छत्तीसगढ़

विद्याचरण शुक्ल, एक जुझारू जिंदगी

रायपुर | सुनील कुमार: छत्तीसगढ़ के सबसे बुजुर्ग कांग्रेस नेता आज गुजर गए. एक पखवाड़े पहले बस्तर में नक्सल हमले में वे बहुत बुरी तरह जख्मी हुए थे, और दो ऑपरेशनों के बाद भी उनको दिल्ली के अस्पताल में बचाया नहीं जा सका. एक और लोकसभा चुनाव लडऩे की उनकी हसरत बची रह गई. वे अपनी पूरी जिंदगी एक अलग किस्म के लड़ाकू बने रहे, और जितने लोकसभा चुनाव उन्होंने लड़े और जीते, उसका रिकॉर्ड देश में गिना-चुना ही है. इंदिरा गांधी के वक्त से शुरू उनका राजनीतिक सफर लगातार केन्द्र में केन्द्रित रहा, लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वे राज्य की राजनीति में लगे रहे. विद्याचरण शुक्ल के साथ छत्तीसगढ़ की कांग्रेस राजनीति का, और हर किस्म की राजनीति का एक युग लगभग खत्म हो गया. वे अविभाजित मध्यप्रदेश के निर्माता कहे जाने वाले पंडित रविशंकर शुक्ल के बेटों में से सबसे आक्रामक राजनीति करने वाले थे, लेकिन कांग्रेस के खिलाफ भी उन्होंने एक से अधिक मौकों पर चुनावी राजनीति की, और फिर जहाज के पंछी की तरह लौटकर वे कांग्रेस में आ गए थे.

विद्याचरण शुक्ल की जिंदगी का सबसे चर्चित दौर आपातकाल का रहा, जब वे इंदिरा गांधी और संजय गांधी के साथ सेंसरशिप लागू करने वाले मंत्री के रूप में पूरे भारतीय मीडिया की नाराजगी का केन्द्र बने, और मीडिया की अगली पीढ़ी भी उनके उस दौर को नहीं भूल पाई. आपातकाल की जितनी ज्यादतियां रहीं, उन पर जब शाह कमीशन बैठा, तो विद्याचरण शुक्ल जांच के घेरे में लंबे समय तक रहे. इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी के दौर में जब वीपी सिंह के साथ कुछ लोगों ने राजीव से बगावत की, तो उनमें वीसी शुक्ल शामिल थे, हालांकि वे हमेशा यह कहते रहे कि उन्हें कांग्रेस से निकाला गया था, उन्होंने कांग्रेस छोड़ी नहीं थी. अविभाजित मध्यप्रदेश में शुक्ल बंधुओं की राजनीति 1980 से पूरी तरह अर्जुन सिंह के विरोध पर केन्द्रित रही, और यह कड़वाहट बढ़ते-बढ़ते अर्जुन सिंह की छत्तीसगढ़ में सक्रियता की वजह भी बनी. आज जिन लोगों को कांग्रेस में गुटबाजी अधिक लगती है, उन लोगों ने 1980 से शुरू होने वाले एक पूरे दशक को ठीक से याद नहीं रखा है जब श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल लगातार और अलग-अलग कांग्रेस के खेमों में रहे या कांग्रेस के बाहर रहे, इन दोनों की राजनीति कांग्रेस के भीतर भी अलग-अलग चलती रही.

जनमोर्चे के दौर में छत्तीसगढ़ में विद्याचरण शुक्ल कांग्रेस के खिलाफ, राजीव गांधी के खिलाफ एक बड़ी ताकत बनकर उभरे, और कांग्रेस का एक हिस्सा उनके साथ गया. लेकिन बाद के बरसों में वे लौटकर कांग्रेस में आए और जब 2000 में छत्तीसगढ़ एक राज्य बना, तो उन्हें यहां का पहला मुख्यमंत्री बनने की पूरी उम्मीद थी. उनकी वह हसरत पूरी नहीं हुई, और उन्होंने कांग्रेस छोड़कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के झंडे तले छत्तीसगढ़ में कई जगह उम्मीदवार खड़े किए, और यह माना गया कि 2003 के चुनाव में उन्हें मिले वोटों की वजह से इस राज्य में कांग्रेस की सरकार दुबारा नहीं बन सकी. इसके बाद वे लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए भाजपा की तरफ से खड़े हुए, और चुनाव हार गए. जल्द ही वे कभी न छोडऩे की कसम खाते हुए कांग्रेस में लौट आए, और आज 84 बरस की उम्र में वे लोकसभा का अगला चुनाव लडऩे की हसरत रख रहे थे.

छत्तीसगढ़ में विद्याचरण शुक्ल की राजनीति उन लोगों के निशाने पर हमेशा ही रही जो कि छत्तिसगढिय़ा और गैरछत्तिसगढिय़ा की राजनीति में उन्हें बाहर का मानते थे. हालांकि वे अपने बाकी भाई-बहनों के साथ छत्तीसगढ़ में ही पैदा हुए थे, लेकिन स्थानीयता की उग्र राजनीति करने वाले उन्हें आखिर तक बाहर का करार देते आए थे. वे चुनावों से लेकर संगठन की राजनीति में, गुटबाजी में, ओलंपिक एसोसिएशन के चुनावों में, हर जगह बेहद दम-खम से सक्रिय रहते आए थे, और उनको मानने वाले लोगों में हैरान कर देने वाली विविधता थी. उन्होंने पिछले पखवाड़े जख्मी होने के ठीक पहले तक का हर दिन अपनी राजनीतिक सक्रियता से जिया, और आगे और लड़ाई की, संघर्ष की उनकी हसरत अधूरी ही रह गई.

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