन्म तक मिलेगी. ये और अन्य दूसरे संशोधन सराहनीय हैं.

समस्या यह है कि ये बदलाव इतने व्यापक नहीं हैं कि इससे सभी जरूरतमंदों को लाभ मिल सके. ये संशोधन अपना प्रभाव दिखाते उसके पहले ही केंद्रीय कैबिनेट ने मातृत्व लाभ कार्यक्रम में बदलाव कर दिया. इससे बड़ी संख्या में लाभार्थी इसके दायरे से बाहर हो गए. इससे यही लगता है कि सरकार एक हाथ से दे रही है तो दूसरे हाथ से ले रही है. हालिया बदलाव महिला श्रमिकों के अलग-अलग वर्गों के बीच भी भेद करने वाला है.

कानून में जो बदलाव हुआ उसके दायरे में संगठित क्षेत्र में काम करने वाली तकरीबन 18 लाख महिलाएं आएंगी. यह उन सभी संगठनों पर लागू होगा जहां 10 से अधिक लोग काम करते हों. जिन संगठनों में 50 लोग काम करते हों या जहां 30 महिलाएं काम करती हों, वहां या तो परिसर में या 500 मीटर के दायरे में एक क्रेच बनाना अनिवार्य होगा. महिलाओं को यह अधिकार होगा कि वे दिन में चार बार के्रेच में जा सकें.

अगर काम की प्रकृति इसकी अनुमति देता हो तो प्रसव के बाद महिलाओं को घर से काम करने की भी छूट मिल सकती है. यह छूट छुट्टियां खत्म होने के बाद की अवधि में मिलेगी. इसके लिए नियोक्ता की सहमति अनिवार्य है. सरोगेट माताओं और तीन महीने से कम उम्र के बच्चों को गोद लेने वाली महिलाओं को भी 12 हफ्ते की पेड छुट्टी का प्रावधान भी कानून में है. दुनिया भर में हुए शोध और अनुभव बताते हैं कि ऐसे प्रावधानों से शिशु मृत्यु दर में कमी आती है और स्तनपान बढ़ने से बच्चों को अच्छा पोषण मिल पाता है. साथ ही नई माताओं को तनाव का सामना करने में भी मदद मिलती है.

भारत में महिला रोजगार को लेकर जो स्थिति है, उसमें हर ऐसे कदम को संदेह की नजरों से देखा जाता है. यहां यह सवाल उठाया गया कि नए प्रावधानों की वजह से जो आर्थिक बोझ नियोक्ताओं पर पड़ेगा, उससे बचने के लिए वे महिलाओं को रोजगार देने से बचने की राह पर चल पड़ेंगे. आशंका यह व्यक्त की जा रही है कि या तो यह कानून ठीक से लागू नहीं हो पाएगा या निजी क्षेत्र के मझोले नियोक्ता महिलाओं को रोजगार देना बंद कर देंगे.

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अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने बताया है कि 2005 से महिला श्रमिकों की भागीदारी में 10 फीसदी की कमी आई है. हालांकि, कुछ लोगों को यह उम्मीद है कि इस कानून के जरिए दी जा रही सुविधाओं की वजह से महिलाओं के काम छोड़ने के मामलों में कमी आएगी.

इस कानून का दूसरा पक्ष यह है कि इसके दायरे में 90 से 97 फीसदी वे महिलाएं नहीं आतीं जो असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं. ये महिलाएं या तो घरेलू श्रमिक के तौर पर काम कर रही हैं या खेतों में. इस संशोधन में पितृत्व अवकाश को भी दरकिनार किया गया है. जबकि केंद्र सरकार के कर्मचारियों को 15 दिनों का पितृत्व अवकाश मिलता है और इसका चलन दिनोंदिन निजी क्षेत्र में भी बढ़ रहा है. इसकी उपेक्षा करने से वही पुरानी बात स्थापित होती है कि बच्चों का पालन-पोषण पूरी तरह से महिलाओं का काम है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 दिसंबर, 2016 को यह घोषणा की थी कि मातृत्व लाभ कार्यक्रम के तहत महिलाओं को दी जाने वाली रकम को बढ़ाकर 6,000 कर दिया जाएगा. लेकिन हाल ही में केंद्रीय कैबिनेट ने इस कार्यक्रम को घटाकर सिर्फ एक बच्चे के जन्म तक सीमित कर दिया. यह कार्यक्रम इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना के नाम से 2010 से चल रही थी. कई सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि मातृत्व सहयोग कार्यक्रम भेदभावपूर्ण है.

कैबिनेट ने उन मांगों पर भी कोई निर्णय नहीं लिया जिनमें दो बच्चों की नीति और शादी की उम्र जैसे मसलों पर संशोधन की बात की जा रही थी. जब यह मांग चल रही हो कि मातृत्व सहयोग कार्यक्रम के तहत हर महिला की मदद की जा सके तब इसे एक बच्चे के जन्म तक सीमित कर देना अच्छा फैसला नहीं है.

भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मातृत्व लाभ देना एक दोधारी तलवार रही है. इन लाभों को देते वक्त यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इसका दुरुपयोग महिलाओं को रोजगार में आने से रोकने में न हो. साथ ही इसका दायरा बढ़ाकर इसमें असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए.

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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