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टीबी से मुकाबला बनाम आपातकाल

टीबी के खिलाफ लड़ाई और इस बीमारी पर दवाओं के बेअसर होने के खिलाफ लड़ाई में सही रणनीति अपनाने और अधिक पैसे खर्च करने की जरूरत है. बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2025 तक ‘टीबी मुक्त भारत’ का आह्वान किया. इसके बावजूद कि स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस बीमारी की भयावहता को व्यक्त करने वाली एक रिपोर्ट तैयार की है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक 2016 में दुनिया भर में एक करोड़ मामले थे. इनमें 28 लाख भारत में थे. इनमें से 1.4 लाख मल्टी ड्रग रेसिस्टेंट थे. उस साल 4.23 लाख लोगों की जान टीबी की वजह से गई. एमडीआर, एक्सट्रीम ड्रग रेसिस्टेंट और टोटल ड्रग रेसिस्टेंट मरीज भारत में हैं और इससे पता चलत है कि यहां टीबी कितना फैला हुआ है.

सरकार के हालिया आंकड़े बताते हैं कि एक चौंथाई टीबी मरीज ड्रग रेसिस्टेंट हैं. यानी इन पर शुरुआती दवाओं का कोई असर नहीं होता. आम तौर पर इसके शिकार गरीब लोग होते हैं लेकिन अब यह शहरी मध्य वर्ग को भी शिकार बना रहा है. ऐसा इसलिए है क्योंकि मधुमेह और प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर करने वाली दूसरी बीमारियां बढ़ रही हैं. सरकार की रिपोर्ट में वे मरीज शामिल नहीं हैं जो निजी अस्पतालों में इलाज करा रहे हैं या जिनके टीबी का पता नहीं चला. ऐसी परिस्थिति में कोई चमत्कार भी सात साल में भारत को टीबी मुक्त नहीं बना सकता.

इस बीमारी का गरीबों पर सामाजिक-आर्थिक दुष्प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है. सामाजिक भेदभाव की वजह से लोग इसे छुपाते हैं. राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम ने इलाज और इस बीमारी को लेकर जागरूकता फैलाने का काफी काम किया. अब इसे संशोधित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम का नाम दिया गया है. छह महीने इलाज वाली डॉट्स कोर्स इसका मूल आधार है. इसके बावजूद इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन में कई समस्याएं रहीं. जन स्वास्थ्य तंत्र में इसे ठीक से जोड़ा नहीं गया. इसका नतीजा यह हुआ कि मरीजों को मालूम ही नहीं है कि इस कार्यक्रम के तहत मुफ्त जांच और इलाज उपलब्ध है. ऐसे में वे निजी अस्पतालों में जा रहे हैं. 60 प्रतिशत टीबी मरीजों का इलाज निजी क्षेत्र में हो रहा है. इलाज करने वाले कई डॉक्टर ऐसे हैं जिनका पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं है. हालांकि, निजी क्षेत्र के कुछ ऐसे चिकित्सक भी हैं जो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. गलत जांच, एंटीबायोटिक्स का अंधाधुंध इस्तेमाल, लगातार दवा नहीं लेना आदि वजहों से एमडीआर और एक्सडीआर टीबी के मामले बढ़ रहे हैं.

उन सुझावों की कमी नहीं है जिससे इस समस्या को लोक स्वास्थ्य आपातकाल बनने से रोका जा सकता है. इसमें एक सुझाव तो यह है कि स्टैंडर्ड जांच के बजाए देश की विविधताओं के आधार पर इलाज की अलग-अलग रणनीतियां अपनाई जाएं. मेडिकल विशेषज्ञ बीमारी का पता लगाने के लिए जीनएक्सपर्ट जांच अपनाने की सलाह दे रहे हैं.

सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकताओं की सक्रिय भागीदारी और बीमारी को समय से पकड़ा जाना भी अहम है. जिन घरों में टीबी मरीज हैं उन घरों के बच्चों की जांच होनी चाहिए ताकि इसका प्रसार न हो सके. गैर-मेडिकल वजहों जैसे गैरनियोजित शहरी विकास और साफ-सफाई से संबंधित समस्याओं का समाधान भी जरूरी है. साथ ही टीबी से जुड़ी सामाजिक मान्यताओं को तोड़ना भी अनिवार्य है.

इस बीमारी के बढ़ने की असली वजह अब भी कुपोषण और गरीबी है. जो मरीज डॉट्स इलाज करा रहे हों, उन्हें अच्छे पोषण की जरूरत होती है. तब ही इलाज प्रभावी होता है. राज्य सरकारों को डॉट्स कार्यक्रम के तहत पोषण मुहैया कराना चाहिए.

सही जांच और इलाज के अलावा टीबी से लड़ने के लिए सही पोषण और साफ-सफाई जरूरी है. यह सलाह सामान्य लग सकती है लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि ये बुनियादी सुविधाएं भी अधिकांश मरीजों को मयस्सर नहीं हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र पर होने वाला खर्च भी महत्वपूर्ण है. सरकार इसे 2025 तक खत्म करना चाहती है कि लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र पर उसका खर्च जीडीपी का महज 1.4 फीसदी है. टीबी मरीजों की बढ़ती संख्या और इसके इलाज पर होने वाले खर्च को देखते हुए सरकार को दो काम करना चाहिए.

पहला काम तो यह कि सरकार को स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च बढ़ाना चाहिए और टीबी से लड़ने पर भी. दूसरा काम यह करना चाहिए कि सरकार देसी जेनरिक दवा उत्पादकों को एमडीआर टीबी की दो दवाओं का सस्ता उत्पादन की अनुमति दे ताकि ये दवाएं गरीबों की पहुंच में आ सकें.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

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