Columnist

सत्ता और जनता, दो तबके..

सुनील कुमार
मुम्बई में अभी दो दिन पहले अतिउत्साही पुलिस ने एक होटल पर छापा मारा और 40 कमरों में ठहरे हुए लोगों को पकड़कर पुलिस थाने ले गई. पुलिस का कहना था कि होटल में बिना शादीशुदा जोड़े भी रूके हुए थे, और यह सार्वजनिक जगह पर अश्लीलता थी इसलिए कानून के तहत उन पर कार्रवाई की गई. लोगों का कहना था कि वे तमाम बालिग लोग थे, बहुत से लोग शादीशुदा थे, और सभी लोग आपसी सहमति से रूके हुए थे, और उसमें कोई अश्लीलता नहीं थी.

देर रात बंद कमरों को खुलवाकर लोगों को बाहर निकालकर, पुलिस स्टेशन ले जाकर सार्वजनिक जगह पर अगर कोई अश्लीलता पेश की, तो वह तो पुलिस ने की. लेकिन पुलिस का यह हाल सारे देश में है जबकि हर प्रदेश में पुलिस वहां की राज्य सरकार के मातहत काम करती है, और हर प्रदेश की संस्कृति अलग है, इसके बावजूद अपने को मिले हुए अधिकारों के बेजा इस्तेमाल में कश्मीर से कन्याकुमारी तक खाकी वर्दी का हाल एक सा दिखता है. अधिक फिक्र की बात यह है कि देश के सबसे बड़े महानगर और कारोबार के सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय केन्द्र मुम्बई में अगर पुलिस का यह हाल है, तो वहां क्या तो बाहर से कारोबारी आकर रहना चाहेंगे, और क्या ही वहां पर्यटक रहना चाहेंगे.

लेकिन इससे भी परे जो दूसरी बात अधिक फिक्र की है, वह यह कि जिस देश में सुप्रीम कोर्ट कई-कई फैसलों में बिना शादी के जोड़ों के साथ जीने के हक को, उनके कानूनी दर्जे को मान्यता दे चुका है, उसे पूरी तरह कानूनी ठहरा चुका है, यहां तक कि लिव इन रिलेशनशिप वाले जोड़ों के अगर बच्चे होते हैं, तो जायदाद में ऐसे बच्चों के हक के बारे में भी सुप्रीम कोर्ट फैसला दे चुका है, तब फिर किसी जोड़े के आपसी सहमति से घर पर रहने, या होटल में रूकने में पुलिस का क्या दखल बनता है?

अब सोशल मीडिया की मेहरबानी से उदारवादियों से लेकर कट्टरपंथियों तक हर किसी की आवाज तुरंत गूंजने लगती है, और मुम्बई में पुलिस के इस बर्ताव के खिलाफ जिस तेजी से नौजवान पीढ़ी ने और उदार तबके ने सोशल मीडिया पर पुलिस की धज्जियां उड़ाईं, उसे देखते हुए मुम्बई के पुलिस कमिश्नर ने दो दिन के भीतर ही पुलिस की इस कार्रवाई की जांच शुरू करवा दी है. लेकिन इसके पहले होटल में ठहरे लोगों को जिस तरह से देर रात कमरों से निकालकर थाने ले जाया गया, वहां पर पुलिस ने लोगों को मारा-पीटा, महिलाओं को भी पीटा, उससे कुछ बुनियादी सवाल उठते हैं जिन पर पुलिस से परे बाकी सरकार से भी जवाब मांगना चाहिए.

