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कुदरत से सीखें इंसान

सुनील कुमार
एक खबर है कि इन्फोसिस के सह संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने कहा कि छात्रों को महत्वपूर्ण क्षेत्रों विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित में पीएचडी के लिए भेजना जरूरी है. उन्होंने कहा, भारत और अमरीका को आपस में एक करार करना चाहिए. यह क्रम अगले 50 साल तक जारी रखना होगा. हर साल इस पर करीब 330 अरब रुपए का खर्च आएगा, पर इसका फायदा कई गुना ज्यादा मिलेगा. मूर्ति के मुताबिक, ये छात्र अपने-अपने क्षेत्रों में आने वाली समस्याओं के हल के लिए तैयार रहेंगे. मूर्ति के मुताबिक, करार में यह शामिल होना चाहिए कि पीएचडी के बाद छात्र अमरीका में रोजगार नहीं कर पाएंगे. वे भारत आकर कम से कम 10 साल तक अपनी सेवा प्रदान करेंगे. इससे अमरीका को भी फायदा होगा.

कहने के लिए तो भारत में कदम-कदम पर विश्वविद्यालय खुल गए हैं, लेकिन उनमें पढ़ाई-लिखाई का हाल स्कूलों के बदहाल से बेहतर नहीं है. इसकी और बहुत सी वजहों के अलावा एक बड़ी वजह यह भी है कि हिन्दुस्तान में पुरानी पीढ़ी न खुद एक बक्से जैसी सोच से निकल नहीं पाती, और नई पीढ़ी को बक्से में ढालना चाहती है, अपने खुद के बनाए हुए बक्सों में अपने बच्चों को फिट करने में हिन्दुस्तानियों को बहुत सुकून मिलता है.

यहां के लोगों की सोच को अगर किसी सामान से बयां करना हों, तो जापान में इन दिनों उगाए जा रहे चौकोर तरबूजों की मिसाल दी जा सकती है जिन्हें चौकोन डिब्बों में कैद करके बढऩे दिया जाता है, और वे उसी फ्रेम का चौकोर आकार ले लेते हैं. ये गोल तरबूतों के मुकाबले जगह कम घेरते हैं, इनकी पैकिंग आसान होती है, इन्हें एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में ट्रकों की जगह बर्बाद नहीं होती, और सबसे बड़ी बात यह कि मशीनें इन तरबूजों को पल भर में चारों तरफ से काटकर धर देती हैं, बिना किसी बर्बादी के. यही अगर गोल तरबूज की बात होती, तो उसे मशीनों से काटना मुमकिन नहीं होता.

हिन्दुस्तानी विश्वविद्यालय इसी चक्कर में रहते हैं कि पीएचडी तक अगर कोई नौजवान पहुंच भी जा रहे हैं, और अपनी जिद छोड़ नहीं रहे हैं, तो पहले से जिस विषय पर दर्जन भर पीएचडी हो चुकी है, उसी से कट एंड पेस्ट करके एक और पीएचडी हो जाए. पढ़ाने वालों और पीएचडी के गाईड इस दहशत में रहते हैं कि छात्र-छात्राएं कहीं किसी मौलिक सोच को लेकर न आ जाएं. क्योंकि मौलिक सोच बहुत से ऐसे नए सवाल लेकर आती हैं जिनके जवाब पीली पड़ चुकी पुरानी किताबों में मास्टरों को नसीब नहीं होते. मौलिक सवालों के लिए जवाब देने वालों को भी मौलिक सोच की जरूरत पड़ती है, और वह काम खासी मशक्कत का भी होता है.

इसलिए भारत में मौलिकता एक किस्म की दहशत पैदा करती है. घर में छोटे बच्चे मां-बाप से कोई मौलिक सवाल करने लगें, तो मां-बाप उनको बाहर खेलने जाने की नसीहत देने लगते हैं. स्कूल में अधिक सवाल करने पर बच्चों को शरारती या बदमाश मान लिया जाता है. कॉलेज में कोई अगर अधिक सवाल करे तो उसे साथ के लोग डेढ़ होशियार कहने लगते हैं, और पढ़ाने वाले उसे परेशान करने वाला मान बैठते हैं. यह सिलसिला इस देश में पीएचडी के लिए जरूरी सोच की एक मौलिकता को पनपने ही नहीं देता, और यही वजह है कि नारायण मूर्ति ने पीएचडी के लिए लोगों को अमरीका भेजने की बात कही है.

अमरीका में न सिर्फ नस्लों को लेकर, राष्ट्रीयता को लेकर, लोगों की संस्कृति को लेकर विविधता का एक बड़ा बर्दाश्त है, बल्कि सोच की विविधता, मौलिकता, लीक से हटकर नया कुछ करने के हौसले का भी बड़ा सम्मान है.

