छत्तीसगढ़प्रसंगवश

दंतेवाड़ा बने देश में शिक्षा का मॉडल-आनंद कुमार

रायपुर | सुरेश महापात्र: सुपर 30 के संस्थापक आनंद कुमार का मानना है कि अगर बच्चा पढ़ने के लिए तैयार नही है

तो केवल संरचना से उसे योग्य नही बनाया जा सकता है. शिक्षा के लिए शिक्षक और विद्यार्थी के बीच संबंध और विश्वास भी आवश्यक है. हाल ही में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा से लौटे आनंद कुमार इस बात पर चकित हैं कि जिस आधारभूत संरचना का विकास दंतेवाड़ा के जावंगा में किया गया है, उसे लेकर अब तक बड़ी चर्चा क्यों नही हो पाई है? आनंद कुमार का मानना है कि यह दुनिया का अपनी तरह का इकलौता उदाहरण है और इस मॉडल को देश भर में लागू कर शैक्षिक विकास को बढ़ावा दिया जा सकता है. अपने सुपर 30 कार्यक्रम से विख्यात आनंद कुमार बस्तर मे भी प्रतिभा तलाशने और उसे तरासने की योजना पर विचार कर रहे हैं. यहां पेश है, उनसे की गई बातचीत का एक अंश.

सुपर 30 की शुरूवात कैसे हुई?
हमने नहीं सोचा था कि इतना नाम हो जाएगा. इस तरह से हम काम कर पाएंगे. बस ऐसे ही दंतेवाड़ा के कलेक्टर रहे ओपी चौधरी की तरह बस एक शुरूवात की थी. एजुकेशन सिटी की तरह लोग हमें जानेंगे हमने कभी नहीं सोचा था. हमारे यहां, हमारी मां बोली कि बड़ा अच्छा बच्चा है. वह पढ़ाई कर रहा था उसे देखकर मां बोलने लगी कि बड़ा सुपर बच्चा है. एक-एक कर बच्चे बढ़ते गए और इस तरह से सुपर 30 बन गया.

आपके अतीत में एक सेटबैक रहा जब आप कैंब्रिज के लिए चुने गए थे और वहां तक नहीं पहुंच पाए थे. क्या था पूरा मामला? फिर अचानक ऐसी कौन सी बात हुई कि आपने अपनी दिशा ही बदल दी?
एक लड़का था, उसका नाम है अभिषेक. अभी वह मास्को में है सलमबर्जर कंपनी में काम भी कर रहा है. वह बच्चा नालंदा का रहने वाला था. उसकी मां सौ रुपया महीने पर काम करती थी. उसके पिता बेरोजगार थे. वह हमारे पास आया और कहा कि सर, हम पढ़ना चाहते हैं. पैसा भी हम देंगे लेकिन जब पिता जी निकालेंगे तब देंगे. अभी हमारे पास पैसा नहीं है. हमने कहा ‘पैसा तो तुम बाद में दे दो…. लेकिन यह बताओ कि रहोगे कैसे?’ उसने बताया ‘सर, एक बड़े आदमी हैं, अमीर आदमी हैं. उन्हीं के मकान की रखवाली करते हैं.’ हमने कहा- बताओ एड्रेस? मैं वहां उसकी पड़ताल के लिए पहुंचा. सच में वह एक छोटे से कमरे में रहकर चौकीदारी का काम करता था. बंद मकान में पसीने से लथपथ वह मिला. वहां मुझे उद्देश्य मिला कि ऐसा बच्चा, जो हाउसगार्ड होकर पढ़ रहा है, कुछ करना चाहता है. हम लोगों को उसके लिए कुछ काम करना चाहिए. आकर मां से इस बारे में बात की. भाई से बात की. दोनों ने कहा कि घर ले आओ. इसके बाद यह विचार किया कि क्यों ना कुछ और बच्चों को लाया जाए. जिन्हें बिना पैसा लिए पढ़ाया जा सके. तब तय हुआ कि हम 30 बच्चों को खिला-पिलाकर पढ़ा सकते हैं.

आपके बारे में पढ़ा है कि आपका फाइनेंसियल बैकग्राउंड वैसा नहीं था तो आपने कैसे इतनी बड़ी सहायता के बारे में योजना बनाई?
हमें अपने पढ़ाने पर भरोसा था. हमें लगा कि शाम को हम ट्यूशन पढ़ाते हैं. इससे इतनी आमदनी जरूर हो जाएगी कि जिससे मेरा खर्चा निकल जाएगा.