पुलिस के हाथ हिन्दुस्तान में कब तक ऐसे अधिकार जारी रखे जाएंगे, जो बनाए ही गए थे बेजा इस्तेमाल के लिए, और जो पुलिस को भ्रष्ट बनने में औजार और हथियार की तरह काम आते हैं. किसी गरीब, या बेघर को जब पुलिस गिरफ्तार करके कैद करना चाहती है, तो उसके हाथ एक ऐसा कानून है जिसमें उसे गिरफ्तारी के साथ बस इतना दर्ज करना होता है कि वह व्यक्ति चोरी की नीयत से, लुकी-छिपी हालत में पाया गया. अब सवाल यह उठता है कि किसी व्यक्ति की नीयत साबित करने के लिए लंबी-चौड़ी अदालती कार्रवाई के बाद किसी-किसी मामले में नारको टेस्ट की इजाजत मिलती है, और ऐसे टेस्ट के बिना, बिना किसी प्रयोगशाला के, सड़क से गुजरता सिपाही पल भर में यह तय कर लेता है कि किसी आदमी की नीयत क्या थी. इसके अलावा किसी दुकान के बाहर चबूतरे पर सोए हुए बेघर इंसान के बारे में यह तय करना भी उतना ही आसान है कि वह लुक-छिपकर वहां सोया था.

दरअसल सुप्रीम कोर्ट के अनगिनत फैसलों के बाद भी सरकारों पर उनका कोई फर्क नहीं पड़ता. आज यहां लिखने का मकसद सिर्फ पुलिस के बारे में लिखना नहीं है, देश की सबसे बड़ी अदालतों के फैसलों पर सरकारों का क्या रूख रहता है, यह फिक्र की बात है. जो बातें सरकारों की अपनी जिम्मेदारी होनी चाहिए, वे बातें भी अगर अदालत के हुक्म की शक्ल में आने की नौबत आती है, और उसके बाद भी अनसुनी कर दी जाती है, तो ऐसी नौबत के खिलाफ भारतीय लोकतंत्र में बहुत अधिक इलाज रखे भी नहीं गए हैं.

शहरी जिंदगी को देखें, तो सड़कों पर जुलूस से लेकर राजनीतिक दलों और संगठनों के करवाए गए बंद तक, बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें कई प्रदेशों के हाईकोर्ट और कई बार सुप्रीम कोर्ट ने फैसले दिए हैं, लेकिन उन पर राज्य सरकारें अमल नहीं करतीं. सड़कों पर या सार्वजनिक जगहों पर लाऊड स्पीकरों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के साफ-साफ फैसले के बावजूद राज्यों में उन पर कहीं अमल नहीं होता.

सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी और सार्वजनिक जगहों पर अवैध कब्जा करके धर्मस्थलों के अवैध निर्माण के बारे में बड़ा कड़ा फैसला दिया है, और जिला कलेक्टरों को इसके लिए सीधा जिम्मेदार ठहराया है. लेकिन यह फैसला आए शायद दस बरस हो रहे हैं, और हम अपने आसपास जितने जिलों को देख पाते हैं, उनमें से किसी कलेक्टर के चेहरे पर ऐसे अवैध निर्माण से शिकन भी नहीं पड़ती, और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हर सड़क पर ऐसे अवैध निर्माण लगातार हुए हैं, उनकी तस्वीरें छपती रही हैं, और अफसरों ने कोई कार्रवाई नहीं की. बाकी देश का भी ऐसा ही हाल दिखता है. धर्म के आतंक के तले चलती राजनीति कभी जनहित को कट्टरता के ऊपर नहीं रख पाएगी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मदद से भी अफसरों ने भी यह हौसला शायद ही कहीं दिखाया हो.

जब सरकारों को चलाने वाले लोग, नेता और अफसर दोनों ही अपने अधिकारों का अधिकतम इस्तेमाल, और अपनी जिम्मेदारी की अधिकतम अनदेखी करके आसानी से रह सकते हैं, तो अदालतें सड़कों पर झाड़ू लगाने तो निकल नहीं सकतीं. भारत के संविधान में संसद, अदालत, और सरकार के बीच रिश्तों का एक संतुलन बनाया गया है, अदालतें सरकार नहीं चला सकतीं, संसद रोज के रोज अदालतों को लेकर कानून नहीं बना सकतीं, और सरकार संसद नहीं चला सकतीं. लोकतंत्र के इन तीनों पायों को लोकतंत्र की तिपाई का संतुलन बनाकर उसे खड़ा रखना चाहिए. लेकिन आज ये पाये अगर अपने आपको बाकी दोनों पायों से ऊपर समझें, तो ऐसा एक पाया लोकतंत्र को नहीं ढो सकता.

