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दंतविहीन यूजीसी की ओर

यूजीसी यानी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की जगह नई संस्था बनाने की दिशा में सरकार लगातार काम कर रही है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने भारत के उच्च शिक्षा को छह दशकों तक चलाया है. दूसरे संस्थानों की तरह इसे भी कई तरह की जिम्मेदारियों की वजह से परेशानियों का सामना करना पड़ता है. इसकी वजह कई तरह के बदलावों के साथ-साथ इसके संसाधनों में आई कमी भी है. अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि भारत सरकार यूजीसी को वित्तीय अधिकार देने वाले कानून को खत्म करने का निर्णय वाकई इसके कामकाज से असंतुष्ट होकर लिया है. न ही अब तक यह स्पष्ट हो पाया है कि यूजीसी की जगह जो नई संस्था लेगी उसका विजन क्या होगा.

प्रस्तावित उच्च शिक्षा आयोग यूजीसी के अधिकांश काम करेगा. लेकिन यूजीसी का वित्तीय अधिकार नई संस्था के पास नहीं होगा. अब यह काम मानव संसाधन विकास मंत्रालय करेगा. अकादमिक क्षेत्र में यह बात हो रही है कि ऐसा करने से मंत्रालय की ताकत बढ़ जाएगी और उच्च शिक्षा में जो थोड़ी-बहुत स्वायत्तता बची हुई है, वह और कम हो जाएगी.

वहीं दूसरी तरफ सरकार कई विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों का जिक्र करती है. इसमें ही एक पेंच है. दशक भर पहले यशपाल समिति और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने यूजीसी की भूमिकाओं पर विचार किया था. इन दोनों समितियों की सिफारिशों को यूजीसी खत्म करने की सहमति के तौर पर पेश किया जाता है. हालांकि, इनकी सिफारिशें किन बातों पर आधारित थीं, उनकी कोई परवाह नहीं है.

ज्ञान आयोग निजी क्षेत्र को अपने हिसाब से काम करने की छूट देना चाहता था तो यशपाल समिति अलग-अलग शिक्षा नियामकों के कामकाज में दोहराव का विषय देख रही थी. यशपाल समिति ने तो कभी भी यूजीसी को खत्म करने की सिफारिश ही नहीं की. इसने विलय की बात की थी. इसके तहत यूजीसी को वित्तीय मामले देखने थे और नई संस्था को पाठ्यक्रम तैयार करने और शोध को बढ़ावा देने जैसे काम करने थे.

अब वित्तीय अधिकार यूजीसी से लेकर मंत्रालय को देने की बात चल रही है. यह यशपाल समिति की सिफारिशों के उलट है. हालांकि, कई तरह की पेशेवर शिक्षा को प्रस्तावित संस्था के तहत लाना यशपाल समिति की सिफारिशों के अनुकूल ही है. सरकार को यह मालूम है कि वित्तीय अधिकार अपने हाथ में लेने से किस तरह का संशय पैदा होगा. इसलिए वह पारदर्शिता के साथ संसाधनों के ऑनलाइन वितरण की बात कर रही है.

जिस गति से सरकार यूजीसी को खत्म करने का विधेयक संसद में पारित कराना चाहती है, वह हैरान करने वाला है. ऐसा इसलिए क्योंकि उच्च शिक्षा के बजट में लगातार कटौती हुई है. उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र की बढ़ती धमक और उनके वित्तीय मामलों में कोई नियमन नहीं होने से यह पता चलता है कि भविष्य में नीतिगत झुकाव किस ओर रहने वाला है.

चार साल से मंत्रालय नई शिक्षा नीति बनाने की कोशिश कर रही है जो 1986 की नीति की जगह ले सके. इसमें हो रही देरी से आशावादी भी निराश होने लगे हैं. कस्तूरीरंगन समिति को इसका मसौदा सितंबर, 2018 तक तैयार करने का काम दिया गया है.

कोई भी यह मान सकता है कि नई नीति के मसौदे में उच्च शिक्षा के वित्तीय जरूरतों और इसमें यूजीसी की भूमिका का जिक्र होगा. लेकिन इसके आने के तीन महीने पहले ही यूजीसी की भूमिकाओं को काफी कम करने वाला कानून संसद में पेश करने से प्रस्तावित नीति की प्रासंगिकता कम होगी. यह सोचा जाना चाहिए था कि नई शिक्षा नीति आने के पहले कोई भी बड़ा नीतिगत निर्णय सही नहीं होगा.

सरकार की इस कोशिश से यह भी पता चलता है कि शिक्षा नीति आने के बाद अगर वह यूजीसी कानून खत्म करने की कोशिश करेगी तो संभव है कि इसे शिक्षा नीति के प्रावधानों को खिलाफ माना जाए और उसके लिए अपनी इच्छा पूरी करना मुश्किल हो जाए. यह भी माना जा सकता है कि सरकार निर्णयों के लिए प्रस्तावित शिक्षा नीति की कोई भूमिका नहीं देखती है.

1990 के दशक से देश में नीतिगत निर्णय नई आर्थिक नीति के दायरे में ही हुए हैं. शिक्षा के मामले में भी किसी सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से प्रभावित निर्णयों को लेकर चिंता नहीं दिखाई है. हालिया निर्णय भी इसी कड़ी का हिस्सा है. इससे निजी पूंजी के लिए देश के बौद्धिक जीवन और ज्ञान सृजन की प्रक्रिया पर कब्जा जमाने का रास्ता साफ होगा.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

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