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रिजर्व बैंक का पराभव

प्रभात पटनायक
मुद्दा यह नहीं है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने इस देश की मेहनतकश जनता पर पूरी तरह से बुद्धिहीन तथा पूरी तरह से दमनकारी नोटबंदी थोपी है. इसके बजाए मुद्दा यह है कि इस मामले में उसका शायद ही कोई दखल था. अगर उसने दो-टूक तरीके से अपनी राय रखी होती, फिर चाहे यह राय नोटबंदी के पक्ष में होती या विपक्ष में और उसने भले ही नोटबंदी का विरोध किया होता और अंतत: देश की कार्यपालिका के संविधान द्वारा निर्धारित दर्जे का सम्मान करते हुए, आखिर में उसकी बात मान ली होती, तो वह उतना हंसी का पात्र न बनता, जितना अब बना है.

स्वायत्तता के बिना भी स्वतंत्र रुख होना जरूरी
बेशक, रिजर्व बैंक इन मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से अपना रुख जाहिर नहीं कर सकता था. फिर भी अगर उसने इस मामले में कोई स्वतंत्र रुख अपनाया होता तो कानों-कान इसकी खबर देशभर को लग गयी होती और ऐसे लोग भी उसका सम्मान करते, जो उसके रुख से सहमत भी नहीं होते. रिजर्व बैंक अगर आज हंसी का पात्र बना है तो कोई अपने विचारों की वजह से नहीं बना है, जोकि ऐसा लगता है कि कहीं थे ही नहीं. वह हंसी का पात्र इसलिए बना है कि उसने बड़ी तत्परता से खुद को सिर्फ सरकार के अनुयाई में बदल दिया है.

बेशक, दुनिया भर में जनतांत्रिक जनमत केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता के खिलाफ रहा है और उचित ही उसके खिलाफ रहा है. इसकी वजह यह है कि इस स्वायत्तता का सामान्यत: मतलब यही होता कि अंतर्राष्ट्रारीय वित्तीय पूंजी को स्वीकार्य किसी व्यक्ति को देश के केंद्रीय बैंक का सर्वेसर्वा बना दिया जाता और वह देश की निर्वाचित सरकार की प्राथमिकताओं को पूरी तरह से अनदेखा करते हुए, वित्तीय पूंजी की मांगों के अनुरूप आर्थिक नीतियां लागू करता रहता. चूंकि किसी जनतांत्रिक व्यवस्था में निर्वाचित सरकार के विचार की राय को, नियुक्तिशुदा केंद्रीय बैंक गवर्नर की राय के ऊपर रखा जाना चाहिए, केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता बुनियादी तौर पर एक अलोकतांत्रिक अवधारणा है.

फिर भी, रिजर्व बैंक की स्वायत्तता की इस सारी बहस के पीछे एक पूर्व-धारणा काम कर रही होती है कि केंद्रीय बैंक के कोई अपने स्वतंत्र विचार होंगे और बहस का नुक्ता यह है कि उसके इन विचारों की चलनी चाहिए या नहीं? लेकिन, दुर्भाग्य से हमारे केंद्रीय बैंक को ऐसे किन्हीं उल्लेख करने लायक स्वतंत्र विचारों के लिए जाना ही नहीं जाता है.

इसलिए, केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता का विरोध करने का अर्थ, उसके अपने स्वतंत्र विचार रखने का ही विरोध करना हर्गिज नहीं है. उल्टे जब जनतांत्रिक व्यवस्था की अंतिम सत्ता यानी सीधे जनता से चुनकर आनेवाली विधायिका द्वारा किसी मामले में कार्यपालिका तथा केंद्रीय बैंक, दोनों के विचारों की छान-बीन की जाएगी, केंद्रीय बैंक का अगर कोई स्पष्ट तथा स्वतंत्र विचार ही नहीं होगा तो यह, इस तरह की जनतांत्रिक छान-बीन में बाधक ही बन जाएगा. ऐसी सूरत में यह बिल्कुल मुमकिन है कि किसी निर्णय के गलत साबित होने की सूरत में कार्यपालिका तथा रिजर्व बैंक, दोनों एक-दूसरे पर दोष डालने की कोशिश करें और इस तरह दोनों ही गलती के लिए ठोस जवाबदेही से बच निकलें.