आप शुरूवाती दिनों में कितना पैसा लेते थे फीस के रूप में. जिससे 30 बच्चों के लिए अतिरिक्त व्यवस्था करने की स्थिति बनी.
हम प्रति विषय 500 रुपए लेते थे. जिससे यह व्यवस्था कर लेंगे यह उम्मीद थी.

अभी कितने बच्चे पढ़ते हैं?
अभी सौ-सवा सौ बच्चे पढ़ते हैं. उसमें उनसे एक सब्जेक्ट पढ़ने का आठ हजार रुपया एक साल का लेते हैं. मैं मैथ्स पढ़ाता हूं. इसके अलावा हमारे पास कुछ फेकेल्टी हैं, जो फिजिक्स, केमेस्ट्री पढ़ाते हैं.

अभी तो सुपर 30 ब्रांड बन गया है, अब आगे उसकी प्रतिस्पर्धा में और भी संस्थाएं खड़ी हो गई हैं. अभी तो आप स्थापित हो गया हैं. आगे क्या लक्ष्य है?
आगे हम बड़ा करने जा रहे हैं. इस बार हम कई जगहों पर टेस्ट ले रहे हैं. नंबर आफ स्टुडेंट्स बढ़ाएंगे. दंतेवाड़ा में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जी भी बोले कि यहां से भी बच्चे लीजिए. तो हम यहां भी टेस्ट कराने जा रहे हैं. अभी ओम प्रकाश चौधरी जी से भी विचार लेंगे और मदद लेंगे. छत्तीसगढ़ के दो-चार जिलों से या पूरे प्रदेश से. हम बस्तर के एजुकेशन सिटी में बच्चों को स्केन करेंगे. जो अच्छे बच्चे रहेंगे, उन्हें रायपुर में रखकर या जरुरत हुई तो पटना ले जाकर पढ़ाएंगे. ज्यादा मिलें, जिसमें पोटेंशियल हो या इच्छा हो तो यहां भी एक सेंटर विकसित करेंगे.

आप अभी अकेले हैं. आपने अभी तक स्टूडेंट्स को टीच किया है. क्या कभी शिक्षकों को टीच करने का विचार आया है.
अभी चार साल से हम हमारे यहां से पास आउट बच्चा, जो आईआईटी करके आया है. उसे फ्री में एक साल की ट्रेनिंग दे रहे हैं. शर्त यही रहती है कि ‘तुम पढ़ाओ और पैसे भी कमाओ. लेकिन गरीब बच्चों के लिए भी काम करो.’ पिछले दो सालों में 6 को ट्रेंड किया है.

क्या सभी बिहार के थे?
उत्तर प्रदेश, राजस्थान के थे जिन्हें ट्रेंड किया गया. वे क्लासेस ले रहे हैं. साथ-साथ गरीब बच्चों को प्रेरित भी कर रहे हैं ताकि वे भी पढ़ें और उनकी सहायता भी कर रहे हैं.

अभी आप दंतेवाड़ा गए थे. यह नक्सल प्रभावित क्षेत्र है. वहां आपने क्या महसूस किया?
हमने देखा और हमें आश्चर्य हुआ, मुझे लगा कि हम देश में नहीं बल्कि विदेश में हैं. मैं पूरे देश का कोना-कोना घुमा है, पर और ऐसा काम हमें कहीं देखने को नहीं मिला. दुर्भाग्य है कि देश इसको जानता नहीं है. ओपी चौधरी ने पूरी तन्मयता से लगकर जिस तरह से एजुकेशन सिटी को बनाया है, ये अगर पूरे देश में बन जाए तो फिर पालिटिसियन का काम खत्म हो जाएगा. अपने आप देश बदल जाएगा.

आप जहां गये थे, उस स्कूल में ऐसे बच्चे हैं, जिनके अभिभावकों को नक्सलियों ने मार दिया था.
वहां के बच्चों से मैं मिला. उनके लिए योजना है कि जरूरत पड़ती है तो हम खुद जाकर पढ़ाएंगे, यदा-कदा. क्योंकि हमें यह कान्सेप्ट बहुत अच्छा लगा. जिसका कोई नहीं है उसे ​​​शिक्षा दी जा रही है. पढ़ाई से बड़ी कोई ताकत नहीं है. इन्होंने नया कान्सेप्ट दिया कि पढ़ाई से बड़ी कोई ताकत नहीं है. इन्होंने जो कान्सेप्ट दिया कि ‘कलम उठाओ, हथियार नहीं!’ बोलने के लिए सब ऐसे डायलाग बोलते है, पर उसे मूर्त रूप से करके दिखाना, ऐसे धुर नक्सल क्षेत्र में जहां चैलेंज है, मुझे बहुत दुखद आश्चर्य हुआ कि देश इसके बारे में जानता क्यों नहीं है? वहां लाइवलीहुड कालेज है, पोर्टेबल स्कूल है, जिसे पोटा स्कूल कहते हैं. वहां बच्चे उर्जा से भरे हुये हैं. मैंने सोचा कि एक पोटा केबिन स्कूल है. बाद में पता चला कि ऐसा 40-44 स्कूल बनाये गये हैं. यह आश्चर्य की बात है. आज हमारे देश में हमारे कई मित्र आईएएस आफिसर हैं, आज की तारीख में कई चेले भी हैं. लेकिन मुझे अगर रैंक देने को कहा जाए तो मैं ओपी चौधरी को नंबर वन कहूंगा.

