प्रसंगवश

इतिहास अफीम नहीं, वर्तमान टॉनिक है-2

कनक तिवारी
गुरु घासीदास ने सतनाम क्या कहा, छत्तीसगढ़ की आत्मा शुद्ध कर दी. गांधी की तरह सत्य का आचरण करते रहने की उनकी सीख विसंगतियों के बावजूद कुछ लोगों की सामाजिक आदत बनी. यह भी है कि सच के रास्ते चलने का उपक्रम करते लोग अनुसूचित जाति के कहलाने लगे. समाज में जातीय विग्रहों के कारण वे तलहटी में पहुंचा दिए गए. वे फिर भी ‘सतनामी‘ तो हैं.

झूठ का तिलिस्म आततायी होता है. उसमें सत्तालोलुपता के कारण वंचितों का शोषण करने की हिंसा है. उसे सम्पत्ति के साथ सम्पृक्त होकर लहलहाते देखना भी छत्तीसगढ़ के नसीब में रहा है. कम प्रदेश होंगे जहां गुरु घासीदास की सत्यपरक अभिव्यक्ति की कद काठी के समाज सुधारक हुए होंगे. वर्ण, वर्ग और जातिवाद से संघर्ष करना भारत में दुस्साहस और जोखिम का काम है. ताजा इतिहास इस तरह की हजारों दुर्घटनाओं से पटा पड़ा है.

छत्तीसगढ़ भी सामूहिक हिंसा के षड्यन्त्रों से भ्रष्ट या फारिग नहीं है. इसके बावजूद दिसम्बर का महीना गुरु के जन्मदिन के आसपास उष्ण सामाजिकता का पर्याय हो जाता है. सत्यशोधक कोई वैज्ञानिक संस्थान एक रचनात्मक कृतज्ञता का साध्य हो सकता है. सत्य पर आधारित व्यापक विचार विमर्श के दायरे में कई सामाजिक परिघटनाएं, विचारधाराओं के आग्रह, ईसा की सलीब, युधिष्ठिर की प्रतिबद्धताएं, मोरध्वज की कुरबानी और हरिश्चन्द्र का मुहावरा एक एकनिष्ठ अभियान को निरन्तरता में कायम रख सकते हैं. साहित्य, वैचारिकता, सामाजिक आन्दोलन और प्रयोगमूलक अनुष्ठान मिलकर उस सामाजिक अवधारणा को विकसित और परिपुष्ट कर सकते हैं जिसकी इक्कीसवीं सदी को बेहद जरूरत है. गिरौदपुरी को वैचारिक अनुष्ठान का विश्वविद्यालय क्यों नहीं बनाया जा सकता?

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देश का संविधान समाज का जिरहनामा है. आरोप है कि वह अमेरिका से मूल अधिकार, इंग्लैंड से न्यायिक अनुतोष, आयरलैण्ड से नीति निदेशक स्वप्न और दक्षिण अफ्रीका से खुद के संशोधन किए जाने की जुगत लेकर आया है. उसे भारतीय विचारकों और देशभक्तों की प्रज्ञा की धमनभट्टी में पकाया गया. लेकिन उससे इत्र फुलेल की जगह नीनारिक्की, जोवन, ब्रूट वगैरह पश्चिमी सेन्ट की महक आती है. समाजवाद को लेकर भी गहरा घालमेल है. उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में विवेकानन्द ने खुद को बार बार समाजवादी कहा था. उन्होंने रूस और फिर चीन में समाजवादी क्रान्ति की भविष्यवाणी की थी. गांधी ने भी खुद को समाजवादी कहा.

बीसवीं सदी के मध्य में जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय राजनीति के इतिहास को अपने कन्धों पर उठाए रखा. ‘समाजवाद‘ और ‘धर्मनिरपेक्षता‘ शब्द इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रीकाल में बयालीसवें संविधान संशोधन के जरिए लाये गये थे. समाजवाद का आचरण उनके लिए समाजवाद का व्याकरण था. समाजवाद शब्द अंतरिक्ष में कहीं खो गया है. संविधान गैरहिन्दुओं के लिए समान नागरिक संहिता बनाने के वायदे को भी पूरा नहीं कर सका है. महान कवि फिरदौसी के शब्दों में कश्मीर धरती का स्वर्ग है, लेकिन वह हिन्दुस्तान के अन्य प्रदेशों का सहचर नहीं बनाया जा सका.

राज्यों की स्वायत्तता और केन्द्र पर उनकी निर्भरता राजनीतिक बीजगणित का सवाल है जिसे हल करना नट और नटी की तरह पतले तार पर चलने का करतब दिखाना है. उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और भारत के उपराष्ट्रपति तथा कार्यकारी राष्ट्रपति रहे मोहम्मद हिदायतुल्ला की स्कूली शिक्षा के दिनों में उनमें संविधान का बीज डालने का श्रेय रायपुर के सरकारी हाईस्कूल को है.

