इतिहास

प्रवीरचन्द्र भंजदेव: एक विवादित मसीहा

राजीव रंजन प्रसाद

फरसपाल के पास एक गाँव! एक बुजुर्ग व्यक्ति से बस्तर के अतीत पर जानकारियाँ जुटा रहा था और रह रह कर मेरी निगाह उसकी झोपडी के एक कोने में मिट्टी की दीवार पर टंगे फोटोफ्रेम पर जा रही थी। यह महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव और महारानी वेदवती के विवाह के समय की तस्वीर है, जिसे दशहरे के अवसर पर जगदलपुर की फुटपाथ से अथवा बस्तर में अवस्थित किसी भी मंदिर के बाहर सजी दुकानों से खरीदा जा सकता है। कोण्डागाँव से ले कर कोण्टा तक यह तस्वीर मुझे अनेको घरों में आवश्यक उपस्थिति की तरह जान पड़ी। यह राजतंत्र नहीं है और भारत अपने गणतंत्र होने के पैंसठ वसंत देख चुका है। फिर प्रवीर में ऐसा कौन सा चुम्बक तत्व है जो आदिवासी जनमानस को आज भी खींचता है अपनी ओर? राजनीतिक हत्या के पश्चात वे अप्रासंगिक क्यों नहीं हुए.

प्रवीर के जीवन और उनके कशमकश पर चर्चा करने से पहले उस संदर्भ पर बात करते हैं, जो प्रवीर होने के मायने बताता है। कितने आश्चर्य की लोकप्रियता थी कि उनके निधन के बाद बस्तर में उनके कम से सोलह कल्पित अवतार हुए।

उनका पहला अवतार था घुमरी कुडुक जो प्रवीर की तरह दिखता था। अपने बीस साथियों के साथ बस्तर में घूमता हुआ वह राशन इकट्ठा करता था। यह नाटक उसकी गिरफ्तारी के साथ समाप्त हुआ।

वर्ष -1971 में बाबा बिहारीदास प्रकट हुए। उनके प्रवीर होने के उसके दावे की पुष्टि खुसरू और बाली नाम के दो भतरा कार्यकर्ताओं ने की जो पहले भी प्रवीर के साथ काम कर चुके थे। बाबा के काले रंग के लिये यह तर्क दिया गया कि गोलियों की बौछार सहने के कारण प्रवीर का रंग काला पड़ गया है।

उनके अनुयाईयों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। बाबा को कंठी वाले बाबा या गुरु महाराज कह कर संबोधित किया जाता था। बाबा ने अपने अनुयाईयों को सलाह दी कि वे माँस खाना और शराब पीना छोड़ दें तथा तुलसी की माला, जिसे कंठी कहा गया, धारण करें। बिहारीदास के इस धर्मप्रचार और तथाकथित सुधारवादी आन्दोलन को अप्रत्याशित लोकप्रियता मिली। इस तथ्य को वाद, पंथ और अंजाम से तौले बिना अगर देखा जाये तो इसकी स्वीकार्यता का पैमाना बहुत विशाल था, लगभग सम्पूर्ण बस्तर।

इसके लिये बाबा बिहारी ने वीर के बाद की उस शून्यता का इस्तेमाल किया जिसमें आदिवासी स्वयं को नेतृत्वविहीन तथा असहाय समझ रहे थे। ब्रम्हदेव शर्मा जो उन दिनों कलेक्टर थे, इस धार्मिक आन्दोलन को तोड़ने के लिये मुखर दिखे। ठीक दशहरे से पहले ब्रम्हदेव शर्मा ने बाबा बिहारीदास को बस्तर से जिलाबदर कर दिया था।

बाबा ने अपनी लोकप्रियता भुनाई; तत्कालीन मुख्यमंत्री के दखल पर वे वापस लौटे और इसके बाद ब्रम्हदेव शर्मा का स्थानांतरण कर दिया गया। बिहारी दास के प्रभाव का मूल्यांकन इस बात से भी किया जा सकता है कि वर्ष 1972 में विधानसभा चुनाव हुए; बाबा ने कांग्रेस के पक्ष में प्रचार किया।

बिहारीदास ने चित्रकोट, बकावंड, कोंड़ागाँव, दंतेवाड़ा, केशकाल, नारायनपुर और जगदलपुर विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार किया। इन सभी सीटों पर कांग्रेस वर्ष-1967 का चुनाव हार गयी थी; अप्रत्याशित रूप से इस बार सभी सीटों पर कांग्रेस की जीत हुई। वर्ष-1975 में उसे मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया। वर्ष-1981 में एक आदिवासी लड़की से बलात्कार के जुर्म में वह गिरफ्तार हुआ। इसके बाद बाबा बिहारीदास का पतन हो गया।

