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बस्तर में जोगी बनाम रमन

सुरेश महापात्र
बस्तर की राजनीतिक फिजा बदल रही है. कांग्रेस-भाजपा के विकल्प के तौर पर जोगी कांग्रेस धीरे-धीरे खड़ी होती दिख रही है. जितने समय से यहां आम आदमी पार्टी सक्रिय है, उससे काफी कम समय में जोगी कांग्रेस ने अपना अस्तित्व बनाने में कामयाबी पा ली है. बस्तर में भाजपा के पुरोधा बलिराम कश्यप के देहावसान के बाद भाजपा में आदिवासी नेतृत्व का जो अवसान दिख रहा है, उसकी भरपाई कम से कम उनके पुत्र अभी भी करते नहीं दिख रहे हैं. कमोबेश यही स्थिति कांग्रेस के भीतर भी है.

पहले अरविंद नेताम, फिर मनकूराम सोढ़ी उसके बाद महेंद्र कर्मा बस्तर में कांग्रेस के जनाधार वाले नेता रहे. अरविंद नेताम कांग्रेस की राजनीति के शिकार हुए और अपनी राजनीति को ‘आदिवासी’ केंद्रीत करने का खामियाजा भोग रहे हैं. मनकूराम सोढ़ी लंबे समय तक सांसद रहकर बस्तर के गांधी के रूप में चिन्हे गए. अब वे पुत्र मोह के बाद कांग्रेस की राजनीति से ही बाहर हो चुके हैं. उनके पुत्र भी सुपर स्टार पिता की फ्लाप संतान का पर्याय बने. कभी पिता की राजनीतिक पहुंच के चलते मंत्री रहे शंकर अब कहां हैं और क्या कर रहे हैं किसी को भी नहीं पता!

महेंद्र कर्मा जीते जी जितना नाम कमा गए, उसके करीब भी उनके पुत्र पहुंच जाएं हों, ऐसा फिलहाल प्रतीत नहीं हो रहा है. देवती कर्मा बेहद शालीन महिला रही हैं. पति महेंद्र कर्मा की शहादत के बाद कांग्रेस ने उन्हें टिकट दिया और जनता ने चुनकर महेंद्र कर्मा की शहादत को सलाम किया. इससे पहले यह सीट भाजपा के खाते में चली गई थी. भाजपा के भीमाराम मंडावी ने दंतेवाड़ा विधानसभा में महेंद्र कर्मा को पराजित कर सभी को सकते में डाल दिया था. अब महेंद्र कर्मा नहीं हैं. उनके परिवार में संतान दीपक कर्मा, छविंद्र कर्मा और सुलोचना वट्टी (पुत्री) निर्वाचित राजनीति में हैं. बड़ी बात यह है कि कर्मा परिवार के इन चार सदस्यों में से किसी के पास महेंद्र कर्मा के राजनीतिक कद को पार करने की क्षमता नहीं दिख रही है. यानी बस्तर के राजनीतिक धुंरधरों में नेताम, सोढ़ी और कर्मा परिवार के किसी भी सदस्य के पास अब वैसा चेहरा और साख नहीं है, जिसके दम पर 2018 उनके नाम हो सके.

कमोबेश यही हाल भाजपा के भीतर भी महसूस होने लगी है. बलिदादा के देहावसान के बाद दिनेश कश्यप सांसद हैं. लोग खुलकर कहते हैं कि उनमें वह बात नहीं है, जो बलिदादा में थी. सांसद होने के बाद भी दिनेश अक्सर केदार के सहारे दिखते हैं. केदार कश्यप राज्य में कैबिनेट मंत्री हैं. दक्षिण बस्तर के तीनों जिलों का प्रभार संभालते रहे हैं. फिलहाल दंतेवाड़ा और सुकमा उनके प्रभार वाले जिले हैं. सही मायने में उनकी राजनीतिक उम्र उतनी ही है, जितना प्रदेश के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह का बतौर मुख्यमंत्री कार्यकाल! पिता के बूते राज्यमंत्री से मंत्रीमंडल में जगह बनाकर कैबिनेट मंत्री का सफर तय कर चुके हैं.

