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दलित वोट बैंक के सवाल

हाल में आये माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश और उसके बाद छिड़े बहस और हिंसा ने एससी-एसटी एक्ट पर फिर से पुरे देश का ध्यान आकर्षित किया है. गौरतलब है कि लगभग 2 साल पहले महाराष्ट्र में मराठों ने भी इस मुद्दे पर एक व्यापक आंदोलन किया था, जिसका निष्कर्ष अलग अलग दलों ने अपने-अपने ढंग से निकला.

हालांकि इस कानून का अपना एक इतिहास है और इसके दोनों तरफ बहस बहुत गहरे हैं. लेकिन एक बात यहाँ देखने लायक है कि जहाँ सामाजिक मंचों को इस प्रकरण ने सिरे से दो हिस्सों में बाँट दिया है, वहीँ राजनीतिक दलों में इस आदेश के विरोध का श्रेय लेने की होड़ मची है. इस मुद्दे में आखिर क्या है कि किसी भी सामाजिक, धार्मिक, जाति या वर्ग के आधार वाला राजनीतिक दल इस मुद्दे पर अलग नहीं दिखना चाहता? इसकी पड़ताल के लिये हमें अपने संसदीय लोकतंत्र और पहचान मूलक राजनीति के लक्षण को समझने की जरुरत है.

एक ओर जहाँ हमारी संसदीय राजनीति ‘फर्स्ट पास्ट दी पोस्ट ‘ व्यवस्था पर आधारित है, जहाँ किसी भी क्षेत्र में सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाला व्यक्ति निर्वाचित घोषित होता है, वहीँ इसमें निहित है बहुदलीय लोकतंत्र या ‘मल्टी पार्टी डेमोक्रेसी’. देश और समाज की विविधताओं को संरक्षित करने और उन्हें उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए यह व्यवस्था चुनी गयी है. लेकिन इसके कारण आज देश के अधिकतम भागों में बहुकोणीय मुकाबलों में आम तौर पर 35% मत किसी को भी सत्ता दिला सकते हैं और यदि उत्तर प्रदेश जैसे तीखे मुकाबले हों तो 25 से 27% मत पूर्ण बहुमत की सरकार बना सकते हैं.

ऐसी स्थिति में राजनीतिक दलों को जरूरी मत जुटाने के लिए दो बड़ी रणनीतियां अपनानी पड़ती हैं. एक है अपने लिए एक प्रतिबद्ध मतदाता वर्ग तैयार करना, जो करीब 20% मतों के आसपास हो और दूसरी है गैर प्रतिबद्ध मतदाताओं में से एक धड़े को अपनी और आकर्षित करना, जो की आम तौर पर करीब 15% होता है. यह दोनों प्रक्रिया काफी अलग-अलग मान्यताओं पर आधारित हैं. पहला हिस्सा यानि प्रतिबद्ध मतदाता या कमिटेड वोटर का वर्ग किसी पहचान और उसके हितों के संवर्धन से जुड़ा है और दूसरा हिस्सा राजनीतिक समझौते पर आधारित होता है, जिसमें किसी अन्य अपने से छोटे वर्ग के साथ समझौता या खरीद-फरोख्त भी शामिल होता है. कई बार कुछ भावनात्मक मुद्दे इस प्रक्रिया में सहायक होते हैं. यहां प्रतिबद्ध वोटरों की समूहों का पोषण को ही वोट बैंक की राजनीति कहा जाता है और वो वोट बैंक जो सौदों में हस्तांतरित हो सके, इस व्यवस्था में सबसे बहुमूल्य है.

इससे पहले कि हम इस प्रक्रिया पर और बात करें, हमें पहचान मूलक राजनीति के लक्षणों पर भी ध्यान देना होगा. पहचानमूलक राजनीति या आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के तीन प्रमुख लक्षण हैं- 1. एक शोषक और शोषित की पहचान 2. शोषित द्वारा शोषण को आत्मसात कर लेना और 3.शोषण से निकलने के लिए शोषक का परिदृश्य से बाहर होने की अनिवार्यता.

