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पत्थलगड़ी पर सियासत

दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ में रमन सरकार की तीसरी कार्यकाल जो आगामी नवंबर में पूरा हो जाएगा, राजनीतिक झंझवतों से घिरा रहा है. जिन चुनौतियों का सामना पार्टी एवं सरकार को इस बार करना पड़ रहा है. वैसी चुनौतियां पिछले चुनाव के दौरान भी मौजूद थी किन्तु वे इतनी उग्र नहीं थी. सत्ता विरोधी लहर के तेज प्रवाह के साथ-साथ प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस का पुर्नजीवित होना, उसके धारदार हमले, संगठन की सक्रियता, नेताओं व कार्यकर्ताओं की एकजुटता तो अपनी जगह है ही, बड़ी वजह है विभिन्न मोर्चों पर राज्य सरकार की नाकामी एवं जन असंतोष का विस्फोट.

कम से कम गत दो वर्षों से सत्ता एवं संगठन को विभिन्न जनआंदोलनों का सामना करना पड़ा है जिन्हें ऐन-केन प्रकारेण दबाने में सरकार को सफलता जरुर मिली लेकिन राख के नीचे चिंगारियां धधकती रही है. चाहे आंदोलन लंबे समय से संविलियन के लिए संघर्ष कर रहे शिक्षा कर्मियों का हो या फिर किसानों, मजदूरों, बेरोजगार युवाओं एवं आदिवासियों का जिन्हें अपने हक के लिए शहरों एवं राजधानी की सड़कों पर बार-बार उतरना पड़ा है. समाधान किसी मोर्चे पर नहीं है.

हालांकि आत्ममुग्धता की शिकार राज्य सरकार विकास के घर-घर पहुंचने का दावा करती है, जनकल्याणकारी नीतियों के सफल क्रियान्वयन का राग अलापती है तथा अपनी पीठ खुद ही थपथपाती है पर यह सच्चाई किसी से छिपी नहीं है कि सरकार बेअसर है, नौकरशाही बेलगाम है, जल, जंगल, जमीन की लूट बेधड़क जारी है, संगठित भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं है तथा अधिकांश मंत्री अयोग्य, नाकारा व असंवेदनशील है जिन्हें न तो जनता से कोई मतलब है और न ही अपने कार्यकर्ताओं से. इसीलिए पार्टी कार्यकर्ताओं का असंतोष व आक्रोश भी चरम पर है जो सत्ता की बेरुखी, उपेक्षा एवं अपनी कोई निश्चित भूमिका न होने से मर्माहत है तथा जिसकी अभिव्यक्ति संगठन के बड़े नेताओं की मौजूदगी में हुई बैठकों में कई बार हो चुकी है.

सत्ता एवं संगठन दोनों चिंता में है. हालांकि दावा किया जा रहा है कि राज्य सरकार की कल्याणकारी नीतियों का यथेष्ट प्रभाव मतदाताओं पर है तथा वे नवंबर 2018 में होने वाले राज्य विधानसभा चुनाव में पार्टी को सरकार बनाने फिर एक मौका देंगे जो कि निरंतरता के क्रम में चौथा होगा. लेकिन इस खुशफहमी के बावजूद भाजपा नेतृत्व बेहतर जानता है कि इस बार के चुनाव उसके लिए बेहद कठिन होंगे. एक तो कांग्रेस की चुनौती बड़ी है दूसरे इस बार राजनीतिक समीकरण भी बदले हुए हैं. अजीत जोगी के नेतृत्ववाली छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस तीसरी शक्ति के रुप में चुनाव में उतरने वाली है. भाजपा संगठन यह भलीभांति जानता है कि जोगी की मौजूदगी भले ही कांग्रेस के प्रतिबद्ध वोटों में सेंध लगाए पर यह भी सच है कि उससे भाजपा के वोट भी बंटेंगे. अनुसूचित जाति, जनजाति के मतदाताओं पर जोगी का खासा प्रभाव है.

पार्टी इसी बात से चिंतित है कि मौजूदा समय में अनुसूचित जाति की सीटों पर वह अपने वर्चस्व को कैसे बचाए रखें. वर्तमान में इस वर्ग के लिए आरक्षित दस में से 9 सीटें भाजपा के कब्जे में है. इन 9 सीटों पर उसका पुन: चुनाव जीतना लगभग नामुमकिन है. यानी इस वर्ग से भाजपा की सीटें घटना तय है. यह इसलिए भी क्योंकि व्यवस्था के खिलाफ जनविरोध लगातार तेज होता जा रहा है. यदि इसे रोकने के प्रयत्न नहीं हुए तो जाहिर है उसे शिकस्त हाथ लगेगी. इसलिए सत्ता व संगठन का समूचा ध्यान सरकार के पक्ष में वातावरण बनाने, विकास कार्यों को तीव्र करने, जनता को उसका अहसास कराने तथा जन संगठनों की जायज मांगों पर त्वरित निर्णय लेने में है. इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि चुनाव आचार संहिता लागू होने से पूर्व सरकार कुछ ऐसे कदम उठा सकती है जो उसकी दृष्टि से सत्ता कायम रखने लाभकारी सिद्ध होंगे.

