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अंत नहीं, एक शुरुआत

निजता का अधिकार पर आया निर्णय किसी भी व्यक्ति के सम्मान और स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करने वाला है. 24 अगस्त को जस्टिस केएस पुट्टास्वामी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का जो निर्णय आया वह 21वीं सदी में भारतीय लोगों के अधिकारों के मामले में बेहद साबित होने जा रहा है. इस निर्णय ने न सिर्फ पुराने कुछ निर्णयों को पलट दिया बल्कि नागरिक-राजनीतिक अधिकारों को लेकर एक प्रगतिशील और सार्थक व्याख्या की राह भी खोल दी.

इस निर्णय में निजता को सिर्फ संविधान के दायरे में नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों और व्यापक सिद्धांतों के दायरे में देखा गया है. तकनीक के विकास के परिप्रेक्ष्य में इस निर्णय के जरिए निजता की व्याख्या अंतरराष्ट्रीय स्तर के कानूनों के साथ की गई है. खड़क सिंह मामले में जहां सर्वोच्च अदालत ने यह मानने से इनकार कर दिया था कि सरकार द्वारा की जा रही निगरानी मौलिक अधिकारों का हनन करता है. लेकिन इस मामले पर आए निर्णय से ऐसी कोशिशों को रोकने का मार्ग प्रशस्त हुआ है. आज तकनीक सरकार को नागरिकों के बारे में हर तरह की सूचनाएं जमा करने की सुविधा दे रहा है लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय लोकतंत्र में असहमति का सम्मान करने वाला है.

इस निर्णय को सिर्फ डेटा सुरक्षा और सरकारी निगरानी से जोड़कर देखना गलत होगा. सुप्रीम कोर्ट ने यह मानकर कि निजता के तहत न सिर्फ सूचनाएं आती हैं बल्कि अपने खुद के शरीर से संबंधित निर्णय लेने की आजादी भी आती है, लोगों को एक मजबूत औजार थमा दिया. इसका इस्तेमाल लोग आने वाले दिनों में निजता हनन की किसी कोशिश के खिलाफ कर सकते हैं. इसका सबसे पहला असर होमोसेक्सुअलिटी को गैरकानूनी साबित करने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा-377 पर पड़ सकता है. साथ ही बीफ और शराब पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने पर भी इसका असर पड़ सकता है. इसका असर प्रजनन संबंधित अधिकारों, मानसिक स्वास्थ्य, विकलांगता आदि मामलों पर पड़ सकता है. खास तौर पर उन मामलों पर इसका असर पड़ेगा जहां लोगों को स्वतंत्र तौर पर निर्णय लेने से रोका जाता है और पितृसत्तामक सरकार उन पर अपना निर्णय थोपती है.

आधार कानून, 2016 की वैधता और इसे कुछ चीजों में अनिवार्य बनाए जाने की चुनौती पर इसका असर स्पष्ट नहीं है. हालांकि, निर्णय में यह कहा गया कि इस मामले को निजता के अधिकार की कसौटी पर कसा जाएगा. लेकिन जो छह राय सामने आए हैं, उनमें एक निर्णय में संकेत दिया गया है कि कल्याणकारी सुविधाओं को न्यायसंगत नियंत्रण माना जा सकता है. हालांकि, इसके बाद भी इसे चुनौती देने की संभावना खत्म नहीं होती. इतना तो तय है कि आधार बनाने वाले ने जितना सोचा नहीं होगा उससे अधिक न्यायिक परीक्षण से आधार को गुजरना पड़ेगा.

हालांकि, इस मामले के सकारात्मक पक्षों को पक्का नहीं माना जा सकता. कई बार यह देखा गया है कि सुप्रीम कोर्ट खुद अपने निर्णय के असर को कम करने के लिए ‘व्यावहारिकता’ के आधार पर पीछे हट जाती है. सबसे ताजा उदाहरण है श्रेया सिंघल मामले में सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66ए से जुड़ी हुई. अदालत ने इस धारा को गैरकानूनी माना था लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसे लागू करने से लगातार इनकार कर रही है. खुद सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकारों पर नियंत्रण के कई नए रास्ते निकाले हैं. जबकि इनकी चर्चा संविधान में भी नहीं है.

इस निर्णय का सकारात्मक असर तब खत्म हो जाएगा जब अदालत यह मान लेगी कि सरकार के कामकाज में पारदर्शिता बनाए रखने के लिए निजता से समझौता करना होगा. हालांकि, सालों की प्रक्रिया के बाद यह बात स्थापित हुई है कि सार्वजनिक लोगों और आम लोगों की निजता अलग-अलग हैं लेकिन इस निर्णय की आड़ में ताकतवर लोगों के खिलाफ उनकी गलतियों को सामने लाने से रोकने की कोशिश हो सकती है. ऐसे में न्यायपालिका को खुद संतुलन बनाना होगा.

इस निर्णय की सबसे अहम बात यह है कि इसमें यह नहीं माना गया है कि भारत के नागरिक सरकार के अधीन हैं. यह माना गया है कि लोगों को अपने हिसाब से जीने का अधिकार इसलिए नहीं है क्योंकि सरकार उन्हें छूट दे रही है बल्कि यह उनका अधिकार है. एक व्यक्ति और सरकार के बीच के संबंधों को लेकर चल रहे विमर्श का अंत यह निर्णय नहीं है बल्कि एक सही दिशा में बढ़ा एक कदम है.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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