उनकी स्मृति में विधि विश्वविद्यालय स्थापित होने के बावजूद प्रदेश के युवकों की वरीयता या बहुतायत विधिक ज्ञान के क्षेत्र में नहीं है. विधि व्यवसायी, न्यायाधीश, प्रशासक, पत्रकार और प्रबुद्ध नागरिकों में भी संवैधानिक समझ के घनत्व का विमर्श लगातार कायम रखना वंचितों को न्याय देने के मकसद से भी बहुत जरूरी है. समान छोटे राज्यों केरल, पंजाब, दिल्ली राज्य, हरियाणा वगैरह में कानून सम्बन्धी अपेक्षाकृत बौद्धिक जागरूकता है. सांस्कृतिक बौद्धिक प्रकल्प के जरिए भी कोई दीर्घकालीन रचनात्मक योजना सरकार के ज़ेहन से उतरकर बुद्धिजीवियों की बहस को दी जानी चाहिए. हबीब तनवीर ने मसलन अपने नाटकों में इस तरह के तीखे लेकिन शालीन कटाक्ष किए हैं.

बौद्धिक दृष्टि से बहुत संज्ञेय नहीं होने पर भी स्थानीय कलाकारों की बेले प्रकृति की संगीत नाट्य प्रस्तुतियों चंदैनी गोंदा और सोनहा बिहान ने लाखों छत्तीसगढ़ियों को अभिभूत किया है. न्याय के आकांक्षी हर तरह वंचित ही होते हैं. इन्साफ को अदालतों और वकीलों के जिम्मे ठहराकर कानूनी उपपत्तियों के जंगल में भटका दिया गया है. जनता को न्याय प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में शिक्षण देना लोककल्याणकारी राज्य का लोकतांत्रिक कार्य है. यह सब छत्तीसगढ़ में जन अपेक्षाओं के अनुकूल आज तक नहीं किया गया है. साहित्यकार इन सबसे फारिग कैसे हो सकते हैं?

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संविधान सामूहिक लेखन का अकेला सबसे व्यापक परिणामधर्मी दस्तावेज है. प्रत्येक देश की राष्ट्रीयता और संविधान की अपनी भाषा होती है. भारत में संयोग या दुर्भाग्यवश सबसे ज्यादा बोलियां और भाषाएं हैं. जिस भाषा के सहारे आजादी मिली, वह अब भी गुलाम ही है. इसके अतिरिक्त प्रादेशिक भाषाओं के मातृत्व गुणों से इन्कार नहीं किया जा सकता. संविधान की आठवीं अनुसूची में प्रादेशिक भाषाओं के जुड़ने का क्रम न तो खत्म हुआ है, न कभी खत्म हो सकता है. कई प्रादेशिक भाषाएं संविधान के मूल पाठ के स्वीकृत होने के बाद मुख्यधारा की भाषाओं के रूप में जुड़ती रही हैं. छत्तीसगढ़ी को भी आठवीं अनुसूची में जोड़े जाने का आग्रह एक जनप्रिय मांग के रूप में कायम है. यह विषय महत्वपूर्ण लेखकों, विचारकों, बुद्धिजीवियों, अध्यापकों और पत्रकारों की प्रतिभागिता के आधार पर खुद के लिए वांछित जिरह मांगता है. जनभाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है. मनुष्य उसी में सोचता और चिन्तन भी करता है. सामाजिक विषयों के सरोकारों के दायरे में भाषा-विचार को शामिल किया जाना विमर्श की निरन्तरता को कायम रखने के लिए जरूरी है. छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी के अतिरिक्त कई आदिवासी बोलियों का समुच्चय भी है. प्रदेश के कई इलाकों में इन्हीं बोलियों के सहारे जनसामान्य की गतिविधियां संचालित होती हैं. भाषाओं, उपभाषाओं इत्यादि के अन्तर्विरोध भी संवैधानिक जिरह और सम्मानजनक सांस्कृतिक हल मांगते हैं. भाषाएं समाज की धड़कन होती है. जीवंत समाज अपनी धड़कनों की उपेक्षा नहीं कर सकता. प्रादेशिक भाषाओं की संविधान सम्मतता का विमर्श उन्हीं भाषाओं के जानकारों तक ही क्यों सीमित कर दिया जाता है? क्षेत्रीय भाषाओं की सामूहिकता और अंतर्निभरता पर जिरह करना भी तो एक दिलचस्प काम हो सकता है.
जारी
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