प्रसंगवश

राहुल गांधी की प्रतीक्षा

सुदीप ठाकुर
हमें आधिकारिक तौर पर बताया गया कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी लीव ऑफ एबसेंट यानी काम से छुट्टी पर हैं. राजनेताओं के छुट्टी पर जाने की परंपरा नई नहीं है. पश्चिम देशों में ऐसा अक्सर होता रहा है. हमारे यहां अमूमन प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति या सत्तारूढ़ नेता अपनी व्यस्तता के बीच कभी कभार छुट्टियां मनाने जाते रहे हैं.

इसमें राजीव गांधी, से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक के नाम शामिल हैं. हालांकि मनमोहन सिंह ने अपने दस वर्ष के कार्यकाल में कभी छुट्टी नहीं ली. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद ही कह चुके हैं कि वह कभी छुट्टी नहीं लेते. लेकिन विपक्ष में रहते किसी नेता की छुट्टियां इतनी चर्चित कभी नहीं रही.

राहुल ने कहा था कि यदि देश एक कंप्यूटर है, तो कांग्रेस इसका डिफाल्ट सिस्टम. मगर वह जानते ही होंगे कि कांग्रेस का अपना साफ्टवेयर करप्ट हो चुका है और उसे बदलने की जरूरत है. यह देखना दिलचस्प होगा कि राहुल गांधी 2.0 के अवतार में कांग्रेस में क्या बदलाव ला पाते हैं. वास्तव में वह कितने सफल होते हैं, इसका पता इससे चलेगा कि वह अपनी पार्टी को कैसी चुनावी जीत दिला पाते हैं.

अगले लोकसभा चुनाव में अभी चार वर्ष हैं. मगर उससे पहले होने वाले विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव राहुल के लिए असली परीक्षा साबित होने वाले हैं, जिसका सिलसिला इसी वर्ष बिहार में विधानसभा चुनाव से शुरू हो जाएगा. आइये देखते हैं कि इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और राहुल के लिए क्या संभावनाएं हैं और वे क्या कर सकते हैं.

2015-16: बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और असम
नरेंद्र मोदी और अमित शाह का अगला पड़ाव बिहार ही है, जिसका एहसास नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव दोनों को है. कांग्रेस के पास नीतीश और लालू के ‘जनता परिवार’ के साथ जाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. यह राहुल भी जानते हैं कि बिहार में वह बहुत मोलभाव करने की स्थिति में नहीं हैं. यदि नीतीश-लालू भाजपा को रोक पाते हैं, तो इसका श्रेय राहुल को नहीं मिलने वाला है!

उनके लिए कुछ करने की स्थितियां अगले वर्ष 2016 से बन सकती हैं, जब पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और असम में चुनाव होंगे. सबसे पहले असम की बात, तो वहां कांग्रेस को पंद्रह वर्ष की एंटी इनकंबेंसी के साथ उतरना होगा. इसलिए यदि यहां पार्टी के हाथ से सत्ता निकल जाती है, तो इसे दिल पर नहीं लेना चाहिए. वहीं पश्चिम बंगाल में भाजपा तेजी से माकपा की जगह ले रही है, और शारदा घोटाले के कारण चौतरफा घिर चुकीं ममता बनर्जी की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं.

राहुल के पास यहां दो विकल्प हैं, या तो वह वाम मोर्चे के साथ जाएं या तृणमूल कांग्रेस के साथ. यहां एकला चलना भारी पड़ सकता है. 2016 में कांग्रेस के लिए तमिलनाडु बेहतर जगह हो सकती है, बावजूद इसके कि भाजपा वहां तेजी से पैर पसार रही है. यहां जयललिता की पार्टी को एंटी इनकंबेंसी का सामना करना पड़ेगा और द्रमुक 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले और करुणानिधि परिवार की कलह के कारण टूटी हुई है. यहां छोटी द्रविड़ पार्टियों के साथ गठबंधन कांग्रेस को कुछ बेहतर स्थिति में ला सकता है.