इससे एक विशेष पहचान वर्ग का निर्माण होता है. इसकी शुरुआत स्त्री विमर्श से हुआ और फिर इसे अश्वेत आंदोलन ने अपनाया. हालाँकि इसका मूल तत्त्व प्रगितिशील है पर इसके सिद्धांतों का इस्तेमाल नस्ल, भाषा और उनके फलस्वरूप राष्ट्रवादी आंदोलनों में भी किया जा सकता है. पहचान की राजनीति शोषण के आधार पर एक समानता की अवधारणा स्थापित करने की कोशिश करता है. इसमें शोषितों के एकजुटता का आधार एक साझी चेतना का विकास है, जिसमें समानता का आभास और विश्वास निहित है. यह एक बहुत शक्तिशाली प्रक्रिया है और यूरोप का राष्ट्रवाद इसी पर आधारित था, जहाँ दर्जनों छोटे-छोटे राष्ट्र बनाये गए. यहाँ एक संभावित खतरे पर भी बात करनी होगी, वह है इस पहचान का अमूर्त रूप.

दलित वोट बैंक के सवाल
दलित वोट बैंक के सवाल
अब जब हम दलित वोट बैंक की बात करते हैं तो दलित वोट बैंक का मतलब ही होगा पहचान आधारित शोषण की एक साझा कहानी और जाति में वर्ग की एक खोज की. यह धर्मनिष्ठ परिचय के स्थान पर एक धर्मनिरपेक्ष परिचय बनाने की कोशिश थी क्योंकि इससे धार्मिक बेड़ियों को संवैधानिक उपायों से निपटने में सहूलियत होगी. अछूत जातियों को एकजुट कर उन्हें ब्राम्हणवादी व्यवस्था के पीड़ित के रूप में परिभाषित कर उन्हें ब्राम्हणवाद के साथ ही हिन्दू धर्म के ही दायरे से बाहर बताकर गोल मेज अधिवेषन के दौरान उनके लिए मुसलमानों के समान अलग मताधिकार या सेपरेट इलेक्टोरेट की मांग बाबा साहेब आंबेडकर ने की.

इसके तहत एक अलग पहचान का निर्माण होता है, जिनका वृहद् हिन्दू समाज के साथ समझौता पूना समझौते के जरिये होती है. यहाँ संचेतनात्मक एकजुटता और मूर्त सामाजिक लाभ के बीच एक बड़ा सामंजस्य बनता है. अक्सर इस प्रकार की एकजुटता में त्याग की मांग की जाती है क्योंकि पहचान में समानता निहित है. ये अपने अधिक सामर्थ्यवान सदस्यों से अपने कमजोर हमपहचान लोगों के प्रति उदारता और कई बार अपने वर्चस्व के त्याग की अपेक्षा करती है, और इसी आधार पर राष्ट्रों की भी परिकल्पना की जाती है. अक्सर काल्पनिक इतिहास और शत्रु इसके वाहक बनते हैं और एक राष्ट्र की पहचान में शरण मिलने की बात स्थापित की जाती है. इसमें मुझे प्रोफेसर जॉनथों कलर की बात याद आती है- क्या ऐसी काल्पनिक इतिहास के आधार पर एक बर्बर वर्तमान को उचित ठहराया जा सकता है? पर जब पहचान अपने इस समानता के वादे को निभा नहीं पाती तब उसके घातक पहचानों में बेचैनी बढ़ने लगती है और वो विस्तृत पहचान की जगह उसी संकुचित पहचान में सुरक्षा खोजने लगती है.

दलित वोट बैंक का महत्व इन्ही बिंदुओं पर टिका है और आज सभी राजनीतिक दल इस बात को पहचानते हैं. हालाँकि अपने 16% के संख्या बल पर यह किसी भी जोड़ को अजेय बना सकता है और इसके लिए सभी अपने तरीके से इसे रिझा रहे हैं. वृहद् हिन्दू समाज में स्वीकार्यता का लालच हो या फिर अल्पसंख्यकों के साथ शोषण और कमजोरी की साझी कहानी का वास्ता, या फिर कहीं आधुनिक समाज में गरीबों की गोलबंदी में आदिवासियों और पिछड़ों के साथ एकजुटता की मांग, राजनीति के सभी दल अपने प्रतिबद्ध वर्ग के साथ दलित पहचान को जोड़ने के फॉर्मूले खोज रहे हैं.
लेखक पेशे से चिकित्सक और स्वतंत्र विचारक हैं.

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