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दंड और अपराध

मौत की सजा के मामलों में अदालतों को स्पष्ट कायदों को अपनाना चाहिए. इस महीने गैंगरेप के मामले में तीन सजाएं सुनाई गईं. ये और अन्य मामलों में सुनाई गई ऐसी सजाएं यह साबित करती हैं कि मौत की सजा देने के मामले में न्यायपालिका का रुख एक जैसा नहीं है. यह अब तक स्पष्ट नहीं है कि किन मामलों को न्यायपालिका ‘रेयरेस्ट आफ दि रेयर’ मानकर मौत की सजा सुनाती है.

इन तीनों में निर्णय आने में सबसे अधिक समय लगा बिलकिस बानो के मामले में. 3 मार्च, 2002 को गुजरात के राधिकापुर में 19 साल की बिलकिस बानो का बलात्कार उन्हीं के गांव के हिंदुओं ने किया था. उस वक्त वह गर्भवती थीं और बलात्कारियों ने बाद में उन्हें मरा समझकर छोड़ दिया. उनकी एक बच्ची को उनकी आंखों के सामने मार दिया गया था.

उनके परिवार के 14 लोगों की हत्या कर दी गई थी. इसके बावजूद जब बिलकिस को होश आया तो वे शिकायत लिखवाने नजदीकी पुलिस थाने पहुंचीं. वहां ड्यूटी पर मौजूद पुलिसकर्मी ने उनकी शिकायत लिखने से मना कर दिया. 15 दिनों की मशक्कत के बाद वे शिकायत लिखवा पाईं. इसके बावजूद पुलिस ने जो शिकायत दर्ज की उसमें बानो द्वारा दी गई स्पष्ट जानकारियों को नहीं लिखा गया. इसमें वे उन लोगों का नाम बता रही थीं जिन्होंने उनका बलात्कार किया और उनके परिजनों को मार दिया. मामला मजिस्ट्रेट की अदालत में गया.

इस बहादुर महिला को न्याय पाने में 15 साल का वक्त लग गया. 4 मई को बाम्बे उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा. ट्रायल कोर्ट ने 11 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. सुप्रीम कोर्ट की दखल के बाद यह मामला गुजरात के बाहर स्थानांतरित किया गया था.

उच्च न्यायालय के फैसले में एक अहम बात यह भी है कि उसने ट्रायल कोर्ट के दो डाक्टरों और पांच पुलिसकर्मियों को बरी करने के फैसले को भी पलट दिया. ऐसा कभी-कभार ही देखा गया है कि न्याय के लिए मुश्किलें पैदा करने के लिए अदालतें सरकारी गठजोड़ को मानें.हालांकि, दोषियों को मौत की सजा देने की मांग अदालत द्वारा खारिज किए जाना यह दिखाता है कि सजा देने के मामले में एकरूपता नहीं है.

बाम्बे उच्च न्यायालय के फैसले के एक दिन बाद उच्चतम न्यायालय ने दिसंबर, 2012 में ज्योति सिंह के बलात्कार के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दोषियों को दी गई मौत की सजा को बरकरार रखने का फैसला सुनाया. इस मामले में अंतिम फैसला चार साल से थोड़े ही अधिक वक्त में आ गया. इसकी एक बड़ी वजह यह रही कि बलात्कार के बाद जिन 13 दिनों में ज्योति सिंह ने जिंदगी और मौत के बीच जंग लड़ी उस बीच शहरी भारत ने व्यवस्था पर काफी दबाव बनाया.
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इस जनदबाव में जस्टिस वर्मा समिति बनी और इसने बलात्कार से जुड़े मामलों में महत्वपूर्ण बदलावों की सिफारिश की. लेकिन हमें इस बात को समझना होगा कि ऐसे मामलों में हर किसी को एक जैसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता. बिलकिस बानो जैसी गरीब महिला को यौन अपराध का शिकार होने के बावजूद हर रोज अन्याय का सामना करना पड़ता है.