राज्य सरकारों की नीयत में, और उनके बर्ताव में अगर न लोकतंत्र की बुनियादी सोच के लिए सम्मान है, और न ही संविधान में आम लोगों को दिए गए हक के लिए कोई इज्जत है, और न ही सुप्रीम कोर्ट के दिए हुए आदेश-निर्देश की कोई फिक्र है, तो इस देश में आज भी आम जनता का हाल वैसा ही है जैसा कि अंग्रेजों के वक्त था. आज भी एक खास और एक आम के बीच अगर कोई लड़ाई होती है, तो उस आम के कुचले जाने से कम और कुछ नहीं हो सकता. यह बात बार-बार दिखती है जब उत्तर भारत के अधिकतर राज्यों में, और मध्यप्रदेश में कुछ अधिक ही, दलितों को बलात्कार और हत्या के लायक ही मान लिया जाता है, और सरकारें आजादी की पौन सदी तक भी कुछ कर पाती नहीं दिखती हैं. जगह-जगह दलितों पर जुल्म सामने आते हैं, खबरों में छपता है कि दबंगों ने क्या-क्या किया, लेकिन ऐसे दबंगों को अदालती इंसाफ तक पहुंचाने का काम भी सरकारें नहीं कर पाती हैं, और शायद करना भी नहीं चाहती हैं.

अभी चार दिन बाद आजादी की सालगिरह आने को है, चारों तरफ फिर एक ऐसे इतिहास की तारीफ में कसीदे पढ़े जाएंगे, जिस इतिहास का आज के वर्तमान में कोई लेना-देना नहीं रह गया है. छत्तीसगढ़ में जगह-जगह यह सालगिरह मनाई जाएगी, बिना यह देखे कि इस राज्य के मूल निवासी जो आदिवासी हैं, वे आज किस तरह के पुलिस जुल्म और किस तरह के पुलिस राज में जी रहे हैं. आए दिन बस्तर से खबर आती है कि किस तरह फर्जी मुठभेड़ में बेकसूरों को मार डाला जाता है, लोगों को नक्सली बताने की फर्जी कहानियां गढ़ी जाती हैं, और किस तरह पुलिस असली बलात्कार करती है, लेकिन इन सब को देखे बिना, सुप्रीम कोर्ट में खड़ी हुई पुलिस और सरकार भी बेपरवाह हैं कि सरकार के खिलाफ लडऩे की आम लोगों की ताकत कहां तक काम आएगी?

यह पूरा देश एक पुलिस राज है, और पुलिस के बारे में एक हाईकोर्ट के एक जज का लिखा हुआ ऐतिहासिक फैसला किसी को नहीं भूलता कि भारत में पुलिस एक वर्दीधारी गुंडा है. इस देश के लोग तभी तक हिफाजत से हैं, जब तक कि पुलिस को उनको कुचलने की कोई वजह नहीं है. और ऐसी पुलिस जब बाकी अफसरों और बाकी नेताओं के मातहत काम करती है, तो फिर सत्ता और जनता ये दो तबके एक खाई के दो तरफ हैं, एक तबका वर्दी तले का बूट है, और दूसरा तबका कुचले जाने की नौबत में जमीन पर बिछा हुआ है. इसी खाई के एक तरफ आजादी का झंडा सरकारी इमारतों पर, सरकारी खर्च से फहराया जाएगा, और खाई के दूसरी तरफ की जनता से यह उम्मीद की जाएगी कि वह इस झंडे के सामने राष्ट्रगान में खड़ी रहे.

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