सुपर 30 में अब तक कितने बच्चे आईआईटी क्वालिफाई कर चुके हैं?
अब तक 420 बच्चों में से 366 बच्चे आईआईटी में गए हैं और बाकि एनआईटी क्वालिफाई हैं.

प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण के बारे में कहा जाता है कि वह आप पर आधारित है.
वह अच्छी फिल्म थी. लेकिन अभी विकास बहल जी के साथ एक फ़िल्म साइन की है, जो शार्ट फिल्म बना रहे हैं यह एक बायोपिक की तरह है जो मुझ पर और बच्चों पर आधारित है. इसमें कोई नाम भी नहीं बदला जाएगा. जो है, वही सब होगा.

आपको सबसे ज्यादा किसने मोटिवेट किया है?
हमारे शिक्षक और हमारे पिता जी थे, जिनसे प्रेरणा मिली. शुरूआती दिनों में डीपी वर्मा साहब, एससी वर्मा सर का नाम सुने होंगे, जिनकी फिजिक्स की किताब है. दोनो भाई हैं. दोनो अभी भी साथ में रहते हें. डीपी वर्मा विद्याभारती के प्रमुख और पटना साइंस कालेज के एचओडी थे. दूसरी बात यह हुई कि पिताजी बहुत इंस्पायर करते थे. वे कहते थे- तुम्हें हम आगे बढ़ते देखना चाहते हैं. कभी दबाव में नहीं डाले कि तुम्हें इंजीनियर ही बनना है. हमेशा पढ़ने के लिए प्रेरित किया.

आपने जो पुस्तके लिखी हैं, उसमें आपने शिक्षा को बहुत महत्व दिया है. शिक्षा किस तरह से बदल सकती है?
हम तो चाहते हैं कि जिस तरह से पोटा स्कूल का कान्सेप्ट है, उसी का एक परिस्कृत रूप है जिसमें अच्छे बच्चों का एक समूह है, उन्हें अलग कर पढ़ाया जाना चाहिए. ऐसा किया जा सकता है. यहां सरकार तत्पर है. और यहां अच्छे अधिकारी भी हैं.

बड़ी संख्या में जब बच्चे आएंगे तो गुणवत्ता पर असर भी पड़ेगा?
हां, असर तो पड़ेगा ही. पर सच्चाई यह है कि जो पढ़ेगा, वह कुछ तो करेगा ही. आईआईटी हो या एनआईटी हो. हमारा फोकस तो उन बच्चों पर भी होना चाहिए जो अब तक 40 फीसदी अंक लेकर आता है तो अगर उसे 60 प्रतिशत में लाकर खड़ा करने में कामयाब हो गए तो वह भी सफलता है. संख्या गिनाने से बड़ी आवश्यकता ज्यादा से ज्यादा बच्चों को सफल करना होना चाहिए. इससे ही बदलाव आएगा. जिसके पास कुछ नहीं है, वह अपने परिवार का पहला है अंग्रेजी पढ़ रहा है. पढ़कर अगर क्लर्क भी बनता है तो वह अपने बच्चे को आईएएस बनाने की दिशा तो दिखा सकता है.

युवाओं के लिए आपका क्या संदेश होगा?
हम एक ही बात कहेंगे जो स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है, जो हमने अपनी जिंदगी में स्वीकार किया है- जो तुम दिल से चाहोगे वैसे ही करने लग जाते हो और वही बन जाते हो. तो चाहत होनी चाहिए. अपनी इच्छा को पूरी करने के लिए श्रम करना चाहिए. सकारात्मक सोच के साथ प्रयत्नशील रहना चाहिए. विश्वास बनाए रखें.

भाषा कितना बड़ा अवरोध है?
हमारे बच्चे चल जाते हैं. जरूरत के मुताबिक अग्रेजी के माध्यम से ही पढ़ना होता है. हम पढ़ाते इंग्लिश में हैं और बोलते हिंदी में हैं. बाधा तो है. बस्तर के बच्चों को अंग्रेजी में तैयारी करवाना चाहिए.

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