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ऐसे तो नहीं रुकेंगी रेल दुर्घटनायें

बादल सरोज
कानपुर के करीब पुखरायां में हुई रेल दुर्घटना से परखच्चे हुए डिब्बे के टुकड़े अभी बीने नहीं जा सके है. डेढ़ सौ दर्दनाक मौतों पर गिनती रूक जायेगी, यह भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता. राष्ट्र शिरोमणियों के परिधानों, भावों-भंगिमाओं को देखकर नहीं लगता कि उन्हें कोई फर्क पड़ा है- मगर हादसे से प्रभावित यात्रियों की विचलित कर देने वाली कहानियां लोगों का मन खराब किये हुए है. पुनरावृत्तियों की अबाध निरन्तरता त्रासद भाव की आदी बना देती है. दुर्घटनायें एक नई जांच की घोषणा और मृतकों की एक बड़ी सी संख्या छोड़ जाती है. रिपोर्ट मरने वाले नंबर में बदल जाते है, उनकी जिंदगियां, खुशकिस्मत हुए तो, अस्थिकलश और मुआवजे के कुछ नोटो की गड्डी में सिमटकर रह जाती है. रिकार्ड नहीं मिला तो बिना मुआवजे ही पंचतत्व में विलीन हो जाते है और सरकार आगे बढ़ लेती है, जीवन आगे चल पड़ता है.

एक वर्ष में 28 हजार दुर्घटनायें, उनमें 25 हजार मौते, इसी तरह की एक संख्या है. यह वर्ष 2014 का आंकड़ा है. इसके पहले के वर्ष में यह संख्या और अधिक थी. इसके बाद की वर्षो के जब आंकडे आयेंगे तब तथ्यों से प्रमाणित हो जायेगा, कि यह कम नहीं हुई.

दुर्घटना के कारणों की पड़ताल अभी होनी है. हमारी नौकरशाही बहुत उस्ताद है, टोपी पहनाने के लिए एकाध सिर ढूंढ़ ही लेगी- मगर उससे न दुर्घटनाये रूकेंगी न मौते. बल्कि जिस राह पर हाल के दौर में नीतियों की पटरियां मुड़ी है. उससे दुर्घटनाओं के महामारी में तब्दील होने की आशंकायें भरी पूरी हुई है.

कोई सवा लाख किलोमीटर लंबी पटरियों वाली भारतीय रेल दुनियां की एक अद्भुत परिवहन प्रणाली है. भारत देश की जीवन रेखा जिसमें रोज करीब ढ़ाई करोड़ यात्री सफर करते है. अरबों टन माल की आवाजाही होती है. देश को सचमुच में जोड़ती है.

बजाय अंदाजे, अनुमान, संदेह और सवालों में जाये, दो प्रमाणित दस्तावेजो के संदर्भ को ही जांच ले, तो यह जाहिर उजागर हो जाता है कि रेल हादसे हो नहीं रहे है उन्हें बाकायदा गाजे बाजे के साथ आमंत्रित करके लाया जा रहा है. इसका अर्थ यह भी है कि इन्हें रोका जा सकता है.

अनिल काकाडेकर की अध्यक्षता में बनी हाई लेवल सैफ्टी रिव्यू कमेटी ने अपनी वर्ष 2012 की फरवरी में दी विस्तृत रिपोर्ट के साथ नत्थी प्रस्तुति पत्र में लिखा था कि सिस्टम पर आवश्यक बोझ बढ़ता जा रहा है, बढ़ती मांग के अनुपात में आवश्यक तकनालॉजी के उन्नयन एवं आधुनिकीकरण पर निवेश नहीं हो रहा है. राष्ट्र को बताया जाना चाहिए कि काकाडेकर कमेटी की रिपोर्ट के बाद गुजरे 4 वर्ष 9 महीने में इस दिशा में क्या कदम उठाये गये. कहते है कि इंदौर-राजेन्द्र नगर एक्सप्रेस के डब्बे उज्जैन से ही खडख़ड़ा रहे थे. कितने वर्ष हो गई है, बोगियों को बदले हुए? क्या देश में रेल डब्बे बनना बंद हो गए है? या अचानक हुए किसी उल्कापात से बोगी निर्माण का तकनीकी ज्ञान स्मृति लोप का शिकार हो गया है?