लेकिन किस्सा कुछ और भी हो सकता है. दरअसल आदिवासी जमात के असंतोष को दबाए रखना सरकार एवं पार्टी के लिए मुश्किल हो रहा है. वैसे भी पिछले चुनाव में आदिवासी वोटरों ने भाजपा के पक्ष में मतदान नहीं किया था. राज्य की 90 सीटों में से 29 आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित है. वर्ष 2013 के चुनाव में भाजपा को इनमें से मात्र 11 सीटें मिली थी जबकि कांगे्रस को 18. बस्तर संभाग तो भाजपा से लगभग खाली हो गया था. इस क्षेत्र की 12 में से 8 सीटें कांग्रेस ने जीती थी. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भाजपा का फोकस आदिवासी वोटरों पर है. उन्हें लुभाने हर तरह की कोशिशें की जा रही है. पार्टी एवं सरकार के जितने भी बड़े अभियान इस दौरान हुए हैं, उनकी शुरुआत बस्तर से हुई है. चाहे सरकार की योजनाओं के श्रीगणेश का मामला हो या लोक सुराज अभियान. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी कई बार बस्तर में आकर सभाएं कर चुके हैं.

अभी हाल ही में, 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दंतेवाड़ा जिले के गांव जांगला में जनसभा ली तथा इसके साथ ही कई योजनाओं की शुरुआत भी की जिसमें आदिवासियों को चरण पादुका के वितरण का कार्यकम भी शामिल था. मंच पर विराजमान प्रधानमंत्री ने अपने स्थान से उठकर स्वयं आदिवासी महिला रत्नी बाई को चप्पल पहनाई. इसका यदि सकारात्मक अर्थ भी निकालें तो भी एक संदेश साफ है कि भाजपा आदिवासी मतदाताओं को हर सूरत में लुभाना चाहती है. यह अलग बात है कि जल, जंगल एवं जमीन के सवाल पर आदिवासियों का आक्रोश फूटता रहा है. उनके बड़े आंदोलनों में से भू-राजस्व संहिता कानून में संशोधन का मामला रहा है, जिसके खिलाफ आदिवासी लामबंद हुए थे तथा उनके संगठनों में इसका पुरजोर विरोध किया था.

विवश होकर सरकार को अंतत: इससे संबंधित विधेयक वापस लेना पड़ा. इसके पूर्व भी आदिवासी नेतृत्व के सवाल पर भाजपा के अंदरुनी खानों में तेज हलचल होती रही है. सरकार की बागडोर, किसी आदिवासी नेता को सौंपने मांग भी समय समय पर तेज हुई पर अंतत: दबा दी गई. पूर्व मंत्री एवं वरिष्ठ आदिवासी नेता नंदकुमार साय असंतुष्टों का प्रतिनिधित्व करते हैं. फिलहाल वे शांत है तथा वर्तमान में राष्ट्रीय जनजाति आयोग के अध्यक्ष भी. वे काफी मुखर माने जाते हैं. स्पष्टवादी हैं तथा पार्टी के मामलों पर खुलकर अपनी राय व्यक्त करते रहे हैं. आदिवासियों की उस नई मुहिम पत्थलगड़ी आंदोलन का उन्होंने समर्थन किया है जो सरकार के एवं संगठन के लिए एक नया सिरदर्द बन गई है.

वैचारिक धरातल पर भले ही वे कितने उथले ही क्यों न हो, शोषण के खिलाफ संघर्ष का ताजातरीन अभियान है पत्थलगड़ी आंदोलन. इसकी शुरुआत आदिवासी बाहुल्य सरगुजा संभाग के जशपुर जिले के कुछ दर्जन गांवों से हुई. 22 अप्रैल 2018 को बगीचा विकासखंड के बादलखोल अभ्यारण्य के जंगल क्षेत्र के गांव कालिया, बुटंगा और बच्छरांव में सीमा दर्शाने वाले मोड़ पर ग्रामीणों द्वारा पत्थर गाड़े गए जिसमें यह इबारत अंकित की गई कि इन गांवों में संविधान में उल्लेखित 5वीं अनुसूची की धाराएं लागू है लिहाजा न्यायिक फैसलों के लिए ग्राम सभा ही सर्वोच्च व अधिकार संपन्न है. चूंकि जल, जंगल व जमीन पर गांव के लोगों का ही अधिकार है अत: ग्राम सभा की अनुमति के बगैर कोई भी गांव के संसाधनों का उपयोग नहीं कर सकता.

