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बड़ों को बांटते हो, हमें डांटते हो

जेके कर:
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रूड तेल के कीमतों में गिरावट का लाभ आम जनता को न हो सका. इसका कारण आर्थिक नहीं, राजनीतिक है. अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड तेल की कीमत वर्तमान में करीब 30 डॉलर प्रति बैरल है इसके बावजूद भारत में पेट्रोल तथा डीजल के मूल्य अपेक्षित ढ़ंग से कम नहीं हुये हैं. पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के अंतर्गत पेट्रोलियम नियोजन और विश्लेषण प्रकोष्ठ द्वारा जून 2014 को जारी आकड़ों के अनुसार भारत के लिए कच्चे तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमत 108 डॉलर प्रति बैरल थी जो जनवरी 2015 में गिरकर 50 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी.

27 जनवरी 2016 को विश्व बैंक ने 2016 के लिए कच्चे तेल के वैश्विक मूल्य का अनुमान घटाकर प्रति बैरल 37 डॉलर कर दिया है, जिसके बारे में अक्टूबर में उसने 51 डॉलर प्रति बैरल का अनुमान दिया था. वहीं भारतीय बास्केट के कच्चे तेल की कीमत गत 14 साल के निचले स्तर पर पहुंच गई.

इसके उलट नवंबर 2014 से लेकर अब तक पेट्रोल तथा डीजल के उत्पाद शुल्क में नौ बार बढ़ोतरी की गई है जबकि इस दौर में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल के मूल्यों में कमी आई है. मोदी सरकार के जमाने में अब तक पेट्रोल पर 11.77 रुपये तथा डीजल के उत्पाद शुल्क में 13.37 रुपयों की बढ़ोतरी हुई है.

एक अनुमान के अनुसार चालू वित्त वर्ष में ही सरकार को उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी के कारण 17,400 करोड़ का अतिरिक्त राजस्व प्राप्त होने जा रहा है. जिससे सरकार का बजट घाटा कम होगा. यह दिगर बात है कि इस पूरे मामले में आम जनता घाटे में रहने जा रही है. क्योंकि यदि डीजल के दामों में कटौती की जाती तो उसका मूल्य 32 रुपये प्रति लीटर से भी कम होता जबकि अभी दिल्ली में यह 44 रुपयों में मिलता है. यदि डीजल के दाम कम होते तो इससे खाद्य पदार्थ, कपड़ा, दवा, मकान बनाने के सामान, आवागमन सभी कुछ पहले की तुलना में सस्ता होता तथा वास्तविक महंगाई बढ़ने के बजाये कम होती.

जुलाई 2014 से जनवरी 2016 के बीच तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमत में करीब 75 फीसदी की कमी आई है जिसका लाभ आम जनता तक नहीं पहुंच पाया है. जाहिर है कि इसके लिये केन्द्र सरकार की नीतिया जिम्मेदार हैं. भारत अपने देश में लगने वाले तेल का करीब 80 फीसदी हिस्सा विदेशों से आयात करता है फिर क्यों तेल की कीमतों में गिरावट का लाभ जनता को नहीं मिल पा रहा है. इस पर हमने पहले की चर्चा कर ली है कि कारण आर्थिक नहीं राजनीतिक है.

राजनीतिक कारण से तात्पर्य है कि सरकार की सोच आम जनता को महंगाई से निजात दिलाने के स्थान पर अपने बजट घाटे को कम करने की ओर है. निश्चित तौर पर देश के बजट घाटे को कम किया जाना चाहिये पर आम जनता के बलिदान की बिना पर नहीं.

यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि इसी दरम्यान सरकार ने कार्पोरेट घरानों को बड़ी-बड़ी छूटें दी. तर्क दिया जा रहा है कि इससे देश में निवेश आयेगा. जो निवेश उद्योगों तथा शेयर बाजार में किया जाने वाला है भला उससे आम जनता को क्या राहत मिलने वाली है. सरकारी आकड़ों पर गौर करें तो साल 2014-15 में ही कार्पोरेट घरानों तथा अमीरों को लगने वाले टैक्स में 5.89 लाख करोड़ रुपयों की छूट दी गई थी.

वित्तमंत्री अरूण जेटली ने साल 2015-16 के अपने पहले पूर्ण आम बजट में कार्पोरेट टैक्स को 30 फीसदी से घटाकर 25 कर दिया था. बड़े घरानों को दी जा रही इन तोहफों के बीच प्रश्न किया जाना चाहिये कि आखिर टाटा, अंबानी तथा अडानी क्या रोटी में हीरे जड़ कर खाना चाहते हैं जो उन्हें छूटें दी जा रही है. सरकार के द्वारा छूटें प्राप्त करने के हकदार तो भारत की वह विशाल जनसंख्या है जिसे दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं.

ऐसा नहीं है कि केवल मोदी सरकार ही बड़े घरानों को टैक्स में छूटें दे रही है. इससे पहले की यूपीए सरकार ने भी ऐसी ही दयानतदारी दिखाई थी. यूपीए सरकार ने भी 2013-14 में कॉर्पोरेट और अमीरों को 5.32 लाख करोड़ रूपयों की छूट दिये थे. साल 2005-06 से 2014 तक जो रक़म माफ़ की गई है वो 36.5 लाख करोड़ से ज़्यादा है. यानी सरकार ने 365 खरब रुपए माफ़ किये थे.

हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस समाचार समूह के द्वारा रिजर्व बैंक ऑफ ने उऩके आरटीआई के जवाब में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2013 से वित्त वर्ष 2015 के बीच 29 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के 1.14 लाख करोड़ रुपयों के उधार बट्टे खाते में डाल दिये गये हैं. रिजर्व बैंक ने इनके नाम नहीं बताये हैं पर इसे आसानी से समझा जा सकता है कि निश्चित तौर पर यह आम जनता को दिये जाने वाले गाड़ी, मकान, शिक्षा या व्यक्तिगत लोन नहीं है. ऐसे मौकों पर तो बैंक वाले आम जनता पर लोटा-कंबल लेकर चढ़ाई कर देती है. जाहिर है कि कार्पोरेट घरानों की इसमें बड़ी हिस्सेदारी तय है.

हम फिर से उस बिन्दु पर लौट आते हैं जहां से हमनें शुरुआत की थी. तेल की कीमते क्यों कम नहीं की जा रही है? कारण राजनीतिक है इसे मान लिया परन्तु इस राजनीतिक कारण के नेपथ्य में क्या है? इसका राजनीतिक कारण है कि सरकारों की प्राथमिकता में आम जनता नहीं खास लोगों का होना हैं जिन्हें ऐन-केन-प्रकारेण समय-समय पर उपकृत किया जाता रहता है. चाहे किसी की भी सरकार हो, उसके चुनावी वादे भले ही यह हो कि “बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार”, होना वही है जो मंजूरे व्यवस्था होता है.

और इस व्यवस्था में लोक नीचे तथा तंत्र उपर होता है. तभी तो हम ताना मारते हैं, बड़ों को बांटते हो, हमें डांटते.

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