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आरक्षण का गांधीवादी तरीका

अनिल चमड़िया
केन्द्र में 1991 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार द्वारा बी पी मंडल आयोग की अनुशंसा के अनुसार सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के सदस्यों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण देने के फैसले ने भारतीय राजनीति की धुरी बदल गई. इसके बाद से संसदीय राजनीति के लिए आरक्षण पर बातचीत के बिना आगे बढ़ने की गुंजाइश लगभग खत्म सी हो गई. यदि आरक्षण के इस फैसले की अब तक की यात्रा का विश्लेषण करें तो ये सामने आता है कि संसदीय़ पार्टियां आरक्षण के इर्द गिर्द नये नये आइडिया का ईजाद करने में सक्रिय रही हैं. इसी क्रम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का भी एक नया आइडिया सामने आया है कि आउटसोर्सिंग में आरक्षण की नीति को लागू किया जाएगा.

पहली बात तो नीतिश कुमार के इस आइडिया को निजी क्षेत्र में आरक्षण के रुप में प्रचारित किया जा रहा है, जो की गलत है. मंडल आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने के फैसले के वक्त निजी क्षेत्र में आरक्षण की जो मांग की गई थी उस संदर्भ में नीतिश कुमार का आउटसोर्सिंग में आरक्षण का प्रस्ताव बिल्कुल भिन्न है. ये निजी क्षेत्र में रिजर्वेशन कतई नहीं है. आउटसोर्सिंग का मतलब है कि सरकार द्वारा कर्मचारियों की बहाली की प्रक्रियाओं व जिम्मेदारियों से मुक्त होने की व्यवस्था करना. सरकार के लिए मानव संसाधनों का चयन करने वाली निजी क्षेत्र की कंपनियों की प्रक्रिया में महज ये फर्क आएगा कि वह सरकार के लिए सरकार की आरक्षण की नीति को पालन करने की जिम्मेदारी को पूरा करेगी. नीतिश कुमार के इस प्रस्ताव का कतई अर्थ यह नहीं है कि निजी कंपनियां अपने ढांचे के लिए मानव संसाधन जुटाने की प्रक्रिया में आरक्षण की नीति को लागू करेगी.

भारतीय राजनीति में आरक्षण वास्तव में महात्मा गांधी के छुआछूत विरोधी आंदोलन का ही एक दूसरा रुप हैं. गांधी ने वर्ण व्यवस्था को स्वीकारते हुए अछूतों के साथ खाने पीने, उन्हें कुएं से पानी लेने और मंदिर में जाने की वकालत की थी. जाहिर है कि वह जातिवाद और जाति आधारित व्यवस्था को खत्म करने का अभियान नहीं था. ठीक उसी तरह नीतिश कुमार आर्थिक नीतियों को कोई खरोंच नहीं लगने की शर्त पर सामाजिक न्याय के सिद्धांत के पक्षधर के रुप में वंचित जातियों को संबोधित करते दिखना चाहते हैं. सरकार के यहां नौकरियां लगातार कम होती जा रही है.जाहिर है कि सरकारी नौकरियों के लगातार खत्म होने की स्थिति में रिजर्वेशन का कोई अर्थ नहीं रह जाता है.

केन्द्र सरकार की नौकरियों के लिए मंडल आयोग की अनुशंसाओं को जब लागू किया गया था तो उसी समय निजीकरण की नीति को भी लागू करने का फैसला किया गया था. उस वक्त मंडल आयोग की अनुशंसाओं से लाभवान्वित होने वाली जातियों को नई आर्थिक नीतियों के पक्ष में खड़ा करने के लिए निजी क्षेत्र में आरक्षण का शिगूफा चुनावी पार्टियों ने फेंका था. यह संभव नहीं है कि आर्थिक ढांचे के निजी करण की नीति और सामाजिक रुप से पिछड़े-दलितों के लिए आरक्षण की नीति एक साथ लागू हो जाए.इसीलिए निजी क्षेत्र में रिजर्वेशन की मांग और उस पर आधारित राजनीति ने दूसरी करवट ली. वह यह थी कि सरकारी नौकरियों में जिन जातियों के लिए पचास प्रतिशत रिजर्वेशन सीमित है, उन्हीं के बीच आरक्षण के नये नये आइडिया खोजें जाए.