इसी वर्ष केरल में भी विधानसभा चुनाव हैं, जहां कांग्रेस की अगुआई वाले यूडीएफ को एंटी इनकंबेंसी का सामना करना पड़ेगा. उसका मुकाबला यहां यूडीएफ से ही होना है. मगर ध्यान रहे भाजपा और संघ परिवार ने काफी जमीनी आधार तैयार कर लिया है.

2017: उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल, गुजरात और पंजाब
2017 इस वर्ष उत्तर प्रदेश, पंजाब और गुजरात के साथ ही हिमाचल और उत्तराखंड जैसे राज्यों में भी चुनाव हैं, जहां कांग्रेस सत्ता में है. लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन ने उत्तर प्रदेश की 80 में से 73 सीटें जीतकर पूरे समीकरण उलट पुलट दिए थे. अमित शाह और संघ परिवार के लिए उत्तर प्रदेश की सत्ता सबसे अहम है, जिसे हासिल करने के लिए वे कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. सुस्त पड़े संगठन के साथ कांग्रेस यहां अकेले कुछ खास नहीं कर सकती. यदि जनता परिवार एकजुट हो जाता है, तो यहां सपा भी नए रूप में दिख सकती है. लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए उपचुनावों और कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में बसपा लगातार कमजोर होती गई है. राहुल को यह तय करना होगा कि वह मुलायम सिंह यादव के साथ जाएं या मायावती के, पर यह सब इन दोनों क्षेत्रीय क्षत्रपों की मर्जी पर भी निर्भर होगा.

गुजरात उन राज्यों में से है, जहां कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने होती हैं. राहुल की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि कांग्रेस भाजपा के डेढ़ दशक से भी लंबी इनकंबेंसी के खिलाफ कितना माहौल बना पाती है. वास्तव में उन्हें उत्तर प्रदेश से अधिक मेहनत गुजरात में करनी चाहिए, क्योंकि यदि वह यहां पिछली बार से अधिक सीटें हासिल कर पाते हैं, तो इसका संदेश बड़ा जाएगा.

हिमाचल और उत्तराखंड बहुत छोटे राज्य हैं, जहां कांग्रेस को एंटी इनकंबेंसी से जूझना होगा. यहां कांग्रेस सत्ता बनाए रखने में भी सफल होती है, तो उसका कोई बड़ा संदेश नहीं जाने वाला. अलबत्ता हारने से यही संदेश जाएगा कि छोटे राज्य भी उसके पास नहीं बचे. पंजाब में कांग्रेस के लिए जरूर अच्छा अवसर हो सकता है, जहां अकाली दल और भाजपा के गठबंधन को भारी एंटी इनकंबेंसी का सामना करना होगा.

2018: राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़
वास्तव में राहुल और कांग्रेस के लिए 2018 सबसे अहम साबित हो सकता है, जब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव होंगे. यही तीन ऐसे राज्य हैं, जहां गुजरात के अलावा भाजपा को एंटी इनकंबेंसी का सामना करना है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को सत्ता में आए डेढ़ दशक हो चुके होंगे, लिहाजा कांग्रेस के लिए ये दो राज्य सबसे मुफीद हो सकते हैं. मगर क्या राहुल और कांग्रेस इसके लिए तैयार है?

वास्तव में इन तीनों राज्यों के नतीजे यह तय करेंगे कि राहुल इसके अगले वर्ष यानी 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए कैसी जमीन तैयार कर पाते हैं. ध्यान रहे ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, हरियाणा और कर्नाटक जैसे राज्यों में भी 2019 में लोकसभा चुनाव के समय या उसके बाद ही विधानसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा तब तक स्थितियां काफी हद तक साफ हो चुकी होंगी कि राहुल 2.0 के रूप में कितने कारगर हुए.
* लेखक अमर उजाला, नई दिल्ली के स्थानीय संपादक हैं.

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