तेरह बरस की राजनीतिक उम्र में भी केदार कश्यप की छवि अपेक्षाकृत ‘नरम’ कार्यशैली की रही है. ‘नरम’ के सारे अक्षर मिलकर ‘रमन’ शब्द का निर्माण होता है. बलिराम कश्यप के जीते जी बस्तर में भाजपा ने जो कुछ ​हासिल किया उसके बाद कुछ नया हासिल हुआ हो, ऐसा उदाहरण ना तो उनके पुत्र दे सकते हैं और ना ही पार्टी के नेता! नगरनार में इस्पात संयंत्र, डिमरापाल में मेडिकल कॉलेज ये दोनों बड़ी उपलब्धियां बलिदादा के जीते जी बस्तर की झोली में आ चुकी थी. अपने एक सपाट बयान से पूरी सरकार को सकते में डालने की क्षमता रखने वाले बलिदादा की संतान सरकार के सामने घुटने पर चलते दिखते हैं. लोगों को भी लगता है कि वे इतने ‘नम्र’ हैं कि ‘अफसरशाही और जनहित’ के बीच अपनी पृथक लकीर नहीं खींच पाते.

बस्तर की राजनीति में अब मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह इकलौते योद्धा की भूमिका में हैं. बस्तर संभाग की भाजपा में अंदरूनी खींचतान और गुटीय राजनीति से भले ही खुलकर इंकार किया जाता हो पर इसी कड़वी सच्चाई के कारण भाजपा बस्तर में अपना नैय्या डुबोकर बैठी है. इस बात को मुख्यमंत्री रमन सिंह बेहतर जानते हैं सौदान सिंह तो उससे भी बेहतर. भाजपा कार्यसमिति की बैठक में सौदान सिंह की जो गर्जना हुई है उससे सभी सकते हैं. बंद कमरे में खरी-खरी सुनने के बाद अब तक भाजपा के दिग्गज अपने कान पर हाथ फेरते घुम रहे हैं. पर सभी को समझ में आ चुका है कि पार्टी भी मान रही है कि ‘पानी सिर से उूपर बह रहा है.’

इस बार दशहरा के समापन रस्म में बस्तर के कद्दावर मंत्री केदार कश्यप नदारत रहे. बस्तर के लोगों को यह पता नहीं है कि वे फिलहाल विदेश दौरे पर हैं. जब लोगों को पता चलेगा कि हमारा मंत्री ऐतिहासिक परंपरा के निर्वाह के दौरान परंपरा को ताक पर रख सकता है तो निश्चित तौर पर साख पर सवाल उठेगा. वे प्रभावशाली विभाग के मंत्री हैं. उनका कर्तब्य है कि ‘वे दुनिया देखें और सीखकर प्रदेश में अपने विभाग के विकास योजनाओं को मूर्तरूप प्रदान करें.’ साथ ही अपने संस्कृति और परंपरा के निर्वाह के दौरान ऐसी यात्राओं से परहेज कर भी कर्तब्य का निर्वहन किया जा सकता है. उन्हें यह समझना चाहिए कि उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि पिता की मेहनत और राजनीतिक कद का परिणाम है. ना कि स्वयं के बल पर हासिल किया हुआ. बलि​दादा मुरिया दरबार जैसी परंपराओं के निर्वाह के लिए सदैव तत्पर रहे. उसे नई दिशा और नई उंचाई दिलाने में भी बड़ा योगदान दिया. इस दरबार में युवा मंत्री महेश गागड़ा की भी गैरहाजिरी चर्चा में रही.