इसलिए, जनतांत्रिक काम-काज के लिए जरूरी है कि केंद्रीय बैंक की एक स्पष्ट तथा स्वतंत्र रूप से बनायी गयी राय हो और इसके बावजूद उसे उस तरह की स्वायत्तता हासिल न हो, जिसकी मांग नवउदारवाद करता है. संक्षेप में जनतांत्रिक काम-काज दोनों का ही तकाजा करता है: केंद्रीय बैंक को स्वायत्तता हासिल न हो, और वह सोच की स्वतंत्रता रखता हो.

रिजर्व बैंक की दयनीय दशा
बहरहाल, भारतीय रिजर्व बैंक ने महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार की इस स्वतंत्रता का ही प्रदर्शन नहीं किया है. और यह दिखाने की कोशिश में कि उसे शुरू से ही सब कुछ बताया जा रहा था, उसने खुद को सामान्यत: जो होता उससे भी ज्यादा हंसी का पात्र बना लिया है. मैं इसके सिर्फ चार उदारहरण देना चाहूंगा कि किस तरह रिजर्व बैंक ने अपनी दशा बहुत ही दयनीय कर ली है और इसके चलते उसके अपने कर्मचारियों तक को इसकी मांग उठानी पड़ी है कि रिजर्व बैंक, अपनी वैध जिम्मेदारियां पूरी करने के मामले में अपना कुछ जोर दिखाए.

|| बेशक, तानाशाही संस्थाओं की राख पर ही फलती-फूलती है और इसलिए अगर मोदी सरकार एक संस्था के रूप में भारतीय रिजर्व बैंक को ही नष्ट करने की कोशिश कर रही है, तो वह अपने स्वभाव के अनुसार ही काम कर रही है. त्रासदायक यह है कि रिजर्व बैंक के अधिकारियों की ओर से, वे जिस संस्था के धनी-धौरी हैं, उसे ही नष्ट किए जाने पर रत्तीभर प्रतिरोध दिखाई नहीं दिया है. नोटबंदी की बेतुकी महागाथा के साथ ही साथ, इस देश की जनता को एक के बाद संस्थाओं का सुविचारिक ध्वंस देखना पड़ रहा है. भारतीय रिजर्व बैंक, इन संस्थाओं की सूची में ताजातरीन नाम है. ||

पहला उदाहरण तो इसी तथ्य में छुपा हुआ है कि भारतीय रिजर्व बैंक के बोर्ड की जिस पूर्ण बैठक ने नोटबंदी के कदम का अनुमोदन किया था, प्रधानमंत्री मोदी के उक्त कदम की टेलीविजन पर घोषणा करने से सिर्फ तीन घंटे पहले हुई थी. संक्षेप में यह की बोर्ड की उक्त बैठक तो सिर्फ रस्म-अदायगी थी. वैसे भी रिजर्व बैंक के बोर्ड में फिलहाल मुख्यत: सरकारी प्रतिनिधि ही रह गए हैं. बोर्ड की अन्य कई जगहें इस सरकार की सोची-समझी ढिलाई के चलते, खाली ही पड़ी हुई हैं. इस तरह रिजर्व बैंक का शीर्ष निकाय, रिजर्व बैंक के अधिकार क्षेत्र में पड़ने वाले विषयों में सरकार द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों पर रबर का ठप्पा लगाने भर का साधन बनकर रह गया है. इतना ही नहीं सरकार भी उसकी यही हैसियत समझती है, वर्ना मोदी ने उसके बोर्ड की बैठक से सिर्फ तीन घंटे बाद का समय टेलीविजन प्रसारण के लिए नहीं रखवाया होता. जाहिर है कि बैठक के फैसले का उन्हें पहले से पता था.

