प्रसंगवश

सिंहस्थ कुंभ की सीख

महाकाल की नगरी यानी सिंहस्थ कुंभ क्षेत्र में आसमान से बरसी आफत ने सब कुछ तबाह कर दिया. आस्था और विश्वास की भूमि क्षिप्रा की गोद में प्रकृति ने आस्थावानों का भरोसा डिगा दिया.

भारी बारिश और तूफान की वजह से जहां सात से अधिक लोग मारे गए, वहीं 80 से अधिक श्रद्धालु घायल हो गए. धार्मिक आयोजनों में प्राकृति और अव्यवस्था का कहर हमारे लिए बेहद पीड़ादायी हैं.

सिंहस्थ कुंभ में 30 फीसदी से अधिक नुकसान हुआ है. शुक्रवार को दूसरा शाही स्नान था. प्रशासन ने इसके लिए काफी तैयारियां की थीं, लेकिन प्राकृतिक प्रकोप के आगे किसी नहीं चली. 30 फीसदी से अधिक तंबू उखड़ गए.

इस चिलचिलाती धूप में देश के अनेक भागों से आए आस्थावान और श्रद्धालु खुले आमसान के नीचे हैं. अब उन्हें बसाने की नई मुसीबत आ गई है. तूफान इतना बेगवान था कि कई धमार्चार्यो के पंडाल उखड़ गए. संतों के पंडाल जलमग्न हो गए. मुख्द्वार धराशायी हो गए हैं. तूफानी बरिश के साथ ओले भी गिरे, जिससे और मुसीबत बढ़ गई. शाही स्नान की वजह से प्रशासन की मुश्किलें अधिक बढ़ गई हैं.

धार्मिक अयोजनों को लेकर सरकारों की तरफ से काफी हो हल्ला किया जाता है. लेकिन जब किसी वजह से अव्यवस्था फैल जाती है तो सारे दावों की पोल खुल जाती है. धार्मिक अयोजन स्थलों पर अव्यवस्था कोई नई बात नहीं है.

लेकिन हमें आयोजनों से पहले इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि हम इस तरह पुख्ता इंतजाम की व्यवस्था करें, जिससे जन की हानि को रोका जाए.

कुंभ धार्मिक मान्यता के अनुसार, चक्रिय व्यवस्था है. 12 साल पर कुंभ लगता है. प्रयाग और हरिद्वार में जहां यह गंगा के तट पर आयोजित होता है, वहीं उज्जैन में क्षिप्रा जबकि नासिक में पवित्र गोदावरी किनारे आयोजित होता है.

हालांकि इस अव्यवस्था के पीछे मानवकृत अव्यस्था नहीं हैं. प्रकृति पर किसी का नियंत्रण नहीं है, इसलिए इन मौतों पर किसी को गुनाहगार ठहराना नाइंसाफी होगी. लेकिन धार्मिक आयोजनों में लापहरवाही और भगदड़ से होने वाला हादसा भी सच है, जिससे हम इनकार नहीं कर सकते.

पिछले दिनों केरल के देवी मंदिर में आतिशबाजी के चलते हुई मौत हमारी आंख खोलने के लिए काफी है. दो साल पहले बिहार की राजधानी पटना में दशहरा उत्सव के दौरान मची भगदड़ में 33 बेगुनाहों की मौत हुई थी. यह घटना अधिक भीड़ और भगदड़ मचने से हुई थी.

इंटर नेशनल जर्नल ऑफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, देश में 79 फीसदी हादसे धार्मिक अयोजनों में मची भगदड़ और अफवाहों से होते हैं. 15 राज्यों में पांच दशकों में 34 से अधिक घटनाएं हुई हैं, जिनमें हजारों लोगों को जान गंवानी पड़ी है. दूसरे नंबर पर जहां अधिक भीड़ जुटती हैं, वहां 18 फीसदी घटनाएं भगदड़ से हुई हैं. तीसरे पायदान पर राजनैतिक आयोजन हैं, जहां भगदड़ और अव्यवस्था से तीन फीसदी लोगों की जान जाती है.

नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार, देश 2000 से 2012 तक भगदड़ में 1823 से अधिक लोगों जान गंवानी पड़ी है. 2013 में तीर्थराज प्रयाग में आयोजित महाकुंभ के दौरान इलाहाबाद स्टेशन पर मची भगदड़ के दौरान 36 लोगों अपनी जान गंवानी पड़ी थी, जबकि 1954 में इसी आयोजन में 800 लोगों की मौत हुई थी.