देश की तकरीबन आधी रेल पटरियां डेढ़-दो दशक पहले अपना जीवन पूरा कर चुकी है. वैंल्डिंग का टांका या घिसे-पिटे नट बोल्ट लगाकर उन्हीं पर गाडिय़ां चलाई जा रही है. क्या भिलाई स्टील प्लांट ने रेल बनाना बंद कर दिया है? क्या सारी पटरियां चोरी हो गई है?

रेल विशेषज्ञ जानते है कि सिग्नलिंग से लेकर इंटरलाकिंग और फ्यूलिंग से लेकर कूलिंग तक जिस तकनीक को हमारी रेलवे उपयोग में ला रही है, अफ्रीका के भी अनेक देश वर्षों पहले उसे त्याग चुके है.

कहते है कि करीब 163 साल पुरानी रेल की सुरक्षा और व्यवस्था को आधुनिकीकृत करने के लिए 2020 तक कोई 20 लाख करोड़ रुपयों के निवेश की जरूरत होगी. जिस देश में चंद रईस कारपोरेट सरकार और उसकी बैंकों के 15 लाख करोड़ रुपए दबाये बैठे हों, उस देश में 20 लाख करोड़ रुपए बड़ी राशि नहीं है. मगर इसके लिए एक पहले से ही शानदार रेल नेटवर्क वाले मुम्बई-अहमदाबाद के छोटे से रूट पर बुलैट ट्रेन के लिए एक लाख करोड़ रुपये खर्च करने वालों की प्राथमिकता में भारतीय रेल को आना चाहिये!

29 नवम्बर 2014 को राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में रेल मंत्री ने कबूल किया था कि लोको पायलट के 43,023 स्वीकृत पदों में से 10,726 खाली पड़े है. असिस्टेन्ट लोको पायलट के 41,429 में से 5,526 तथा मोटरमेन के 4,116 में से 858 पद खाली है. डी श्रेणी के 5 लाख 70 हजार पदों में से एक लाख पद खाली है. कमर्शियल स्टॉफ में भी खाली पदों का अनुपात यही है.

रेलवे में प्रतिवर्ष औसतन 60 से 65 हजार कर्मचारी रिटायर हो रहे है. उनकी जगहें नहीं भरी जा रही. ड्रायवर्स के लिए अंग्रेजों के जमाने के नियमों- रोज 13 घंटे काम, लगातार 6 नाइट ड्यूटीज- में बदलाव के लिए वर्ष 2013 में हाई पावर कमेटी ने कुछ सिफारिशें की थी. सरकार ने उन्हें तो नहीं माना, विवेक देबरॉय समिति की सिफारिशों को जरूर मान लिया, जिसने रेल के पूरे तंत्र का निजीकरण, सारे कामकाज की आउट सोर्सिंग करने की ठोस योजना बनाकर डैथ वारंट लिख दिया था.

अब होना यह है कि एकल, केन्द्रीकृत प्रबंधित रेलवे का मलाईदार हिस्सा कुछ बड़े कारपोरेट्स के जिम्मे होगा-छोटे मोटे स्टेशन और कम कमाऊ मार्ग टुटपुंजिये ठेकेदारों के हाथों में रहेंगे. जो पहले वालो के इलाके में मारे जाएंगे, वे गया जाएंगे, जो दूसरों की वेदी पर बलि होंगे उनका मन चंगा तो कठौती में गंगा मानकर किसी स्थानीय नदी में तर्पण कर दिया जाएगा.

दुर्घटनाये टाली जा सकती है, मौतें रूक सकती है. बशर्ते राष्ट्र की तरह हुकूमतें; भी भारतीय रेल पर गर्व करे. इसके लिए जरूरी है कि अब तक की दुर्घटनाओं की जांच रिपोर्ट्स सार्वजनिक की जाये, सैफ्टी स्टैंडड्र्स को मानक स्तर पर लाया जाये, स्टाफ की कमी खत्मकर सभी खाली पद भरे जायें. नये पद सृजित किये जाये, बुलैट ट्रेन के शेखचिल्ली ख्बाबों पर पैसा फूंकने की बजाय आधार भूत संरचना पर निवेश कर उसे आधुनिक बनाया जाये, रेल दुर्घटनाओं के शीर्ष अपराधियों को जेल में डाला जाये.

क्या एलपीजी की भांग पिये, बाजारूकरण के मेले में सेल का ठेला लगाए हुकुमरान ऐसा करेंगे?

*लेखक वामपंथी चिंतक और स्तंभकार हैं.

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