आरक्षण
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पचास प्रतिशत की सीमा को खत्म किया जाए, गरीब सर्वणों को आरक्षण देने, जिन जातियों को आरक्षण मिल रहा है उन्हें अति पिछड़ा और महा दलित के रुप में विभाजित करना, आरक्षण पाने वाली जातियों की सूची में हेरफेर करने, पिछडों को दलितों की सूची में डालने, पिछड़ों को अति पिछड़ों की सूची में डालने, आरक्षण का लाभ उठाने वाली पिछड़ी दलित जातियों में क्रीमीलेयर का सिद्धांत लागू करने आदि के रुप में संसदीय राजनीति अपनी गति बनाए हुए हैं. जबकि तथ्य है कि निजीकरण की प्रक्रिया ने सरकारी नौकरियों की संख्या आधे से भी कम हो गई हैं. विश्व बैंक केन्द्रित आर्थिक नीतियों ने स्थायी रोजगार की अवधारणा को ही खारिज कर दिया है. ठेका प्रथा और आउटसोर्सिंग विश्व बैंक की आर्थिक नीतियों की ही परिकल्पना है.

नीतिश कुमार ने जब अपने मंत्रिमंडल के इस प्रस्ताव के संबंध में मीडियाकर्मियों से बातचीत की तो एक बात स्पष्ट हो गई कि वे अपने इस आइडिया को सामाजिक न्याय की राजनीति की एक उपलब्धि के रुप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने ये स्पष्ट तौर पर कहा कि सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन लागू करने से बचने के लिए सरकारी मशीनरी उसे आउटसोर्सिंग कर देती है. लिहाजा सरकारी मशीनरी आरक्षण की नीति लागू करने से बच जाती है. मुख्य मंत्री नीतिश कुमार ये संकेत देते हैं कि सामाजिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाला ढांचा किस तरह से वंचितों को सामाजिक न्याय से वंचित कर देता है. य़ानी आर्थिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाला ढांचा और सामाजिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाले ढांचे के सामने राजनीतिक ढांचा बेहद कमजोर स्थिति में हैं.

डा. भीम राव अम्बेडकर ने संविधान को लागू करते वक्त ये कहा था कि राजनीतिक समानता तो हमने हासिल कर ली लेकिन सामाजिक और आर्थिक स्तर पर गहरी खाई है. इसकी व्याख्या इस रुप में की जाती है कि राजनीतिक सत्ता सभी सत्ताओं की कुंजी है. लेकिन यह स्पष्ट है कि राजनीतिक सत्ता तभी कुंजी है जब उसी के समकक्ष और उसके अनूकुल ताकत सामाजिक और आर्थिक सत्ता में विकसित हो गई हो. आर्थिक और सामाजिक स्तर पर वर्चस्व की स्थिति कमजोर नहीं हुई है इसीलिए सामाजिक न्याय के तहत रिजर्वेशन के सिद्धांत पर लगातार उंगुलियां उठती रही है और उसे कमजोर किया जाता रहा है.

आरक्षण वास्तव में सामाजिक न्याय का एकसूत्री कार्यक्रम नहीं है. सामाजिक न्याय के संपूर्ण कार्यक्रमों से यह जुड़ा हुआ है. इसको संपूर्ण कार्यक्रमों से अलग थलग कर देने की वजह से ही आरक्षण के लिए लड़ने की जमीन लगातार कमजोर होती चली गई है. यहां तक कि आरक्षण का लाभ उठाने वाले लोग व समूह भी आर्थिक व सामाजिक हैसियत हासिल कर लेने के बाद आररक्षण के विरोध में खड़े हो जाते हैं. इसीलिए आरक्षण को केवल गांधीवादी छुआछूत विरोधी आंदोलन से ज्यादा बढ़ा चढ़ाकर पेश करने से परहेज बरतने की सलाह दी जाती रही है. आरक्षण तक सामाजिक न्याय को सीमित करने से पिछड़े दलितो के बीच के एक छोटे से हिस्से को सत्ता की राजनीति करने में असुविधाओं का सामना नहीं करना पड़ता है.

आउटसोर्सिंग में आरक्षण के प्रस्ताव से मुख्य मंत्री नीतिश कुमार ने मुख्य मंत्री और नीतिश कुमार के कामों का बहुत खूबसूरती से बंटवारा किया है. उन्होंने मुख्यमंत्री की संवैधानिक जिम्मेदारियों को पुरा करने का काम निजी कंपनियों को सौप दिया है और पार्टी के अध्यक्ष से अपेक्षा के अनुरुप इस प्रस्ताव के संदेश से वोटो का इंतजाम करने की कोशिश की है. आरक्षण किसी शर्त के साथ नौकरी देने की व्यवस्था का नाम नहीं है. आरक्षण संवैधानिक व्यवस्था में मिलने वाले संपूर्ण अधिकारों का निचोड़ है.
* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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