उस दौरान कुंभ में 50 लाख लोगों की भीड़ आई थी. 2005 से लेकर 2011 तक धार्मिक स्थल पर अफवाहों से मची भगदड़ में 300 लोग मारे जा चुके हैं. राजस्थान के चामुंडा देवी, हिमाचल के नैना देवी, केरल के सबरीमाला और महाराष्ट्र के मंडहर देवी मंदिर में इस तरह की घटनाएं हुई हैं.

भारत में धर्म और आस्था को लेकर लोगों का खूब अटूट विश्वास है. धार्मिक भीरुता भी हादसों का करण बनती हैं. हम एक भूखे, नंगे और मजबूर की सहायता के बजाय दोनों हाथों से धार्मिक उत्सवों में दान करते हैं और अनीति, अधर्म और अनैतिकता का कार्य करते हुए भी हम भगवान और देवताओं से यह अपेक्षा रखते हैं कि हमारे सारे पापों धो डालेंगे.

निश्चित तौर पर धर्म हमारी आस्था से जुड़ा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम धर्म की अंध श्रद्धा में अपनी और परिवार की जिंदगी ही दांव पर लगा बैठें. धार्मिक स्थलों पर हादसे हमारी व्यवस्था पर सवाल खड़ा करते हैं.

धार्मिक आयोजनों में बेगुनाहों की मौत अपने आप में एक बड़ा सवाल है. धार्मिक स्थलों पर उमड़ी भीड़ के साथ इस तरह के हादसे दुनिया भर में होते हैं. लेकिन हादसे न हों अभी तक ऐसी कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं हो सकी है, जिससे बेगुनाहों की मौत होती है.

भीड़ को नियंत्रित करने का हमारे पास कोई सुव्यवस्थित तंत्र नहीं है. देश में आए दिन इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं, जिससे दर्जनों बेगुनाहों की जान चली जाती है. सरकार की ओर से लोगों को मुआवजा देकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर ली जाती है, लेकिन सरकार या व्यवस्था से जुड़े लोगों का ध्यान फिर इस ओर से हट जाता है. यही लापरवाही हमें दोबारा दूसरे हादसों के लिए जिम्मेदार बनाती है.

अखिरकार सवाल उठता है कि धार्मिक उत्सवों और आयोजनों में ही भगदड़ क्यों मचती है? प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए पहले इंतजाम क्यों नहीं किए जाते हैं. उस तरह की पंडालों की डिजाइन क्यों बनाई जाती है. उन्हें मजबूती क्यों नहीं दी जाती है.

मानक के विपरीत भारी भरकम पंडाल कैसे कर लिए जाते हैं. उस पर स्थानीय प्रशासन मौन रहता है, क्योंकि सवाल आस्था से जुड़ा होता है इसलिए सभी के मुंह और आखों पर पट्टी लग जाती है. दूसरी बात यहां की राजनीति धर्म से भी जुड़ी है. इस कारण लोगों को मनमानी करने की खुली छूट मिल जाती है. इस तरह के हादसे कई परिवारों को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करते हैं, जहां से वे पुन: अपनी दुनिया में नहीं लौट पाते.

अकारण की परिवार का मुखिया, बेटी, पत्नी, मां, या पिता शिकार हो जाते हैं, जिन पर पूरी जिंदगी के सपने टिके होते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिंहस्थ हादसे पर दुख जताया है. केरल हादसे के दौरान वे खुद घायलों को देखने अस्पताल पहुंच गए थे. यह अच्छी बात है. यह उनकी नैतिक जिम्मेवारी भी बनती है. लेकिन सरकार को भी इस तरह के हादसों पर नियंत्रण रखने के लिए मास्टर प्लान तैयार करना होगा.

आयोजन स्थलों पर भीड़ की आमद को भी संयमित और संरक्षित करना होगा, ताकि बेगुनाहों की मौत को रोका जा सके. धार्मिक अयोजनों से पहले हमें मानवीय और प्राकृतिक आपदाओं के सभी पहलुओं पर विचार करना होगा. तभी हम इस तरह के धार्मिक आयोजनों को निर्विघ्न संपन्न करवाने में कामयाब होंगे.

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