बेशक, अगर सरकार रिजर्व बैंक बोर्ड में गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति को लटकाए रखती है, तो इसके लिए रिजर्व बैंक के शीर्ष अधिकारियों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. लेकिन, इस तरह की भी तो कोई खबर नहीं है कि रिजर्व बैंक के शीर्ष अधिकारियों ने सरकार से इसका आग्रह किया हो कि बोर्ड के सदस्यों की संख्या पूरी की जानी चाहिए.

दूसरा उदाहरण, नोटबंदी के फैसले पर इस समय विचार कर रही संसदीय कमेटी के सामने रिजर्व बैंक द्वारा प्रस्तुत किया बताया जा रहा जवाब है. इसमें दावा किया गया है कि इस कदम पर सरकार तथा रिजर्व बैंक के बीच परस्पर परामर्श चलता रहा था तथा अंतत: सहमति हो गयी थी. लेकिन, इसमें नोटबंदी के फैसले के पीछे जो मुख्य मकसद बताया गया है, सरकार की ओर से रेखांकित किए जाते रहे इसी के कारणों से बहुत ही भिन्न है. रिजर्व बैंक के जवाब में जाली मुद्रा को इस कदम का पीछे मुख्य उद्देश्य बताया गया है, जबकि सरकार चलते-चलाते जाली मुद्रा का जिक्र भले ही करती रही हो, पर बराबर उसका मुख्य जोर इसी पर रहा है कि नोटबंदी ‘‘काले धन’’ पर हमला है.

दोनों के रुख में इस अंतर के अलावा भी एक सवाल उठता है. जाली मुद्रा का कुल मूल्य बहुत ही थोड़ा है, इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट के अध्ययन के अनुसार (जिसकी प्रामाणिकता को रिजर्व बैंक ने भी चुनौती नहीं दी है) यह कुल 400 करोड़ रुपये होगा यानी मुद्रा के कुल मूल्य के सिर्फ 0.22 फीसद के बराबर. तब इस समस्या से निपटने के लिए, कुल मुद्रा के 86 फीसद की नोटबंदी करने जैसे हथौड़ामार कदम के उठाए जाने की क्या जरूरत थी?

इसके अलावा, अगर जाली मुद्रा से निपटना ही मकसद था तो हठात (वास्तव में मोदी के एलान के चार घंटा बाद से ही) नोटबंदी किया जाना क्यों जरूरी था, जिसकी वजह से जनता को भारी कष्ट उठाना पड़ा. और आखिरी बात यह कि अगर जाली मुद्रा से निपटना ही मकसद था तो क्या वजह है कि सरकार बार-बार यह कहती रही है कि वह, समूची बंद की गयी मुद्रा की जगह, उतने ही मूल्य के नये नोट नहीं लाने जा रही है, लेकिन रिजर्व बैंक ने इस रुख से एक बार फिर असहमति नहीं जतायी है. इसके पक्ष में सरकार की दलील यही है कि नकदी में इस तरह की कमी, लोगों को नकदरहित लेन-देन की ओर धकेलेगी. लेकिन, अगर भारतीय रिजर्व बैंक को वाकई जाली मुद्रा की ही चिंता थी, न कि लोगों को नकदीरहित लेन-देन की ओर धकेलने की, तो उसके नकदी की ऐसी कमी के लिए राजी होने की कोई वजह नहीं बनती थी? साफ है कि इस पूरे ही मुद्दे पर रिजर्व बैंक की घोषणाओं की कोई विश्वसनीयता नहीं है.