शिलालेख पर यह भी अंकित किया गया कि ग्रामसभा की अनुमति के बिना बाहर के व्यक्ति का गांव में प्रवेश वर्जित है. शिलालेख पर संबंधित कुछ प्रावधानों का गलत ढंग से भी व्याख्या किए जाने की बात कही गई है. बहरहाल इस आंदोलन से सरकार के कान खड़े हो गए. आनन-फानन में पत्थरों को गिरा दिया गया और एक नए राजनीतिक विवाद की शुरुआत हो गई. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह इस आंदोलन के पीछे धर्मांतरण को बढ़ावा देने वाले लोगों की साजिश करार देते हैं. संभवत: उनका संकेत राज्य में सक्रिय इसाई मिशनारियों की ओर हो सकता है. वैसे भी छत्तीसगढ़ में आदिवासियों का धर्मांतरण कोई नया मुद्दा नहीं है.

धर्मांतरित आदिवासियों की हिन्दू धर्म में वापसी भी कोई नई बात नहीं है. पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं राज्य के ताकतवर भाजपा नेता स्वर्गीय दिलीप सिंह जूदेव हिन्दू धर्म में वापसी के प्रणेता रहे हैं. बहरहाल पत्थलगड़ी आंदोलन को सख्ती से रोका जाना तय है पर राजनीतिक दृष्टि से पार्टी को होने वाले नुकसान से इंकार नहीं किया जा सकता. इससे कांग्रेस की आक्रामकता को नई धार मिल गई है. सरकार एवं पार्टी को घेरने उसे चुनाव के पूर्व एक नया मुद्दा हाथ लग गया है. आरोप-प्रत्यारोप के साथ-साथ प्रशासिनक कार्रवाई का दौर भी शुरु है. पत्थलगड़ी मामले में एक पूर्व आईएएस एच.पी. किन्डो एवं ओ.एन.जी.सी. के पूर्व अधिकारी जोसेफ तिग्गा गिरफ्तारी के बाद पुलिस को इस मामले में करीब चार दर्जन लोगों की तलाश है.

बहरहाल पत्थलगड़ी आंदोलन एकाएक क्यों उभरा, किसने इसे हवा दी, उसके पीछे कोई राजनीतिक साजिश तो नहीं आदि बहुतेरे प्रश्न खड़े हो गए हैं जिनका उत्तर समय के साथ मिलेगा ही पर इससे भाजपा की नींद हराम हो गई है. आदिवासियों का इस तरह एकजुट होना, उनका आंदोलन, व्यवस्था के खिलाफ जबर्दस्त आक्रोश, जंग का संकेत है जो चुनाव में भाजपा की संभावनाओं को प्रभावित कर सकता है. आदिवासी वोटों को साधने सरकार व संगठन के पुरजोर कोशिशों पर यह कड़ा प्रहार है.

उसके लिए चिंता की बात यह भी है कि कांग्रेस ने भी आदिवासी क्षेत्रों में अपनी पैठ बढ़ा रखी है तथा वोटों के एक साझीदार के रुप में छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस भी मौजूद है जो अपने नेता अजीत जोगी के नेतृत्व में पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ने जा रही है. बस्तर तथा सरगुजा संभाग जोगी के भी फोकस में है. स्वयं के आदिवासी होने के टेग जिस पर बरसों से लंबा विवाद चला आ रहा है, के साथ वे भी आदिवासियों का विश्वास अर्जित करने घनघोर प्रयास कर रहे हैं.

बहरहाल अभी यह नहीं कहा जा सकता कि मुख्यमंत्री ने पत्थलगड़ी के पीछे धर्मांतरण को बढ़ावा देने वाली ताकतों की ओर इशारा करके इसाई समुदाय के लोगों को नाराज कर दिया है. राज्य में इस समुदाय के लोगों की संख्या करीब पांच लाख है. सरगुजा संभाग में कई सीटें ऐसी हैं जहां इनकी अच्छी खासी आबादी है. कुनकुरी, पत्थलगांव व लुंड्रा में इस समुदाय का दबदबा है. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि अजीत जोगी को मिशनरियों का पूरा समर्थन प्राप्त होता रहा है. चूंकि वे अब अलग पार्टी लेकर मैदान में है लिहाजा मिशनरियां उनके समर्थन में आदिवासी वोटों को प्रलोभित कर सकती है.

उनकी इस संभावित मुहिम को भाजपा के प्रति नाराजगी के रुप में देखा जा सकता है. यानी पत्थलगड़ी आंदोलन छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के लिए राजनीतिक दृष्टि से लाभकारी सिद्ध हो सकता है. आदिवासी वोटों का यदि इस तरह धुवीकरण होगा तो उम्मीद की जा सकती है कि छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस का सरगुजा संभाग में खाता खुलेगा. वैसे कांगे्रस व छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस की जांच कमेटियों ने जो रिपोर्ट दी है उसके अनुसार मूलभूत सुविधाओं का अभाव पत्थलगड़ी आंदोलन का एक बड़ा कारण है. इसीलिए आदिवासियों का सरकार पर से भरोसा उठ गया है तथा वे अपना अधिकार चाहते हैं.

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