यही वजह है अब बस्तर की राजनीति में मुख्यमंत्री पूर्ण रूप से केंद्रीय भूमिका में हैं. बस्तर संभाग के दंतेवाड़ा से परिवर्तन यात्रा के शुरूआत कर 2003 में बेहद मंजे हुए राजनीतिक खिलाड़ी अजीत जोगी को सत्ता से बाहर करने वाले डा. रमन सिंह के सामने 2018 में सबसे बड़ी चुनौती है ‘बस्तर’. वे 15 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद फिर उसी शख्स के सामने खड़ें हैं जिसे पटखनी दे चुके हैं. राजनीतिक विश्लेषण में यह स्पष्ट रहा है कि छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद बस्तर में कांग्रेस को फायदा और नुकसान की गणित में जोगी की भूमिका रही है.

इस बार अजीत जोगी अपनी नई पार्टी के साथ मैदान पर उतर रहे हैं. भाजपा के भीतर इस राजनीतिक समीकरण के फायदे ही गिने जा रहे हैं. सारे यह सोचकर फील गुड महसूस कर रहे हैं कि कांग्रेस को जोगी निपटाएगा अपनी तो नैय्या पार… यानी ‘चौथी बार रमन सरकार’. पर भाजपा के इस फीलगुड को एक सर्वे ने चारो खाने चित्त कर दिया है. जिसमें साफ बताया गया है कि अपने ही अपनों को खा रहे हैं.

‘जोगी’ बस्तर में ऐतिहासिक दहशरा की परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा है. ‘जोगी बिठाई’ की रस्म के बाद ही रथयात्रा का शुभारंभ होता है. पर इस जोगी और उस जोगी के बीच काफी अंतर है. जोगी कांग्रेस ने अपना ‘बस्तर संकल्प’ जारी कर दिया है. अगर इस ‘बस्तर संकल्प’ को ध्यान से देखा जाए तो अजीत जोगी ने बस्तर की नब्ज पर हाथ डाला है. जितने भी बिंदू हैं उसकी चर्चा शुरू हो गई है. यहां अजीत जोगी पर ऐतबार करने वाले और विरोधियों की दो धाराएं साफ हैं. पर यह भी एक बड़ा सच है कि जोगी के खेमे में भाजपा से ना के बराबर पर कांग्रेस से एक बड़ा खेमा संपर्क में है. यही भाजपा के मुगालते की वजह भी है.

मुख्यमंत्री के दंतेवाड़ा प्रवास पर मैंने एक सवाल पूछा था कि ‘क्या जोगी कांग्रेस को वे 2018 में तीसरी शक्ति के रूप में देखते हैं?’ इसके जवाब में मुस्कुराते रमन सिंह ने जो कहा वह बस इतना ही है कि पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी शक्ति वही बनेगा जिस पर माता दंतेश्वरी का आशीर्वाद होगा.’ अब ​इसके मायने ढूंढते रहिए. इसके बाद ही जोगी कांग्रेस का संकल्प पत्र सामने आया है.

15 अक्टूबर को डा. रमन सिंह अपना जन्मदिवस मना चुके हैं. पूरे प्रदेश से गाड़ा-गाड़ा बधाई के संदेश दिखाई दिए. ऐसे ही संदेश मुख्यमंत्री रहते अजीत जोगी के लिए भी आते थे. यह तो सत्ता का चरित्र है इसे कोई अधिकार मान ले तो फिर किसी भी चीज की जरूरत ही नहीं. इसके बावजूद जोगी सत्ता से बाहर हुए और डा. रमन की एंट्री हुई. राजनीतिक नेतृत्व का अभाव झेलते बस्तर में इस बार ‘रमन-जोगी’ से भिड़ेंगे. यह तो साफ है कि कांग्रेस अपने छाप के साथ ही खड़ी होगी. क्योंकि उनके पास बस्तर में अब नेता नहीं है.

* लेखक दंतेवाड़ा से प्रकाशित बस्तर इंपैक्ट के संपादक हैं.

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