कई बरस पहले मेरी एक मित्र जो कि अमरीका के एक सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय, स्टैनफोर्ड, में प्रोफेसर हैं, उनका स्कूल में पढऩे वाला बेटा छह महीने के लिए घूमने हिन्दुस्तान आया था. छह महीने का मतलब अमरीका शिक्षा व्यवस्था में एक पूरा सेमेस्टर. कैलिफोर्निया की उसकी स्कूल ने उसे पढ़ाई से छह महीने की छुट्टी दी, और भारत को छह महीने देखने के उसके अनुभव को पर्याप्त पढ़ाई मानते हुए उसे अगले सेमेस्टर में बढ़ा भी दिया. अब हिन्दुस्तान में किसी स्कूल को लेकर यह कल्पना नहीं हो सकती कि ऐसे किसी बच्चे को स्कूल से निकालने से कम कुछ किया जाएगा.

अमरीकी समाज से लेकर, अमरीकी स्कूल और कॉलेज तक, परंपराओं के कैदी रहने के बजाय नई पगडंडियां बनाने का हौसला बढ़ाते हैं. लोगों के पढऩे के घंटे लचीले रहते हैं, काम की जगह लचीली रहती है, इंसानों को एक लचीली कुदरत का बनाया हुआ माना जाता है, और उसके तन-मन को किसी बक्से में कैद करने की कोशिश नहीं की जाती. नतीजा यह होता है कि हौसले के साथ उपजी हुई मौलिकता लंबे सफर तय करती है, और एक काटे हुए जूठे सेब को दुनिया का सबसे बड़ा ब्रांड बनाकर छोड़ती है, दुनिया की भाषाओं में अनसुने याहू और गूगल जैसे शब्दों को बहुत बड़ा कामयाब कारोबार बना देती है, और फेसबुक बनाकर एक नौजवान दुनिया के आधा दर्जन सबसे रईसों में शामिल भी हो जाता है, और 32 बरस की उम्र में दुनिया का सबसे बड़ा दानदाता बनने का हौसला भी जुटा लेता है.

हिन्दुस्तान में लोग अपनी अगली पीढ़ी को अपनी जायदाद देकर उस पीढ़ी को आसमान तक पहुंचाना मान लेते हैं, यहां के स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय लोगों को एक डिग्री या सर्टिफिकेट देकर उन्हें महान बनाया मान लेते हैं, और देश में कुछ दर्जन मौलिक कारोबारियों की कामयाबी को देश की कामयाबी मान लेते हैं. आज जब इंटरनेट की मेहरबानी से पूरी दुनिया एक कस्बा बन चुकी है, और स्टीव जॉब्स से लेकर मार्क जुकरबर्ग तक की कामयाबी रोजाना किस्तों में हिन्दुस्तानियों को भी देखने मिलती है, तब भी यहां मौलिकता और दुस्साहस की कोई जगह नहीं है. जिस तरह खेत में कोई जंगली घास दिखने पर फसल को बचाने के लिए उसे तुरंत उखाड़कर फेंक दिया जाता है, आम हिन्दुस्तानी सोच जहां कहीं मौलिकता और दुस्साहस देखती है, उसे आनन-फानन उखाड़कर फेंकती है कि कहीं वह बढ़ न जाए, आसपास फैल न जाए.
ऐसा देश बहुत ही कम मौलिक शोध करने के लायक है, और मौलिकता की मिसालें गिनाने के लिए भी गिनी-चुनी ही हैं. इसलिए जो बात नारायण मूर्ति ने कही है, उस पर सोचने की जरूरत है, सरकार भी सोचे, समाज भी सोचे, और पूंजीनिवेशकों के साथ-साथ परिवार भी सोचें. अभी जो बात नारायण मूर्ति ने कही है, उसमें एक मौलिक बात यहां पर यह जोडऩा ठीक रहेगा कि क्या प्रतिभाओं पर पूंजीनिवेश करके उनसे कमाई करने की सोच भी बाजार पा सकता है? क्या ऊंची पढ़ाई, और पीएचडी जैसे शोध करने के लिए नौजवान पीढ़ी पर पूंजीनिवेशक पूंजी लगा सकते हैं? आज जब लोग कागजों पर चल रही कंपनियों के शेयर खरीदने पर रोज अरबों लगाते हैं, तो
क्या एंजल इन्वेस्टर ऐसे भी हो सकते हैं जो कि स्कूल और कॉलेज से होते हुए पीएचडी और उसके बाद की काबिलीयत के लिए पूंजीनिवेश करके उससे कमाई का रास्ता निकाल सकें? दुनिया में अलग-अलग बहुत किस्म के पूंजीनिवेशक होते हैं, नए-नए उद्यमशील लोगों पर भी पूंजी लगाने वाले लोग हैं, और वे भी कई लोगों पर रकम डुबाकर, कुछ लोगों से ही इतना कमा लेते हैं कि कुल मिलाकर फायदे में रहते हैं. क्या भारत में भी नौजवानों पर पूंजीनिवेश करके उनसे कमाने का एक बाजार शुरू हो सकता है? इसके लिए पूंजीनिवेशकों को भी सोच के बक्से से बाहर निकलने की जरूरत है.

कुदरत ने कुछ भी चौकोर नहीं बनाया है, न ग्रह चौकोर हैं, न चट्टानें, न पेड़, न पत्ते, और न ही कोई फल चौकोर है. इंसानों को कुदरत से सीखने की जरूरत है.

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