झूठ का सहारा
तीसरी उदाहरण, रिजर्व बैंक के वरिष्ठतम डिप्टी गवर्नर, गांधी के बयान से संबंधित है, जिसकी खबर 12 जनवरी को वायर ने दी थी. टेलीविजन पर एक सीधे प्रसारित संवाददाता सम्मेलन में गांधी ने यह दावा किया था कि 10 नवंबर से 5 दिसंबर के बीच, रिजर्व बैंक ने कम मूल्य के यानी 100 रुपये, 50 रुपये, 20 रुपये तथा 10 रुपये के 19.1 अरब नोटों की आपूर्ति की थी जो कि, ‘‘पिछले पूरे तीन साल में रिजर्व बैंक ने जनता को जितने नोट दिए थे उससे ज्यादा था.’’ यह बयान अपने आप में बिल्कुल बेतुका था क्योंकि जैसाकि वायर की उक्त रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है 2013-14, 2014-15 तथा 2015-16 की तीन वर्ष की अवधि के दौरान रिजर्व बैंक ने कम मूल्य के ऐसे 50.2 अरब नोट जारी किए थे. जैसाकि वायर की रिपोर्ट स्पष्ट रूप से साबित करती है, गांधी का दावा जाहिर है कि झूठा था.

वास्तव में रिजर्व बैंक ने गांधी के व्याख्यान के हिस्से के तौर पर शुरू में इस दावे को अपनी वैबसाइट पर प्रकाशित भी किया था, लेकिन बाद में मूल भाषण की जगह पर जब संपादित भाषण वैबसाइट पर डाला गया, इस अंश को निकाल दिया गया. गांधी एक झूठ का सहारा लेकर यही दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि रिजर्व बैंक को नोटबंदी के चलते जनता को हुई तकलीफों की चिंता है और उसकी इन तकलीफों को दूर करने के लिए पूरी तैयारी है. रिजर्व बैंक के पतन का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसके वरिष्ठतम अधिकारी तथ्यों के मामले में भी झूठ का सहारा लेने के लिए तैयार हैं.

चौथे उदाहरण का संबंध इस तथ्य से है कि कर्मचारियों के संगठन के अनुसार इस समय वित्त मंत्रालय का एक संयुक्त सचिव, रिजर्व बैंक में मुद्रा प्रबंधन में तालमेल की जिम्मेदारी संभाल रहा है. जब रिजर्व बैंक ने बंदशुदा नोटों के काफी बड़े हिस्से के बैंकिंग व्यवस्था में लौट आने का आंकड़ा पेश किया था (यह आंकड़ा आखिकार, 97 फीसद निकला है), वित्त मंत्रालय के नौकरशाहों ने रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर सवाल उठाए थे. वित्त मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव का मुद्रा प्रबंधन के तालमेल के लिए लगाया जाना, अगर वह वाकई इस काम को करने जा रहा है तो, मौजूदा रिजर्व बैंक के पूरी तरह से रीढ़विहीन हो जाने को ही दिखाता है. और अगर इसका अर्थ रिजर्व बैंक के स्तर पर फर्जी आंकड़े तैयार किया जाना है, तब तो यह मामला और भी बदतर होने का सबूत है.

तानाशाही और संस्थाओं का विनाश
इन सारे उदाहरणों को जोडक़र देखा जाए तो ये उस संस्था के मौजूदा हालात की बहुत ही दयनीय तस्वीर पेश करते हैं, जो आठ दशक से ज्यादा से चल रही है और जिसकी बागडोर संभालने वालों में भारत के कुछ सबसे प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री शामिल रहे हैं. बेशक, तानाशाही संस्थाओं की राख पर ही फलती-फूलती है और इसलिए अगर मोदी सरकार एक संस्था के रूप में भारतीय रिजर्व बैंक को ही नष्ट करने की कोशिश कर रही है, तो वह अपने स्वभाव के अनुसार ही काम कर रही है. त्रासदायक यह है कि रिजर्व बैंक के अधिकारियों की ओर से, वे जिस संस्था के धनी-धौरी हैं, उसे ही नष्ट किए जाने पर रत्तीभर प्रतिरोध दिखाई नहीं दिया है. नोटबंदी की बेतुकी महागाथा के साथ ही साथ, इस देश की जनता को एक के बाद संस्थाओं का सुविचारिक ध्वंस देखना पड़ रहा है. भारतीय रिजर्व बैंक, इन संस्थाओं की सूची में ताजातरीन नाम है.

(प्रस्तुत लेख में विचार लेखक के निजी हैं.)

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