यह कहना गलत नहीं होगा कि जिन सीटों पर कांग्रेस 1975 का चुनाव जीत सकी, वह बिहारीदास के नहीं अपितु प्रवीर के कारण था। प्रवीर के निधन के बाद उनके ही नाम की प्रतिछाया के राजनीतिक इस्तेमाल ने इस चुनाव ने बस्तर में उस पार्टी के प्रवेश द्वार खोले, जो अब तक इसलिये कुंठित हो चुकी थी कि यहाँ से महाराजा के नाम पर किसी अनजान की भी दावेदारी हो तो भी उसका विधानसभा में पहुँचना तय माना जाता था। प्रवीर में कुछ ऐसा अवश्य था, जो उन्हें विलक्षण बनाता था। ऐसा कह कर मैं उनके व्यक्तित्व में अंतर्निहित सामंतवादी सोच और व्यवहार को छुपाने की चेष्टा नहीं कर रहा।

महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी तथा प्रफुल्ल चन्द्र भंजदेव की द्वितीय संतान प्रवीरचन्द्र भंजदेव का जन्म शिलांग में 12.6.1929 को हुआ था। उनका लालन पालन जिस माहौल में हुआ, उसने प्रवीर में एक किस्म की अक्खड़ता भर दी थी। अंग्रेजों द्वारा कर्नल जे सी ग्रिबसन को इनका संरक्षक नियुक्त किया गया था, प्रवीर ने खाने-पीने जैसी मामूली बात पर उन पर हाँथ उठा दिया था।

ग्रिबसन की शिकायत पर पॉलिटिकल एजेंट ने मामला मेडिकल काउंसिल को भेजा जिसने प्रवीर को पागल घोषित किया था। यद्यपि इस कहानी में दूसरा पहलू भी है; इस घटना में एक पात्र और भी है पेलेस सेक्रेटरी- गौरीदत्त जोशी।

ग्रिबसन कुछ दिनों की छुट्टी पर गया हुआ था और उसकी अनुपस्थिति में गौरीदत्त जोशी ने प्रवीर और उनके भाई बहनों की देखभाल की थी। तब पहली बार बच्चों ने भारतीय भोजन जैसे दाल, मठा, कढ़ी, पूड़ी जैसे व्यंजनों को चखा था।

ग्रिबसन के लौटने पर बच्चों ने इसी तरह के भोजन की माँग सामने रखी तो उसने इनकार कर दिया। इतना ही नहीं ग्रिबसन ने राजकुमार को न केवल डाँटा बल्कि गालियाँ भी दीं, यही उसका स्वभाव था। इस पर उत्तेजित हो कर प्रवीर ने ग्रिबसन के गाल पर तमाचा जड़ दिया। यह घटना प्रवीर के व्यक्तित्व के कई आयाम प्रस्तुत करती है, जो अंत तक उनके व्यवहार का हिस्सा रही।

प्रवीर का राजनीतिक जीवन तो उनकी बाल्यावस्था में ही प्रारंभ हो गया था। उनकी माता तथा बस्तर की महिला शासिका महारानी प्रफुलकुमारी देवी के असमय और रहस्यमय निधन के पश्चात लंदन में ही ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधियों ने अंत्येष्टि से पहले उनके छ: वर्षीय ज्येष्ठ पुत्र प्रवीरचन्द्र भंजदेव (1936 – 1947 ई.) का औपचारिक राजतिलक कर दिया।

प्रवीर का शासनकाल भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के चरम का समय था। उन्हीं दिनों स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को मार्च, 1942 ई. में भारत भेजा गया, जिसके सामने लक्ष्य साफ थे कि भारतीयों को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं देना है तथा गवर्नर-जनरल के वीटो जैसे अधिकारों को भी पहले जैसा ही रखना है; इसके बाद समर्थन की स्थिति बनायी जाये।

भारतीय प्रतिनिधियों ने क्रिप्स मिशन के सारे प्रस्तावों को एक सिरे से ख़ारिज कर दिया तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी की 8 अगस्त, 1942 ई. को बम्बई में हुई बैठक में यह निर्णय लिया गया कि अंग्रेज़ों को अब हर हाल में भारत छोड़ना ही पड़ेगा। तय हुआ कि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध नागरिक अवज्ञा आन्दोलन छेड़ा जाएगा।
प्रवीर की कथा जारी रहेगी…

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