विविध

औचित्य और सिद्धांत

नगालैंड की राजनीति में न कोई स्थायी दुश्मन है और न ही कोई स्थायी दोस्त. 27 फरवरी को जब नगालैंड में मतदान होगा तो यह लड़ाई सिर्फ पार्टियों की नहीं होगी बल्कि संघर्ष औचित्य और सिद्धांत के बीच भी होगा. 29 जनवरी को 11 राजनीतिक दलों ने एक समझौता करके चुनावों का तब तक बहिष्कार करने का निर्णय लिया जब तक केंद्र सरकार और नगाओं के बीच इस समाज के भविष्य को लेकर कोई समझौता न हो. लेकिन कुछ ही दिनों में ये बहिष्कार खत्म होता चला गया. भारतीय जनता पार्टी ने भी इस समझौते पर दस्तखत किया था लेकिन इनके साथ दूसरी पार्टियां भी चुनाव मैदान में उतर गईं. कोई यह जोखिम नहीं लेना चाहता कि वे न लड़ें और दूसरी पार्टी चुनाव जीत जाए. 1998 में ऐसा हुआ था. उस वक्त कांग्रेस जिस भी सीट पर लड़ी, सब जीत गई.

नगालैंड में गठबंधन राजनीति वैसी है जैसे देश में कहीं और नहीं है. अभी नगालैंड विधानसभा के सभी 60 विधायक सत्ताधारी डेमोक्रेटिक अलायंस आॅफ नगालैंड के हैं. इस मोर्चे की अगुवाई नगा पीपल्स फ्रंट कर रही है. कोई विपक्ष वहां नहीं है. भाजपा एक दशक से अधिक से एनपीएफ की साझीदार रही है. यह अजीब है लेकिन सच है कि नगालैंड में भाजपा और कांग्रेस एक ही गठबंधन के हिस्से रहे हैं. लेकिन इस बार चुनावों के पहले भाजपा ने एनपीएफ से अलग हुए नैशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोगेसिव पार्टी के साथ गठबंधन की घोषणा की. इसका गठन पूर्व मुख्यमंत्री नेइफियू रिओ ने किया. इसके बावजूद मौजूदा मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग ने कहा है कि चुनावों के बाद भाजपा से गठबंधन करने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं है. इसका मतलब यह हुआ कि वहां दो क्षेत्रीय पार्टियां हैं और दोनों एक राष्ट्रीय पार्टी के साझेदार हैं. वहीं वहां दो राष्ट्रीय पार्टियों की समान सहयोगी एक ही क्षेत्रीय पार्टी है.

इस अजीब स्थिति की व्याख्या यह है कि प्रदेश में जो भी पार्टी जीतती है, वक केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के साथ दिखना चाहती है. दशकों से नगालैंड में यह परीपाटी चलती आ रही है. उत्तर पूर्व के दूसरे राज्यों की तरह नगालैंड भी पूरी तरह से केंद्र से मिलने वाले पैसों पर निर्भर है. ऐसे में कोई भी सरकार केंद्र की सत्ताधारी पार्टी को नाराज नहीं करना चाहती.

इससे यहां की राजनीति का तो पता चलता है लेकिन यह पता नहीं चलता है कि केंद्र की सत्ताधारी पार्टी से अलग विचारधारा वाली पार्टियां भी क्यों उसके साथ हैं. नगालैंड में असली विपक्ष सिविल सोसाइटी और चर्च हैं. शक्तिशाली माने जाने वाले नगालैंड बापटिस्ट चर्च काउंसिल ने नगाओं को यह सलाह दी है कि विकास और राजनीतिक फायदे के लिए हमें अपने धर्म से समझौता नहीं करना चाहि और भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडे से हमें चिंतित होना चाहिए. धर्म की राजनीति करने वाली भाजपा ने इस पर यह कहा है कि कुछ लोगों नगालैंड की राजनीति को धर्म आधारित बनाना चाहते हैं. हालांकि, भाजपा के सभी 20 उम्मीदवार ईसाई या नगा हैं. देखना होगा कि चर्च के बयान का कितना असर यहां पड़ता है.

बहिष्कार का प्रस्ताव नगालैंड की राजनीतिक स्थिति से जुड़ा हुआ है. 1963 में अलग राज्य का दर्जा मिलने के बावजूद अलग नगा राष्ट्र की बात खत्म नहीं हुई. कई बार विद्रोही समूहों और केंद्र सरकार के बीच संघर्ष विराम के समझौते हुए लेकिन संघर्ष नहीं थमा. अगस्त, 2015 में नगालैंड के सबसे बड़े विद्रोही समूह नैशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल आॅफ नगालैंड इसाक मुइवा और केंद्र सरकार एक सहमति पत्र पर तैयार हुए. इसके बाद नगालैंड में अमन की उम्मीद जगी. लेकिन इस समझौते को लेकर अब तक रहस्य बना हुआ है. इसी पृष्ठभूमि में नगालैंड के सिविल सोसाइटी समूहों, विद्रोही समूहों और राजनीतिक दलों ने चुनावों को टालने की मांग की थी.

इन चुनावों के नतीजों से समाधान की कोई उम्मीद नहीं जगती. पैसे की कोई कमी नहीं होने के बावजूद नगालैंड विकास के मामले में काफी पिछड़ा हुआ है. खास तौर पर सड़क निर्माण के क्षेत्र में. प्रदेश के पढ़े-लिखे युवाओं को रोजगार नहीं मिल रहा. यहां के लोगों को विद्रोही समूहों को अप्रत्यक्ष कर देना पड़ रहा है. लेकिन उन्हें न तो इन समूहों से कोई राहत मिल रही है और न ही केंद्र सरकार से. सारे फायदे कुछ रसूखदार राजनीतिक लोगों के बीच सीमित हैं.

इन सबके बीच नगालैंड की सिविल सोसाइटी उम्मीदें जगाती है. इसके सदस्यों ने राजनीति में भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया और साफ-सुथरे चुनाव के लिए अभियान चलाया. पिछले साल नगा महिलाओं के समूह ने स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण का मसला उठाया था. 33 फीसदी आरक्षण की मांग में वे नाकाम रहीं. लेकिन उन्होंने इस मसले पर अपने परंपरावादी समाज में महिलाओं की बराबरी के मसले पर बहस की शुरुआत करने में कामयाबी हासिल की. इन चुनावों में सिर्फ पांच महिलाएं उतरी हैं. राज्य विधानसभा के लिए कभी कोई महिला नहीं चुनी गई. 1963 के बाद सिर्फ एक महिला सांसद यहां चुनी गई है. सिविल सोसाइटी समूह इस मसले को उठा रहे हैं. यही राज्य की राजनीतिक स्थिति का असली उदाहरण है न कि चुनावों के नाम पर कुछ साल के अंतराल पर चलने वाला नाटक.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के ताजा संपादकीय का अनुवाद

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