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रुख़साना

असद जैदी | फेसबुक : रुख़साना बाजी का नाम आवारा बिल्ली ऐसे ही नहीं पड़ा था. जब छोटी थी तो रिश्तेदारी, पड़ौस और मुहल्ले के लगभग सभी घरों में डोला करती थी. ख़ुशमिज़ाज थी और सबकी प्यारी थी. एक दो दिन दिखाई न देती तो लोग पूछने लगते, अरे रुख़साना कई दिन से नज़र नहीं आई! कहीं उसे बुख़ार तो नहीं है!

उसे सूँघना आता था और बातों को बहुत जल्दी समझ जाती थी. अपनी असाधारण रूप से स्याह, सुन्दर और चमकदार पुतलियों से वह ऐसी चीज़े देख लेती जिनपर किसी का ध्यान न जाता. ऐसी ऐसी विस्फोटक ख़बरें लाया करती कि अब्बा कहते, अरे कोई इसकी बातें सुनकर उनपर अमल करे तो रोज़ किसी न किसी घर में आग लगती नज़र आए. बातूनी इतनी थी कि औरतें अम्मा से शिकायत करतीं कि तुम्हारी बिटिया तो कान खा जाती है. अम्मा कम बोलने वाली थीं, इतना ही कहतीं कि अभी छोटी है, तिसपर सहज भाव से औरतें कहतीं, अरी आपा, देखना एक दिन बड़े बड़ों के कान कतरेगी. दरअस्ल रुख़साना का बातूनीपन उसकी तेज़ नज़र को ढाँपने का काम करता था.

कई बार कोई औरत बड़े अरमान और कुछ हसरत से कहती − काश! हमारा बेटा आपकी बिटिया जितना तेज़ होता! मामू अक्सर कहते ही थे − इसे तो बेटा होना चाहिए था.

अब स्त्री-विमर्श वाले इसपर जो कहें-आज के लिहाज़ से वाजिब ही कहेंगे-पर ज़रा ग़ौर कीजिए उस बच्चे पर क्या न गुज़रती होगी जो रुख़साना का जुड़वाँ भाई था और जिसे ये बातें झेलना पड़ती थीं. समकालीन स्त्री विमर्श में बस इसी एक चीज़ की कसर है… कि इनके यहाँ मुख़ालिफ़ से हमदर्दी की गुंजाइश नहीं होती. ख़ैर, उस वक़्त तसल्ली की बात यही थी कि रुख़साना बाजी मेरी तरफ़ से लापरवाह तो रहती थी लेकिन ज़रूरत पड़ने पर बड़ी बहन वाले अन्दाज़ से मुझे अपने संरक्षण में ले लेती थी. गो कि उम्र में मैं ही उससे कुछ मिनट बड़ा था.

अम्मा के ज़िम्मे बड़े कुनबे की सम्हाल का काम था. फिर तमाम फ़राइज़, नाते-रिश्तों की देखभाल और समाजी रस्मअदायगी का भार भी उन्हीं पर था. वह किस किस का कितना ख़याल रखतीं! यह अफ़सोस उन्हें रहता था कि उनके पास ‘कम्बख़्त’ रुख़साना को ‘लक्खन सिखाने’ की- यानी उसकी ग्रूमिंग करने की- फ़ुरसत न रही. ‘यह आफ़त बस पैदा हुई, अपने आप बड़ी हुई, ब्याह हुआ और चली गई.’

हमारी दादी भी चीज़ थीं. मैंने उन्हें हमेशा बूढ़ा ही पाया. उन्हें अपनी बहू की तरफ़ से न कोई ख़ुशी थी, न शिकवा, पर अपने बेटे से शिकायत रहती थी कि उनके पास आकर नहीं बैठता… “मैं अकेली पड़ी रहती हूँ… कोई झाँकने भी नहीं आता!” यह बात अब्बा तक पहुँचती तो वह दादी के पास आकर ख़ामोश बैठ जाते. दोनों में कोई बात न होती, होती भी तो एकाध जुमले की. दस पंद्रह मिनट बाद दादी मुलायम आवाज़ में कहती- “तुझे देर होती होगी. जा अपना काम कर!” अब्बा बड़ी मुहब्बत से पलंग की पट्टी पर हाथ रखते और कुछ देर में उठ जाते.

रुख़साना सबसे ज़्यादा दादी से हिली रहती थी. दोनों में पता नहीं क्या खुसर-पुसर होती रहती. दुनिया-जहान के समाचार दादी को रुख़साना ही से मिलते थे. उनमें झगड़ा भी हुआ करता जो जल्दी ही निबट जाता. मुझे लगता कि चलो रुख़साना बाजी को डाँटने वाला कोई तो है! एक दिन मैंने देखा बाजी चुप सी, लाल चेहरा किए हुए दादी के कमरे से निकल रही है. अंदर गया तो देखा दादी नाराज़ सी बैठी हुई पानदान से सरौता निकाल के ख़ुद सख़्ती से सुपारी काटती हुई पान खाने की तैयारी में है और कुछ बड़बड़ा रही हैं. मैंने पूछा क्या हुआ दादी? मुझे देखा और बोलीं, “तू क्या समझेगा गोलू, तेरी बाजी बस अल्लाह का भेजा करिश्मा है!” दादी बड़ी साफ़ और सारगर्भित ज़बान बोलती थीं. उनके कहने का मतलब था कि मेरी बहन एक प्राकृतिक आपदा है. इस पर किसी का बस नहीं.

बाहर आकर मैंने देखा अम्मा कुछ औरतों के साथ बैठी किसी बात में मशग़ूल हैं. मैंने उनके कान में कहा, “अम्मा, मालूम है दादी और बाजी क्यों बिना बात के इतना झगड़ती हैं?… क्योंकि झगड़ा करके दादी में जान आ जाती है, वो एकदम फ़िट…सही लगती हैं! है ना?” अम्मा ने सुनकर मुझे घूरा और दफ़ा हो जाने को कहा. कुछ देर में मुझे औरतों की सामूहिक हँसी सुनाई दी. मैं अपनी बात से ख़ुश था.

शाम को अब्बा को पता चला तो सबसे मुख़ातिब होके बोले, “मैं कहता था न कि लड़का इतना बेवक़ूफ़ और नासमझ नहीं है जितना तुम लोग समझते हो. इसमें अक़्लमंदी के कुछ आसार नुमायाँ होने लगे हैं. देखा, आज इसने बड़ी पते की बात कह दी!” ऐसा था पिता का तारीफ़ करने का तरीक़ा.

दादी-पोती का एक अंतरंग संवाद भी मैंने सुना.

दादी बाजी को समझा रही थीं, “अल्लाह मियाँ ने सिर्फ़ आँखें ही नहीं बनाईं, पलकें भी तो बनाई हैं.” बाजी ने पूछा, “तो?” दादी ने कहा, “पलकों पर भी भरोसा रखो, आराम से रहोगे.” फिर बोलीं, “देखने से ज़िम्मेदारी आन पड़ती है, न देखने से कुछ नहीं… आज़ाद हो.”

इतने बरस गुज़रे. यूँ तो ज़िंदगी एक अज़ाब है, पर मुझे यह कहने की इजाज़त दीजिए कि आँखें बंद रखने की आदत मुझे दादी से मिली और आँखें खुली रखने की आदत अपनी रुख़साना बाजी से.

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