यह हमारी खोखली आपराधिक न्याय व्यवस्था की वजह से है. इनके मामलों में जनदबाव भी नहीं दिखता. ऐसे में जब सरकारी तंत्र इन मामलों पर अपना दबाव डालता है इसका नतीजा हमेशा सकारात्मक नहीं होता. हालांकि, वर्मा समिति ने मौत की सजा के खिलाफ राय रखी थी लेकिन जनदबाव में सरकार जो आपराधिक कानून संशोधन कानून, 2013 लेकर आई उसमें मौत की सजा का प्रावधान रखा गया.

ज्योति सिंह के मामले में मौत की सजा को सही ठहराने के लिए इसे निचली अदालत, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय तीनों ने रेयरेस्ट आफ दि रेयर की श्रेणी में रखा. इसी बात को आधार बनाकर 9 मई को पुणे के एक ट्रायल कोर्ट ने भी एक मौत की सजा सुनाई. यह सजा 28 साल की इंजीनियर नयना पुजारी की बलात्कार और मौत के मामले में सुनाई गई.

नयना जब काम करके घर लौट रही थीं तो चार लोगों ने उनका अपहरण किया, फिर उनका बलात्कार करके उनकी हत्या कर दी और उनके शव को क्षत-विक्षत कर दिया ताकि जब शव मिले तो उसकी पहचान नहीं हो सके. अदालत ने इस मामले को रेयरेस्ट आॅफ दि रेयरेस्ट मानकर मौत की सजा सुनाई. दोनों मामलों में हत्या का आधार बनाकर मौत की सजा सुनाई गई. क्योंकि यह बलात्कार कानून में 2013 के संशोधन का हिस्सा नहीं है.

इसके बावजूद बिलकिस बानो के बलात्कार और उनके आंखों के सामने हुई हत्याओं के मामले में मौत की सजा नहीं सुनाई गई. अदालत ने इस मामले में कहा कि यह हत्या की दुर्लभ घटना है जिसमें लोग वैमनस्य की वजह से जान लेने पर उतारू हो गए. अदालत ने यह भी कहा कि दोषी एक भीड़ का हिस्सा थे जो मुसलमानों से बदला लेने की भावना के साथ गुस्से में उबल रहे थे.

क्या इसका यह मतलब है कि सांप्रदायिक तनाव की स्थिति में होने वाले बलात्कार और हत्या के मामले छोटे अपराध हैं? अदालत ने यह भी कहा कि दोषियों का इसके पहले का कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं रहा है, इसलिए उन्हें मौत की सजा देना सही नहीं होगा. इस हिसाब से तो ज्योति सिंह मामले के चार दोषियों पर कोई पुराना आपराधिक मामला नहीं रहा. तो ऐसे में वह आधार आखिर क्या है जिसकी वजह से अदालतें मौत की सजा सुना रही हैं?

पिछले साल राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय ने मौत की सजा पर एक शोध कार्यक्रम शुरू किया था. इसमें यह बात सामने आई कि जिन लोगों को मौत की सजा सुनाई जाती है उनमें से 80 फीसदी गरीब, पिछड़ी जातियों से या अल्पसंख्यक समुदाय से होते हैं. साफ है कि यह न्याय व्यवस्था से उनका तालमेल बैठा पाने में उनकी अक्षमता को दिखाता है.

कई बार तो उन्हें अपने वकील तक का नाम नहीं पता होता. इस रिपोर्ट को जारी करते वक्त सर्वोच्च न्यायलय के जस्टिस मदन बी लोकुर ने कहा था कि मुझे नहीं लगता कि मौत की सजा के मामले में हममें इस बात को लेकर स्पष्टता है कि इसका क्या लक्ष्य हैः अपराधों को रोकना, सुधार करना या फिर बदला लेना. वे सही कह रहे हैं. हम सब यही कहेंगे कि किसी सभ्य समाज में मौत की सजा का प्रावधान नहीं होना चाहिए लेकिन जब तक यह खत्म नहीं हो जाता तब तक इसका इस्तेमाल स्पष्ट पैमानों पर आधारित होना चाहिए.

1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद

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